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हमारे देश में 83 फीसदी ग्रामीण औरतें और 70 फीसदी शहरी औरतें प्रसव पूर्व देखभाल के चारों चरण पूरे नहीं करतीं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के ये आंकड़े देश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था और बीमार सोच की मिलीजुली तस्वीर पेश करते हैं.
भारत जैसे देश जहां औरतों का मां बनना आज भी उनके अस्तित्व का सवाल है. ऐसे देश में आखिर गर्भवती महिलाएं इस उपचार का पूरा लाभ क्यों नहीं उठा पातीं? रिपोर्ट की मानें तो इसके लिए समाज की सोच और सिस्टम दोनों जिम्मेदार हैं.
‘आयरन की गोली खाई नहीं कि उल्टी शुरू हो जाती है, इसलिए हम बंद कर दिए हैं. झूठ नहीं बोलेंगे आयरन और कैल्शियम दोनों की गोली हमें आशा दीदी ने दी थी. लेकिन जब भी हम गोलियां खाते, हमें उल्टी हो जाती इसलिए हमने फेंक दी’ फैजाबाद के पुरा बजार के चट्टिया गांव की सुमन बेहद इमानदारी से ये सच बता देती हैं.
जब उनसे पूछा गया कि वे आयरन की गोली कैसे खाती थीं तो उन्होंने बताया ‘आयरन, कैल्शियम और फोलिक एसिड की गोलियां सुबह उठकर सबसे पहले ले लेते थे ताकि भूले न.’ जबकि कभी खाली पेट गोलियां ली ही नहीं जाती.
इसके अलावा इन दवाइयों के खाने का एक खास क्रम भी है. हालांकि आशा से बात नहीं हो पाई. लेकिन सुमन कहती हैं कि आशा ने उन्हें गोलियां तो दी थीं लेकिन कैसे खाना है इसके बारे में वे उनसे पूछना भूल गईं.
सवाल ये उठता है कि आशा कार्यकर्ता को जब ट्रेनिंग दी जाती है तो लोगों की काउंसिलिंग कैसे करनी है ये भी बताया जाता है. सेव द चिल्ड्रन में सीनियर टेक्नॉलिजिकल एडवाइजर डॉ. राजेश खन्ना बताते हैं ‘उपकेंद्र में मौजूद स्वास्थ्य कर्मियों का काम काउंसलिंग करना भी होता है. लेकिन अक्सर काउंसिलिंग के आभाव में गर्भवती को पूरी जानकारी नहीं मिल पाती.’
यह मामला एक बानगी भर है कि गर्भवती महिलाओं की प्रसव पूर्व दी जाने वाली पूरी चिकित्सा यानी एंटीनेटल केयर पूरी तरह नहीं हो पा रही है. यानी अगर औरतों तक दवाएं पहुंच भी जाती हैं तो ठीक तरह से काउंसलिंग न होने के कारण औरतें इन दवाइयों को नहीं लेतीं.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 की रिपोर्ट की मानें तो ग्रामीण इलाकों में 16.7 प्रतिशत महिलाएं ही एंटीनेटल केयर ले पाती हैं. जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 31.1 प्रतिशत है. ये आंकड़े इसलिए भी चौंकाने वाले हैं क्योंकि गर्भवती महिलाओं के लिए सरकार की तरफ से कई प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं.
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005). ‘जननी सुरक्षा योजना’, ‘शिशु सुरक्षा कार्यक्रम’, जून 2016 में ‘प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान’ की भी घोषणा प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ में की. बावजूद इसके 83 फीसदी ग्रामीण औरतों और करीब 70 फीसदी शहरी औरतों को प्रसव पूर्व चिकित्सा के चारों चरण न मिल पाना बेहद चिंताजनक है.
इन आंकड़ों के साथ अगर ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017 के आंकड़े भी मिला लिए जाएं तो जो तस्वीर बनेगी किसी देश के लिए ‘राष्ट्रीय शर्म’ का मुद्दा हो सकती है. ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017 के अनुसार प्रजनन क्षमता वाली उम्र की 51 फीसदी औरतें एनिमिक हैं.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 में एंटीनेटल केयर न मिल पाने के जो कारण गिनाए गए हैं वे भारत जैसे देश के सोए हुए नजरिए को दर्शाते हैं. या यों कहें कि बच्चा पैदा करना औरत की सबसे जरूर जिम्मेदारी समझने वाले देशों में से एक भारत में गर्भावती स्त्री की सेहत को गंभीरता से न लेने के नजिरए को दर्शाती है. रिपोर्ट की मानें तो परिवार और पति गर्भवती महिला के प्रसव पूर्व उपचार को गंभीरता से नहीं लेते.
