Advertisement

गाय के नाम पर नहीं बच पाएगी नीलगाय

केंद्र सरकार ने खेतों को चौपट करने के लिए कुख्यात नीलगाय को चूहे और टिड्डे जैसे फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले जीवों की श्रेणी में डालकर इन्हें मारने का रास्ता साफ किया.

मानसी शर्मा माहेश्वरी/कुणाल प्रताप सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 27 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 6:12 PM IST

साल 2015 के अंत में जैसे ही केंद्र सरकार ने नीलगाय को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची 3 से हटाकर अनुसूची 5 में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों (वर्मिन)  की श्रेणी में डाला, राज्य सरकारों  के लिए इस पशु को खत्म करने का रास्ता भी साफ हो गया. मार्च 2016 में मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने नीलगाय का आधिकारिक नाम 'रोजड़' रख दिया और इसे मारने की इजाजत दे दी. फसल उजाड़ने के लिए कुख्यात नीलगायों से निजात पाने के लिए महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत कई राज्य केंद्र सरकार से इसे वर्मिन घोषित करने की मांग कर रहे थे. केंद्रीय कृषि मंत्री राधमोहन सिंह बताते हैं, 'फसल को होने वाली क्षति और किसानों की परेशानी को समझते हुए हमने केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय को वन्यजीव संबंधित कानून में ढील देने का सुझाव दिया था. जिन राज्यों ने इस आशय का प्रस्ताव भेजा था उन्हें प्रभावित इलाकों में शिकार की अनुमति दी गई.'

Advertisement

पूरे देश में उत्पात
नीलगाय के प्रकोप से देशभर के किसान परेशान हैं. बिहार के 31 जिले नीलगाय से प्रभावित हैं. इनमें से 20 जिले पूरी तरह और 11 जिले आंशिक रूप से प्रभावित हैं. बिहार के किसान नेता हरिदयाल कुशवाहा बताते है, 'नीलगाय झुंड में बहुत तेज दौड़ती हैं, जिससे सड़कों और रेलवे ट्रैक पर आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं. सिर्फ चंपारण में अब तक नीलगायों की वजह से कई लोगों की मौत हो चुकी है.' अब सूबे के 31 जिलों में नीलगायों को प्रतिबंधित की सूची से बाहर रख दिया गया है. बिहार के मुख्य वन्यप्राणी प्रतिपालक एस. के. चौधरी कहते हैं, 'पर्यावरण और वन मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक अब किसान अपनी फसल या संपत्ति की रक्षा के लिए खुद निर्णय ले सकते हैं.'

यूपी का हाल भी कुछ अलग नहीं
उत्तर प्रदेश का हाल भी कुछ बेहतर नहीं हैं. राज्य के कृषि विभाग के मुताबिक, हर साल 10,000 से ज्यादा किसान नीलगायों से फसल खराब होने की शिकायत करते हैं. वन विभाग के मुताबिक, प्रदेश में नीलगायों का सबसे ज्यादा प्रकोप ललितपुर में है. विभागीय पशुगणना बताती है कि बुंदेलखंड के इस इलाके में साढ़े चौदह हजार से अधिक नीलगाय हैं. इसके बाद इटावा का नंबर है जहां इनकी संख्या करीब 11,000 है.

Advertisement

क्या कहते हैं वन अधिकारी?
उत्तर प्रदेश वन विभाग के अधिकारी आर. एस. नेगी कहते हैं, 'नीलगाय ज्यादातर उन इलाकों में पाई जाती हैं जो वन्य क्षेत्र से दूर हैं. इनकी जनसंख्या तेजी से बढ़ती है इसलिए ये किसी भी इलाके में खेती के सामने चुनौती बन जाती हैं.' पूरे प्रदेश में करीब 2.33 लाख नीलगाय हैं जो वन विभाग और किसानों के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं. नीलगाय के उत्पात पर लगाम लगाने में पहला कदम उठाने वाले मध्य प्रदेश के रतलाम, नीमच और मंदसौर जिले उनके आतंक से खासे प्रभावित हैं. यहां के किसान कंवर लाल बताते हैं, 'नीलगायों के झुंड सैकड़ों एकड़ फसल खराब करके चले जाते हैं.' नीलगाय को रोजड़ बनाकर किसानों को राहत देने वाली प्रदेश सरकार के एक प्रवक्ता कहते हैं, 'अब इस जानवर को मारने पर किसी तरह की सरकारी पाबंदी नहीं है.' अब राजस्थान का वन विभाग भी नीलगाय को मारने के अधिकार सरपंचों को देने जा रहा है.

