
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए-1) में शामिल रही द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के पोटा विरोध को भाजपा के तत्कालीन रणनीतिकारों ने सियासी मजबूरी बताया था. दिसंबर 2003 में एम. करुणानिधि ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. मोदी के नेतृत्व में चल रहे एनडीए-2 में तीन तलाक को लेकर तेलगुदेशम पार्टी (टीडीपी) ने भी सरकार की जगह विपक्ष के साथ जाना मुनासिब समझा. भाजपा के मौजूदा रणनीतिकार भी इसे टीडीपी की सियासी मजबूरी मान रहे हैं. सच यह भी है कि एनडीए-2 की यह सहयोगी भी दक्षिण भारत की पार्टी है जिसके पास 16 सांसद हैं.
टीडीपी के इस रुख की आखिर वजह क्या रही है? टीडीपी केंद्र की सरकार में बाकायदा शामिल है और उसके कोटे के मंत्री हैं. आंध्र प्रदेश में भाजपा के साथ उसकी सरकार चल रही है. ऐसे में उसने विपक्षी दलों के साथ जाकर भाजपा को शॄमदा क्यों किया? चंद्रबाबू नायडू के खास माने जाने वाले टीडीपी के राज्यसभा सांसद सीएम रमेश कहते हैं, ''सवाल यह नहीं कि हमारे फैसले से भाजपा को शर्मिंदगी हुई, उससे अहम बात यह है कि मौजूदा स्वरूप में यह बिल हमारे लिए शर्मिंदगी का विषय है." अनौपचारिक बातचीत में टीडीपी नेता मानते हैं कि गठबंधन में अब पहले जैसी बात नहीं रही. भाजपा को राष्ट्रीय परिदृश्य में सरकार चलानी है और टीडीपी या अन्य राज्य स्तरीय या क्षेत्रीय दलों को संबंधित राज्यों पर फोकस करना होता है.
आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा टीडीपी की केंद्र से मांग है जो कि पूरी नहीं हो रही है. राज्यसभा में टीडीपी नेता वाइ.एस. चौधरी कहते हैं, ''हमारी कोशिश है कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिले. हम सभी दलों से इसके लिए सहयोग मांग रहे हैं क्योंकि राजनीति में कोई दल अछूत नहीं होता." चौधरी के इस बयान का निहितार्थ साफ है कि भाजपा के साथ गठबंधन की मजबूती इस बात पर है कि टीडीपी के मुद्दों पर भाजपा का रुख कैसा है. रुख टीडीपी के अनुकूल है तो ठीक वरना गठबंधन कोई मजबूरी नहीं?
वैसे भी दोनों दलों में गठबंधन सिर्फ पांच साल के लिए हुआ है. चूंकि लोकसभा और आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव साथ होते हैं इसलिए 2018 के अंत होते-होते दोनों दलों के लिए अपना हित सबसे ऊपर होगा न कि गठबंधन का हित. वैसे भी पिछले पौने चार साल में दोनों दलों के बीच खाई काफी बढ़ती गई है. भाजपा उपाध्यक्ष डी. पुरंदेश्वरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिख कर चंद्रबाबू नायडू की शिकायत की थी. शिकायत में कहा गया था कि नायडू गठबंधन धर्म नहीं निभा रहे. जगन मोहन रेड्डी की पार्टी के चार विधायकों को नायडू ने अपने मंत्रिमंडल में जगह दी और इसको लेकर भाजपा से चर्चा तक नहीं की गई. इसी तरह नायडू सरकार में भाजपा कोटे के मंत्री पीएम राव ने शराबबंदी के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है तो दूसरी तरफ टीडीपी कोटे के आबकारी मंत्री के.एस. जवाहर शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए हर कोशिश कर रहे हैं. इसको लेकर दोनों के समर्थक आपस में उलझ रहे हैं. दोनों दलों के बीच सिर्फ सरकारी या प्रशासनिक स्तर पर ही विरोध नहीं है संगठनात्मक स्तर पर भी दोनों आमने-सामने हैं.
राज्य में भाजपा के एमएलसी सोमू राजू कहते हैं कि ''गठबंधन की सरकार का यह मतलब नहीं कि आने वाले दिनों में राज्य में भाजपा अपने दम पर सरकार नहीं बना सकती है. हम संगठन को मजबूत कर रहे हैं और बूथ स्तर से लेकर राज्य स्तर तक." टीडीपी भी चुप नहीं है. टीडीपी सांसद ओ.सी. दिवाकर भारतीय जनता पार्टी पर तंज कसते हैं कि ''लोकसभा में भाजपा का बहुमत है इसलिए भाजपा, आंध्र प्रदेश पर ध्यान नहीं दे रही है. बहुमत नहीं होता तो फिर सहयोगियों का महत्व पता चलता."
गठबंधन में दरार की दस्तक सिर्फ दक्षिणी प्रांत से ही नहीं है. पश्चिम भारत में भाजपा के सबसे भरोसेमंद सहयोगी रही शिवसेना तो टीडीपी से उलट खुल्लमखुल्ला भाजपा के खिलाफ नियमित अंतराल पर आग उगलती रही है. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों दलों का वर्षों पुराना रिश्ता टूट गया. भाजपा 122 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. शिवसेना 33 पर सिमट गई. हालांकि काफी जद्दोजहद के बाद शिवसेना देवेंद्र फडनवीस सरकार में शामिल हुई और दोबारा गठबंधन हुआ लेकिन शिवसेना नेताओं ने लगातार भाजपा के खिलाफ बोलने में संकोच नहीं किया. पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय राउत कहते हैं कि, ''शिवसेना को जो कमजोर आंकते हैं वे गलती करते हैं. हम अपनी विचारधारा से कभी डिगे नहीं, न ही समझौता किया. शिवसेना में वह माद्दा है कि आने वाले समय में अपने दम पर सरकार बना सकती है." शिवसेना के नेता अनौपचारिक रूप से कहते हैं कि आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में गठबंधन तभी संभव है जब सीटों का बंटबारा आधा-आधा हो. भाजपा यदि पुरानी दोस्ती चाहती है तो उसका व्यवहार भी पुराना होना चाहिए. शिवसेना को चिंता इस बात से भी है कि यदि वह भाजपा के साथ सीट बंटवारे में झुकी तो धीरे-धीरे शिवसेना के कैडर पर भाजपा अपना कब्जा जमा लेगी क्योंकि विचारधारा के स्तर पर शिवसेना का कैडर भाजपा की विचारधारा के बहुत करीब है. गठबंधन में रहने के बाद भी शिवसेना भाजपा को लेकर आश्वस्त नहीं है. राउत इस बात को स्वीकार करते हैं.
हालांकि वे इस बात पर चुप्पी साध जाते हैं कि कांग्रेस छोडऩे वाले दिग्गज नेता नारायण राणे से भाजपा की नजदीकी शिवसेना को खटक रही है पर वे इतना जरूर कहते हैं कि भाजपा ज्यादातर फैसले एकतरफा लेती है. ''गठबंधन में साथी दलों को भरोसे में लेना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए." महाराष्ट्र से ही एनडीए के सहयोगी रामदास अठावले अपने लिए कैबिनेट मंत्री का दर्जा चाह रहे हैं. राज्यमंत्री के रूप में वे खुद को सहज नहीं मान रहे. अठावले कहते हैं कि ''मैं जिस दलित समुदाय से आता हूं उसकी अपेक्षा है कि मैं कैबिनेट मंत्री बनूं. भाजपा यदि यह मांग मानती है तो पार्टी को लाभ होगा." वे बेलाग कहते हैं कि जो पार्टी दलितों के हितों की बात करेगी वे उसके साथ हैं. वे यह भी स्वीकार करते हैं कि कुछ अन्य दल के लोग भी चाहते हैं कि ''मैं उनके साथ गठबंधन कर लूं लेकिन अभी वे एनडीए के साथ हैं."
भाजपा को एनडीए सहयोगी के रूप में पूर्वी भारत खासकर बिहार में बड़ी सफलता नीतीश कुमार के रूप में मिली जरूर लेकिन इसने रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी ) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (आरएलएसपी) को आशंकित कर दिया है. हालांकि एनडीए घटक के रूप में ये दोनों दल शुरू से ही असहज रहे हैं. आरएलएसपी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा को मोदी सरकार में सिर्फ राज्यमंत्री का दर्जा है. वे भाजपा नेताओं के साथ बैठक में लगातार यह मुद्दा उठाते रहे हैं कि चुनावी रणनीति तय करने में उनकी पार्टी को शामिल नहीं किया जाता. बिहार चुनाव के दौरान भी उन्होंने कम सीट देने की शिकायत की थी. लेकिन भाजपा को लेकर आरएलएसपी का जो सबसे बड़ा परोक्ष आरोप है वह है पार्टी तोडऩे का. आरएलएसपी के नेता अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि उनके पार्टी के सांसद अरुण कुमार के जरिए भाजपा आरएलएसपी को तोडऩे की कोशिश कर रही थी. ऐसे में अरुण कुमार को पार्टी से निकालना पड़ा. अरुण कुमार के साथ विधायक लल्लन पासवान भी थे.
उन्हें भी निकालना पड़ा. उनके पीछे भाजपा थी, यह कैसे कहा जा सकता है? पार्टी के एक नेता कहते हैं कि दोनों को जब पार्टी से निकाला गया तो उन्होंने बयान दिया कि उनका समर्थन मोदी सरकार को है. अब आरएलएसपी की ङ्क्षचता यह है कि नीतीश कुमार के साथ आने के बाद से बिहार में लोकसभा चुनाव के दौरान सीट बंटवारे में आरएलएसपी को भाजपा हाशिए पर रख सकती है, जबकि संकट के समय में (जब नीतीश भाजपा के खिलाफ थे) आरएलएसपी भाजपा के साथ खड़ी थी.
