Advertisement

नालंदा यूनिवर्सिटी: स्वर्णिम अतीत की होगी वापसी?

शिक्षा केंद्र के रूप में विश्वविख्यात रहे नालंदा में आठ सदी बाद आखिर फिर से शुरू हुई यूनिवर्सिटी.

aajtak.in
  • ,
  • 16 सितंबर 2014,
  • अपडेटेड 1:51 PM IST

कर्नाटक के मैसूर के 30 वर्षीय मैक्ने डेनियल बंगलुरू में 30,000 रु. प्रति माह की नौकरी कर रहे थे. लेकिन उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बिहार की नालंदा यूनिवर्सिटी के पहले सत्र 2014-16 में पारिस्थितिकी और पर्यावरण के पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स में दाखिला ले लिया. इसका खर्च उन्हें प्रति वर्ष 3,00,000 रु. देना पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘‘गौरवशाली अतीत वाली इस यूनिवर्सिटी का हिस्सा बनना सपना सच होने जैसा है.’’
ऐसा भला क्यों न हो. शिक्षा केंद्र के रूप में विश्वविख्यात रही नालंदा यूनिवर्सिटी दोबारा जो खुल गई है. 821 साल पहले बख्तियार खिलजी की आक्रमणकारी सेना ने उसे तबाह कर दिया था. पिछले 1 सितंबर को यहां नए सत्र की शुरुआत दो कोर्स-पारिस्थितिकी और पर्यावरण तथा इतिहास अध्ययन 15 स्टुडेंट्स और 11 फैकल्टी मेंबर्स के साथ हो गई. इस पर पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुशी जताई, ‘‘प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी के तबाह होने से गौरवशाली इतिहास का एक दौर नष्ट हो गया था. ज्ञान में भारत के वैश्विक नेतृत्व और बिहार के स्वर्णिम दौर का भी सूर्यास्त हो गया था. अब उसी गौरव की शुरुआत हो रही है.’’ फिलहाल पढ़ाई नालंदा जिले के राजगीर में राज्य सरकार के कन्वेंशन हॉल में अस्थायी तौर पर शुरू की गई है और तथागत होटल में आवासीय सुविधा उपलब्ध कराई गई है. यह प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी के अवशेष से करीब 14 किमी और पटना से 100 किमी दूर है.
इस गौरवशाली शुरुआत का हिस्सा बनने के जुनूनी उदाहरण सिर्फ डेनियल ही नहीं हैं. पहले सत्र में एडमिशन लेने वाले हर स्टुडेंट में ऐसा ही जज्बा और उत्साह है. भूटान के नवांग तो भूटान यूनिवर्सिटी में डीन के पद पर कार्यरत थे. नवांग ने दो साल की छुट्टी लेकर बतौर स्टुडेंट यहां इतिहास अध्ययन में दाखिला लिया है. एक अन्य स्टुडेंट जापान के अकिरोनारा मुरा कहते हैं, ‘‘नालंदा पवित्र भूमि है, जिससे उनकी आस्था जुड़ी है.’’ कोलकाता की सना सला हों या दिल्ली के अरुण गांधी,  देश के विभिन्न राज्यों से आए स्टुडेंट यहां फख्र महसूस कर रहे हैं. यहां दाखिला लेना इतना आसान भी नहीं था. वाइस चांसलर डॉ. गोपा सभरवाल के मुताबिक, पीजी में दाखिले के लिए करीब 1,500 आवेदन आए थे. लेकिन यूनिवर्सिटी के निर्धारित मानदंडों पर 15 लोग खरे उतरे हैं, जिनको दाखिला दिया गया है.
फैकल्टी मेंबर्स भी नालंदा यूनिवसिर्टी में पढ़ाने को लेकर उत्साहित हैं. सिंगापुर निवासी इतिहास अध्ययन के असिस्टेंट प्रोफेसर यीन केर हों या अमेरिका के फैकल्टी मेंबर सैमुअल राइट, सभी कुछ यों कहते हैं, ‘‘नालंदा यूनिवर्सिटी का नाम किताबों में पढ़ा था पर यकीन नहीं था कि उस गौरवशाली अतीत के साथ जुडऩे का अवसर मिलेगा.’’ असिस्टेंट प्रोफेसर कशफ गनी कहते हैं, ‘‘यहां डिग्री नहीं रिसर्च महत्वपूर्ण है. प्राचीन यूनिवर्सिटी भी रिसर्च के लिए विख्यात रही है. इसे आगे बढ़ाना ही हमारा ध्येय है.’’ सभरवाल भी कहती हैं, ‘‘पुरानी यूनिवर्सिटी की प्रेरणा से ही इसकी स्थापना की गई है. उसके दर्शन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि भारत फिर विश्वगुरु साबित हो सके.’’
ताज्जुब है कि जितना उत्साह स्टुडेंट्स और फैकल्टी मेंबर्स में है, यह उत्साह सरकार, बोर्ड और यूनिवर्सिटी प्रशासन में नहीं दिख रहा. शायद यही वजह है कि यूनिवर्सिटी को अस्थायी तौर पर चालू करने में भी 8 साल का समय लग गया. और तो और यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग बननी तो शुरू भी नहीं हुई है. सिर्फ चारदीवारी का काम पूरा हो सका है. हालांकि 25 नवंबर, 2010 को ही कुलपति की नियुक्ति हो गई थी और 2012 से ही पढ़ाई शुरू होने का अनुमान था. सभरवाल बताती हैं कि यूनिवर्सिटी शुरू करने के पहले कई चुनौतियां थीं. उन्होंने कहा, ‘‘विश्वस्तरीय पढ़ाई के लिए स्तरीय फैकल्टी और स्टुडेंट जुटाना तथा उन्हें बेहतर सुविधा उपलब्ध कराना प्रारंभिक जरूरत थी. इसमें वक्त लगना स्वभाविक है.’’