किसानों का लंबा संघर्ष
नीलगायों के आतंक के विरोध में किसानों के छिट-पुट प्रयास देश भर में लंबे समय से जारी थे. लेकिन संगठित रूप से ऐसे प्रयास बिहार के चंपारण में शुरू हुए. 2007 में किसानों ने पहली बार किसान संघर्ष समिति के बैनर तले संगठित होकर धरना-प्रदर्शन किया.

Advertisement

2010 में हाईकोर्ट में दायर हुई याचिका
2010 में समिति के अध्यक्ष हरिदयाल कुशवाहा ने पटना हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर की. इस पर कोर्ट ने टिप्पणी थी कि 'नीलगायों से होने वाली क्षति इतनी व्यापक है कि गरीब किसान और गरीब हो रहे हैं.' जुलाई 2011 में बिहार के वन और पर्यावरण मंत्रालय को कोर्ट ने आदेश दिया कि वह तीन माह के भीतर किसानों की समस्या का हल निकाले. हाइकोर्ट के आदेश के मद्देनजर राज्य सरकार ने अप्रैल 2012 में नीलगायों के सीमित शिकार का आदेश दे दिया था. लेकिन इसके लिए पहले जिलाधिकारी या एसडीएम से लिखित अनुमति लेनी होती थी और नीलगाय के शव का अंतिम संस्कार अनिवार्य था. ऐसे में किसानों ने आंदोलन जारी रखा और आखिरकार 2015 के अंत में केंद्र सरकार ने प्रभावित क्षेत्रों में नीलगाय और जंगली सूअरों को मारने पर प्रतिबंध खत्म कर दिया. सरकार ने यह प्रावधान एक वर्ष के लिए किया है. पहले बिना आदेश के इन्हें मारने पर कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ता था.

मारने का मिला परमिट
उत्तर प्रदेश में नीलगायों से किसानों को बचाने के लिए बड़ा प्रयास मार्च, 2013 में हुआ जब राज्य सरकार ने नीलगायों को मारने का परमिट देने के लिए जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय टीम बना दी. इसमें नीलगायों को किसी भी जिले में उनकी कुल जनसंख्या के 70 फीसदी तक मारे जाने की छूट दे दी गई. हालांकि यह योजना भी असर नहीं दिखा सकी. वन विभाग के एक वन्य जीव संरक्षक बताते हैं  कि 2013 से लेकर अब तक पूरे प्रदेश में 100 नीलगाय भी नहीं मारी जा सकी हैं. इसमें 'वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम-1972' ही आड़े आ रहा है. इस अधिनियम की धारा 39 में यह व्यवस्था है कि नीलगाय का वध करने के बाद उसके शव पर वन विभाग का ही अधिकार होगा. पूर्वांचल के एक जिला पशुधन अधिकारी मनोज सिंह बताते हैं, 'वध के बाद नीलगाय के शव पर अधिकार न होने से लोग सरकार की इस योजना में जरा भी रुचि नहीं दिखा रहे. यही कारण है कि नीलगायों का प्रकोप लगातार बढ़ता जा रहा है.' 

नीलगायों को यूपी में भी पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश की तर्ज पर शेड्यूल पांच का जानवर घोषित करने की कवायद चल रही है. इस श्रेणी में आने से नीलगाय चमगादड़ और चूहे की श्रेणी का क्षतिकारक जानवर बन जाएगी. फिर वध के बाद नीलगाय के शव पर वन विभाग का दावा खत्म हो जाएगा और शिकार करने वाले का शव पर पूरा हक होगा.

Advertisement

शिकार है, शिकारी नहीं
वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन इन इंडिया-रोड टू नो व्हेयर के लेखक डॉ. एच. एस. पाबला कहते हैं, 'आमतौर पर नीलगाय जंगलों से बाहर ही रहती है जहां मांसाहारी जानवरों की संख्या कम होती है. इनकी संख्या में इजाफे की यह एक अहम वजह है.' सामाजिक कार्यकर्ता किरण कुमारी दूसरा उपाय बताती हैं. वे कहती हैं, 'नीलगायों को मारने की बजाए वन विभाग इन्हें बाघ अभयारण्यों में स्थानांतरित कर सकते थे. ऐसा करने पर इनकी बढ़ती आबादी पर तो अंकुश लगता ही, बाघों को उनका स्वाभाविक भोजन भी मिल जाता और पारिस्थितिकी संतुलन भी बना रहता. इससे बाघों के भोजन और रख-रखाव के खर्च में भी कमी आती.' वे यह भी कहती हैं, 'सरकार मेहनत करने से बच रही है और नीलगायों को बेमौत मरवा रही है. यह आत्मघाती और पारिस्थिति की असंतुलन पैदा करने वाला कदम है.'