देश की सेहत के लिए हानिकारक है मर्दों का ये नजरिया
26 फीसदी मर्दों को लगता है कि प्रसव पूर्व उपचार की जरूरत नहीं है.19 फीसदी परिवार को लगता है कि ये जरूरी नहीं है. वे इस काम के लिए औरतों को बाहर जाने के पक्ष में नहीं हैं. करीब 10 फीसदी औरतें खुद भी नहीं चाहतीं किसी भी तरह का चेकअप.
करीब 5 फीसदी औरतें बेहतर यातायात न होने की वजह से चेकअप नहीं करा पातीं. दो फीसदी से भी ज्यादा औरतें हेल्थ वर्कर की गैरमौजूदगी की वजह से चेकअप नहीं करा पातीं. और 6 फीसदी औरतें माहवारी की अनियमितता की वजह से प्रसव पूर्व पूरी चिकित्सा नहीं ले पातीं.
घर और सिस्टम दोनों हैं दोषीः
सेव द चिल्ड्रन संस्था में सीनियर टेक्निकल एडवाइजर, हेल्थ एंड न्यूट्रिशन डॉ. राजेश खन्ना की मानें तो घर-परिवार का रवैया और सरकारी सिस्टम दोनों ही गर्भवती महिलाओं की लगातार बीमार होती सेहत के लिए जिम्मेदार हैं. डॉ. खन्ना ने गिनाईं कुछ खास वजहें-
टीकाकरण की चारों अवस्थाएं पार न कर पाने की कई वजहे हैं. गांवों में औरतों का एनीमिया का स्तर बहुत ज्यादा है. खून की कमी के कारण औरतों की माहवारी में अक्सर अनियमितता रहती है. एक दो महीना स्किप भी हो जाता है तो ऐसे में देर से पता चलता है कि औरत प्रेग्नेंट है.
दूसरी अहम वजह सोशल स्टिगमा का होना है. खासकर गांवों में यह मान्यता होती है कि तीन महीने तक किसी को प्रेग्नेंसी के बारे में न बताया जाए. औरतें प्रेग्नेंसी के बारे में डिस्कस करने से भी शर्माती हैं. उन्हें यह भी अंदाजा नहीं होता कि वे जाकर किससे बात करें? परिवार वाले भी प्रायः कम जागरुक होते हैं. हालांकि अब जागरुकता आ रही है.
दूसरी तरफ सरकारी व्यवस्था भी इसके लिए जिम्मेदार होती है. स्वास्थ्य केंद्रों में ऐनम एक से दो घंटों के लिए ही उपलब्ध होती है. अब ये औरतें ज्यादातर घर के काम में व्यस्त रहती है. या अगर मजदूर वर्ग की औरतें है तो फिर मजदूरी में व्यस्त होती हैं.
ऐनम की मौजूदगी के वक्त ही औरतों का उपकेंद्रों में पहुंच पाना मुमकिन नहीं हो पाता. व्यवस्था की दूसरी सबसे बड़ी दिक्कत होती है. काउंसिंलिंग का आभाव. उपकेंद्र से आयरन,कैल्शियम या फोलिक एसिड की टेबलेट तो मिल जाती है. मगर उन्हें कब-कब औ कैसे खाना है? इसे न खाने से कितनी बड़ी समस्या हो सकती है? इस तरह की काउंसिलिंग अगर जमीनी स्तर पर देखें तो न के बराबर होती है.
ऐसे में कई बार फील्ड विजट के दौरान मैंने और मेरी टीम ने पाया कि औरतों तक टेबलेट पहुंच भी जाए तो वे इसे खाती नहीं. अक्सर ये घरों के आस-पास फेंकी हुई पाई जाती हैं. प्रेग्नेंसी के दौरान उल्टियां होना आम लक्षण है. कई बार औरतें इससे घबराकर भी इन टेबलेट्स को नहीं खातीं.
कुल मिलाकर औरतों को ऐंटीनेटल केयर न मिल पाने की वजह घर और सिस्टम दोनों की लापरवाही है.’
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