बिहार से ही एनडीए की एक और सहयोगी एलजेपी भी गठबंधन में सहज महसूस नहीं कर रही है. पार्टी नेता हालांकि यह तो नहीं कह रहे कि गठबंधन से दूर जाएंगे लेकिन रामविलास पासवान की उस मांग की तरफ पार्टी नेता बार-बार ध्यान दिला रहे हैं कि एलजेपी के कोटे से सरकार में एक और राज्यमंत्री की मांग नहीं मानी गई है. एलजेपी नेताओं का कहना है कि पार्टी के छह सांसद हैं. इस लिहाज से एक केंद्रीय मंत्री और एक राज्यमंत्री की मांग उचित है. बिहार चुनाव के दौरान भी कम सीटों पर एलजेपी इसलिए तैयार हुई थी क्योंकि भाजपा की तरफ से संकेत दिया गया था कि केंद्र सरकार में एक राज्यमंत्री का पद मिलेगा. लेकिन इस मांग पर गौर नहीं किया गया. अंदरखाने खींचतान लंबे समय से चल रही है. सूत्रों का कहना है कि मणिपुर विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों दलों में तल्खी इतनी बढ़ गई थी कि राज्य की लंगथावल विधानसभा सीट पर भाजपा के खिलाफ ही एलजेपी ने अपना उम्मीदवार चुनाव में उतार दिया. यह सीट दोनों सहयोगी दलों के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गई थी.
पासवान के उम्मीदवार करण श्याम ने भाजपा प्रत्याशी को हरा कर सीट जीती. एलजेपी के नेता मानते हैं कि नीतीश कुमार के एनडीए गठबंधन में आने के बाद गठबंधन को लेकर और परेशानी होगी. एलजेपी यह मान कर चल रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा और नीतीश ही ज्यादातर सीटें ले जाएंगे. जरूरत पड़ी तो सियासी लिहाज से भाजपा, एलजेपी का हाथ छोड़ सकती है. दूसरी तरफ पासवान की सियासत सभी को मालूम है कि वे उस गठबंधन का हिस्सा बनने से कभी गुरेज नहीं करते जो सरकार बना रहा हो या जिसकी सरकार बनने की संभावना उन्हें लगे.
फिलहाल, भाजपा गठबंधन के बीच दरार की दस्तक को सुन तो रही है लेकिन दावा यह कर रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए में 35 दल शामिल हैं. पार्टी नेताओं का कहना है कि भाजपा को अपने दम पर बहुमत है फिर भी पार्टी ने सहयोगी दलों को कैबिनेट में स्थान दिया है. भाजपा के एक महासचिव कहते हैं, ''लोकसभा चुनाव आते-आते एनडीए सहयोगियों की संख्या और बढ़ेगी." हालांकि वे मानते हैं कि सहयोगियों के बीच कुछ मुद्दों पर विचारों का अंतर होता है लेकिन बातचीत से इसका समाधान निकल जाता है. यह दीगर बात है कि मोदी की अगुआई में एनडीए के कुनबे में दलों की संख्या भले ही 35 हो पर इनमें 22 दल ऐसे हैं जिनके पास एक भी सांसद नहीं. ये वे दल हैं जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. वैसे भी एनडीए से जाने का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है. हरियाणा जनहित कांग्रेस के नेता कुलदीप विश्नोई भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं और महाराष्ट्र के शेतकारी स्वाभिमान के नेता (सांसद) राजू शेट्टी किसानों की अनदेखी का आरोप लगा कर मोदी सरकार से समर्थन वापस लेते हुए एनडीए की छतरी से बाहर जा चुके हैं.
तीन तलाक को लेकर टीडीपी के खुलेआम विपक्षी पाले में जाने की घटना 2018 की शुरुआत में ही हुई. इससे पहले असहमति के मुखर स्वर एनडीए के पाले से खुलकर कभी सामने नहीं आए थे. कांग्रेस इससे उत्साहित नजर आ रही है. पार्टी के मीडिया विभाग के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, ''गुजरात चुनाव नतीजों में जिस तरह से कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है उससे उन दलों को एक भरोसा हुआ है जो अभी तक भाजपा को अजेय मानते थे." सुरजेवाला का दावा है कि अगले कुछ महीनों में कांग्रेस को नए सहयोगी मिलेंगे. इसी साल राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं.
अगर कांग्रेस कर्नाटक वापस सत्ता में आ गई और भाजपा से एक या दो राज्य छीनने में कामयाब रही तो एनडीए के कई सहयोगी दल भाजपा पर दबाव बढ़ाएंगे. भाजपा का मौजूदा नेतृत्व जिस आक्रामकता के लिए जाना जाता है उसमें लचीले रुख की संभावना कम दिख रही है. ऐसे में एनडीए की दरार खुलकर सामने आ सकती है, क्योंकि गठबंधन में जितने भी दल हैं आखिरकार उन्हें किसानों, युवाओं, व्यापारियों और अल्पसंख्यकों के ज्वलंत मुद्दों से रू-ब-रू होना पड़ेगा. खासकर क्षेत्रीय दलों को स्थानीय मुद्दों से समझौता करने का अवसर नहीं होता, न ही वे यह खतरा मोल ले सकते हैं.
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