(नालंदा यूनिवर्सिटी की साइट, जहां निर्माण होना है)
दरअसल, 28 मार्च, 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों के संयुक्त संबोधन में प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी की गरिमा को फिर से बहाल करने का सुझाव दिया था. वे चाहते थे कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों को इससे जोड़ा जाए ताकि नालंदा में फिर से प्राचीन और आधुनिक चिंतन के संदर्भ में विज्ञान, तकनीक, अर्थ, अध्यात्म और मानवीय कल्याण के बीच बेहतर संबंध स्थापित किया जा सके.
वैसे नालंदा की गौरवशाली ख्याति को कायम रखने के लिए आजादी के बाद से ही प्रयास किए जाते रहे हैं. राज्य सरकार ने नालंदा के खंडहर के समीप भिक्षु जगदीश कश्यप के प्रयास से 20 नवंबर, 1951 को नव नालंदा महाविहार की स्थापना की थी. 25 फरवरी, 1994 को भारत के संस्कृति मंत्रालय ने इसका अधिग्रहण कर लिया. 13 नवंबर 2006 को एचआरडी मंत्रालय ने उसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया. लेकिन प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी के उत्तराधिकारी संस्थान के रूप में वह विकसित नहीं हो सका था.
डॉ. कलाम के सुझाव पर ही नए सिरे से प्रयास शुरू हुए. 2007 में बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर इसके लिए फैसला लिया गया और 446 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हुआ. राज्य सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ  नालंदा ऐक्ट पारित किया. अक्तूबर, 2009 में थाईलैंड में पूर्वी एशियाई देशों के सम्मेलन में नालंदा यूनिवर्सिटी की पुनर्स्थापना का सामूहिक फैसला किया गया. इसे केंद्रीय यूनिवर्सिटी के रूप में विकसित करने की बात हुई. इसके लिए तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी को नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक, 2010 बनाने की जिम्मेदारी मिली थी, जिसे लोकसभा और राज्यसभा से पारित किया गया. इस यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बॉडी में केंद्र और राज्य सरकार के अलावा मलेशिया, सिंगापुर, चीन, वर्मा, जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका, तिब्बत, वियतनाम, लाओस समेत सभी बौद्ध और भागीदार देशों को भी सदस्य बनाया गया. इसके सदस्य देश सहयोग करेंगे, पर मेजबान होने की वजह से भारत सर्वाधिक राशि खर्च करेगा. यहां बौद्ध, दर्शन, कला, इतिहास, साहित्य और भाषा के अलावा पर्यावरण जैसे विषयों की पढ़ाई तथा शोध प्रस्तावित हुआ है. नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमत्र्य सेन की अध्यक्षता में नालंदा मेंटर ग्रुप का गठन भी किया गया.
लेकिन पहले राज्य और फिर केंद्र सरकार की प्रक्रिया में लंबा समय खिंच गया. जमीन अधिग्रहण में ही तीन साल का वक्त लग गया.  केंद्र ने शुरुआत के लिए 50 करोड़ रु. का प्रावधान किया है. जापान ने बोधगया-राजगीर-नालंदा मार्ग का चौड़ीकरण किया  है. चीन ने 10 लाख डॉलर और थाईलैंड ने एक लाख डॉलर दिए हैं. सिंगापुर ने लाइब्रेरी की जिम्मेदारी ली है. अमेरिका ने भी मदद की पेशकश की है.
बहरहाल, इतिहास के उस कालखंड में लौटना तो संभव नहीं, लेकिन दुनिया में शिक्षा का केंद्र रही प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी की प्रेरणा से एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षण केंद्र तो विकसित हो ही सकता है, जहां स्तरीय पढ़ाई और रिसर्च हो सके.

गौरवशाली अतीत का साक्षी
प्राचीन नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना 5वीं सदी में हुई थी. यह 1193 तक शिक्षा का विश्वविख्यात केंद्र बना रहा. चीनी यात्री ह्वेनसांग के मुताबिक, इसकी स्थापना कुमारगुप्त ने की थी. यहां बौद्ध धर्म के अलावा वेद, हेतु विद्या, शब्द विद्या, चिकित्सा, योग, तंत्रविद्या और सांख्य दर्शन की पढ़ाई और शोध होता था. माना जाता है, यहां करीब 2,000 शिक्षक और 10,000 छात्र थे. चीन, मंगोलिया, तुर्की, जापान से लेकर कई एशियाई देशों के विद्वान यहां आते थे.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement