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ताकत होगी तभी तो देंगे चीन को चुनौती

रणनीतिक प्रतिरोध के मामले में सिर्फ क्षमता और आगे बढऩे का संकल्प ही साख को मजबूत करता है. अगर क्षमता नहीं होगी तो काहे का प्रतिरोध?

के.एन. सुशील
  • नई दिल्ली,
  • 25 मार्च 2014,
  • अपडेटेड 6:55 PM IST

खबर है कि चीन की पनडुब्बियां हिंद महासागर में गश्त कर रही हैं. तो क्या हुआ? बेशक, अगर चीन के पास एटमी पनडुब्बियां हैं तो लाजिमी है कि वे हिंद महासागर में भी मंडराएंगी. कई लोग इससे इनकार करेंगे. ऐसे लोग यह माने बैठे हैं कि चीन अभी टेक्नोलॉजी के झमेलों में उलझ है इसलिए इसकी संभावना नहीं है. दरअसल हम भारतीय अब भी पहली “अपने देश में बनी एटमी पनडुब्बी” को समुद्र में उतारने के लिए संघर्षरत हैं. इसलिए अपनी अक्षमता को चीन पर थोपकर इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि वह एटमी पनडुब्बी कैसे उतार सकता है. 

लेकिन चीन का एटमी पनडुब्बी बनाने का कार्यक्रम पुख्ता है और वह अभी तक आठ पनडुब्बियां बना चुका है. इसका यह मतलब भी निकलता है कि चीन की तकनीकी विशेषज्ञता और काम का अनुभव हमसे काफी ज्यादा है. इसके अलावा इस पर भी गौर फरमाइए कि चीन अपनी पनडुब्बियों को 1,000 किमी तक मार करने वाली क्रूज मिसाइल, छोटी दूरी की मिसाइलों और टॉरपीडो से लैस करने की क्षमता भी हासिल कर चुका है.

बेशक, बंगाल की खाड़ी या अरब सागर में चीन की जंगी एटमी पनडुब्बी (एसएसएन) के मंडराने से हमारी नौसेना के लिए भारी खतरा पैदा हो गया है. इससे हमारे जल क्षेत्र में विक्रमादित्य कैरियर बैटल ग्रुप की तैनाती और समुद्र में उसके नियंत्रण लिए भी गंभीर चुनौती पैदा होगी. नौसैनिक रणनीति की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला मिसाइल और टॉरपीडो से लैस एसएसएन की मौजूदगी के खतरे को भांप सकता है. ईरान ने तीन किलो क्लास पनडुब्बी खरीदी है, जिससे अमेरिकी नौसेना के सामने “लिटोरल एएसडब्ल्यू” मिशन को सुलझाने की फौरी जरूरत आन पड़ी है. हमें भी फौरन अपनी क्षमताओं को इन जरूरी बिंदुओं के मुताबिक बढ़ाने की जरूरत है.

पनडुब्बियां: अगर ‘पहले न इस्तेमाल’ करने की हमारी घोषित नीति का कोई मतलब है तो हमें न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने के लिए एसएसएन और एसएसबीएन को ताकतवर बनाने की जरूरत है. एसएसएन और एसएसबीएन को तैनात करने की क्षमता के लिए देश में इन पनडुब्बियों का डिजाइन बनाने और इनका निर्माण करने की क्षमता हासिल करने की जरूरत है. हमें पनडुब्बी निर्माण का जो भी थोड़ा-बहुत अनुभव था, उसे हमने 1994 में आइएनएस शंकुल को तैनात करने के बाद एचडीडब्ल्यू कार्यक्रम बंद करके खो दिया. हमने स्कॉर्पियन कार्यक्रम के दौरान फिर से इसे सीखना शुरू किया है, लेकिन हमारी प्रगति बहुत धीमी है. अपने कौशल को मजबूत करने और अपना औद्योगिक आधार तैयार करने के बदले हम पनडुब्बी निर्माण की उत्पादन इकाइयों के विकेंद्रीकरण में लग गए हैं. सबसे दुखद सच्चाई यह है कि परंपरागत पनडुब्बी बनाने की हमारी क्षमता भी खत्म हो गई है, जिससे एसएसएन और एसएसबीएन के निर्माण में मदद मिलती. अगर हमें चीनियों के मंसूबों को रोकना है तो हथियार वहन क्षमता के हिसाब से कम-से-कम 6-8 एसएसएन और इतनी ही संख्या में एसएसबीएन तैनात करने होंगे.

निगरानी और सर्वेक्षणः हवाई एएसडब्ल्यू निगरानी मुख्य रूप से रूस से आए आइएल 38 और टीयू 142 विमानों के सहारे होती है. सरकार को इस बात के लिए राजी करने में नौसेना को कई साल लग गए कि हमें पनडुब्बी रोधी युद्ध प्रणाली (एएसडब्ल्यू) और सी-41 के मामलों में रूसी तकनीक से आगे बढऩे की जरूरत है. पी 81 विमानों  को शामिल करने से हमारी हवाई एएसडब्ल्यू क्षमता में गुणात्मक उछाल आ सकता है. निगरानी क्षमता जरूर बढ़ी है, लेकिन बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के विशाल क्षेत्र में पनडुब्बियों की टोह लेने में अभी बड़ी चुनौती है.

रणनीतिक एएसडब्ल्यूः पनडुब्बियों की टोह लेने की क्षमता विकसित करने के लिए हमें अपने पास और दूर के क्षेत्रों में लगातार निगरानी करने की जरूरत है. इसका सबसे मुनासिब तरीका हवाई एएसडब्ल्यू को मजबूत करने के लिए समुद्र में पुख्ता व्यूह रचना करना है. नैवल फिजिकल ऐंड ओशियनोग्राफिक लैबोरेटरी (एनपीओएल) ने इस कार्यक्रम पर काम किया है, लेकिन अभी वह तैनाती के स्तर पर नहीं आ पाया है.

पनडुब्बी के डिजाइन और निर्माण से लेकर रणनीतिक एएसडब्ल्यू प्रणाली के विकास के महत्वपूर्ण तकनीकी क्षेत्र में हम कहीं नहीं हैं. अभी भी हम अरिहंत को समुद्र में उतारने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. स्वदेशी परंपरागत पनडुब्बी निर्माण कार्यक्रम भी स्कॉर्पियन कार्यक्रम के शुरू होने में हुई देरी और प्रोजेक्ट 75आइ के मामले में निर्णय प्रक्रिया की लंगड़ी चाल की वजह से ठप्प पड़ा है. एसएसएन के निर्माण की ओर भी कोई कदम उठता नहीं दिखता.

रणनीतिक प्रतिरोध के मामले में सिर्फ क्षमता और आगे बढऩे का संकल्प ही साख को मजबूत करता है. अगर हमारे पास क्षमता नहीं होगी तो काहे का प्रतिरोध? अगर हममें जवाबी कार्रवाई करने की ताकत न हो तो हम दुश्मन की ताकत से घबराए रहेंगे और हमारे पास सौदेबाजी का कोई उपाय नहीं होगा. हमें अपनी क्षमता से खुद में ताकत लानी होगी. कोई एटमी पनडुब्बी गंभीर खतरा पैदा कर सकती है. उनमें से कोई हमारे द्वीपों के बीच संपर्क सूत्र को काटकर हमारे तट से 800 किमी के दायरे में वार करने का खतरा पैदा कर सकती है.

इसलिए फौरी जरूरत यह है कि अपनी साख बढ़ाने के लिए अपनी क्षमता भी बढ़ाई जाए. यह सुझाव दिया गया है कि पनडुब्बी निर्माण क्षमता ‘सार्वजनिक-निजी सहभागिता’ का तंत्र खड़ा करके हासिल की जा सकती है. यह तंत्र अब तक निर्णय प्रक्रिया के जाल में फंसा हुआ है. लगता है कि सार्वजनिक उपक्रमों और रक्षा शिपयार्ड को कायम रखना ही रक्षा मंत्रालय की प्राथमिकता है और यही पनडुब्बी निर्माण के लिए डिजाइन विकसित करने और व्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में बाधा है.
(लेखक के.एन.सुशील रिटायर्ड वाइस एडमिरल और दक्षिणी नौसेना कमान के पूर्व प्रमुख हैं.)

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