'गाय' नाम बचा लेता है
किसानों के नीलगायों के उत्पात को सहन करते रहने की वजह इसके नाम के साथ ‘गाय’ जुड़ा होना है. मध्य प्रदेश के वन मंत्री गौरीशंकर शेजवार ने विधानसभा में माना था कि गाय शब्द की वजह से किसान इस पशु को मारने से घबराते हैं. वैसे, अलग-अलग राज्यों में स्थानीय स्तर पर इसे रोजड़, घोड़परास और सख्या जैसे नामों से जाना जाता है.

Advertisement

नाम में भले ही 'गाय' शब्द लगा हो लेकिन वास्तव में यह पशु गाय नहीं बल्कि हिरण की प्रजाति है. इसे एशिया का सबसे बड़ा हिरण होने का गौरव प्राप्त है. इसे ब्लू बुल भी कहा जाता है. नर नीलगाय कद में घोड़े के बराबर होता है. यह उन चुनिंदा वन्यजीवों में शामिल है जो जंगल और जंगल के बाहर भी आसानी से रह लेते हैं. इनकी ऊंचाई 4-5 फुट और लंबाई 6 फुट तक होती है. इनका वजन 120 से 240 किलोग्राम तक होता है. नीलगाय का गर्भावस्थाकाल 8 महीने का होता है. यह एक बार में दो या तीन बच्चों को जन्म देती है. नीलगाय की औसत आयु 21 वर्ष होती है.

वन्यजीव विशेषज्ञ एच. एस. पाबला बताते हैं कि केंद्र सरकार के नए आदेश से पहले राज्यों में नीलगाय को मारने को लेकर अजीब नियम थे. मसलन, मध्य प्रदेश में नीलगाय को उसी खेत में मारने की इजाजत थी जिस खेत को उसने चौपट किया हो. 2001 में भारत में इसकी संख्या दस लाख थी. पूरी दुनिया में नीलगाय इतनी बड़ी तादाद में मौजूद है कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर ऐंड नेचुरल रिर्सोसेज ने इसे 'सबसे कम चिंताजनक' वन्यजीवों की श्रेणी में शुमार किया है.

Advertisement

नीलगाय प्रभावित राज्यों में इससे फसलों को होने वाले नुकसान के लिए किसानों को मुआवजा भी मिलता है. लेकिन मुआवजा लेने की बेहद जटिल प्रक्रिया और मुआवजे की राशि के बेहद मामूली होने की वजह से किसान इसके लिए दावा ही नहीं करते थे. मध्य प्रदेश के कांग्रेसी विधायक सुंदरलाल तिवारी कहते हैं, 'मुआवजा लेने के नियम अव्यावहारिक हैं.' मध्य प्रदेश के नीमच जिले में तो नीलगाय की वजह से फसलों को होने वाले नुकसान और जटिल प्रक्रिया के बावजूद मुआवजे की राशि काफी कम होने को लेकर किसानों ने पिछले साल भूख हड़ताल तक की थी.

जहां किसानों का मानना है कि नीलगाय उनके इलाकों में घुसपैठ कर रही है, वहीं पेटा का मत कुछ और है. पेटा इंडिया के पशुचिकित्सा मामलों के निदेशक डॉ. मनीलाल वेलीयात कहते हैं, 'अगर हम देख रहे हैं कि नीलगाय इंसानी आबादी के बीच आ रही है तो उसकी वजह यह है कि लोगों ने उनके इलाकों में अतिक्रमण कर रखा है. उनसे बचना है तो यह जरूरी है कि उन्हें प्राकृतिक स्थान उपलब्ध कराया जाए.' खैर, अब देखते हैं कि नए आदेश से किसानों को नीलगाय से कितनी राहत मिल पाती है. —साथ में आशीष मिश्र, शुरैह नियाज़ी और विजय महर्षि

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement