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कौम के भटके सिपाही थे नेता जी!

अपने पिता से किया हुआ वादा सुभाष चंद्र बोस ने पूरा कर दिया कि वे लंदन में भारतीय सिविल सेवा के इम्तिहान में बैठेंगे. 1920 में उन्होंने चौथा स्थान हासिल किया और फिर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए निकल पड़े.

subhash chandra bose (File Photo) subhash chandra bose (File Photo)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 10 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 6:22 PM IST

अपने पिता से किया हुआ वादा सुभाष चंद्र बोस ने पूरा कर दिया कि वे लंदन में भारतीय सिविल सेवा के इम्तिहान में बैठेंगे. 1920 में उन्होंने चौथा स्थान हासिल किया और फिर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए निकल पड़े. अगले ही साल उन्होंने उस आलीशान सेवा से इस्तीफा दे दिया, यह कहते हुए कि 'त्याग और बलिदान की भूमि पर ही हम अपना राष्ट्रीय प्रासाद खड़ा कर सकते हैं.' भारत लौटकर वे राष्ट्रीय संग्राम में कूद पड़े और 1923 में बंगाल राज्य कांग्रेस के सचिव और अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने.

वर्ष 1927 आते-आते जवाहरलाल नेहरू के साथ वे नए युवा आंदोलन के नेता के तौर पर उभरे. इस आंदोलन ने उस साल साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शनों में भारत भर को झकझोरते हुए अहम भूमिका अदा की थी और अपनी पहचान कायम की थी. दिसंबर, 1928 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आइएनसी) के कलकत्ता अधिवेशन के मुख्य आयोजक भी थे. इसी अधिवेशन में यह मांग उठी थी कि कांग्रेस के लक्ष्य को 'पूर्ण स्वराज' में बदल दिया जाए.

सविनय अवज्ञा आंदोलन में उनकी गिरफ्तारी के बाद 1932 में उनकी सेहत बिगड़ गई, जिसकी वजह से उन्हें यूरोप जाना पड़ा. वहां उन्होंने यूरोपीय सियासत, खासकर मुसोलिनी के फासीवाद और सोवियत संघ के साख्यवाद को करीब से देखा. वे दोनों से ही खासे प्रभावित हुए और मानने लगे कि बुनियादी सामाजिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अधिनायकवादी हुकूमत कायम करना बेहद जरूरी है.

दरअसल यही वह समय था, जब नेहरू और बोस के राजनैतिक विचारों में, खासकर फासीवाद और नाजीवाद के मुद्दों पर, तीखी दरार उभरने लगी. नेहरू फासीवाद के इस कदर जोरदार विरोधी थे कि उन्होंने मुसोलिनी से मिलने तक से इनकार कर दिया था, जब मुसोलिनी उनसे मिलना चाहते थे, जबकि बोस ने न सिर्फ मुसोलिनी से मुलाकात की, बल्कि उनसे प्रभावित भी थे. नेहरू हिटलर के उभार से दुनिया के लिए बढ़ते खतरे के तीखे आलोचक थे. दूसरी ओर, बोस ने फासीवाद के प्रति उस किस्म की नफरत कभी जाहिर नहीं की और वह ब्रिटेन के खिलाफ जर्मनी और बाद में जापान का सहयोग जुटाने के लिए बिल्कुल तैयार थे. हालांकि 1941 में सोवियत संघ पर जर्मन हमले से वे खुश नहीं थे और यही वजह थी कि वह जर्मनी छोड़कर जापान चले गए. बोस के लिए समाजवाद और फासीवाद दो विरोधी छोर नहीं थे, जिस तरह ये नेहरू के लिए थे.

1938 में गांधीजी के पूर्ण समर्थन से बोस हरिपुरा अधिवेशन के लिए कांग्रेस के सर्वसम्मत अध्यक्ष चुने गए. लेकिन अगले साल उन्होंने फिर से खड़े होने का फैसला किया और इस बार कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की तरफ से उनके प्रतिनिधि के तौर पर. नतीजतन चुनाव हुए, जिनमें बोस 1,377 के मुकाबले 1,580 वोटों से जीते. लेकिन जंग की लकीरें खिंच चुकी थीं. ब्रिटिश हुकूमत के साथ समझौते के लिए काम कर रहे गांधीवादी नेताओं को दक्षिणपंथी कहकर उन्होंने चुनौती उछाली. जवाब में कार्यसमिति के 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि बोस खुद अपनी समिति चुन लें. नेहरू ने दूसरे सदस्यों के साथ इस्तीफा नहीं दिया, लेकिन बड़े नेताओं पर बोस के कीचड़ उछालने से वे नाराज थे. उन्होंने बीच-बचाव करने की और बोस को इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाने की बहुतेरी कोशिशें कीं.

मार्च,1939 में त्रिपुरी में संकट अपने चरम पर पहुंच गया, जब बोस ने नई कार्यसमिति नामजद करने से इनकार कर दिया और आखिरकार इस्तीफा दे दिया. टकराव नीति का भी था और रणनीति का भी. बोस गांधीजी की अगुआई में तत्काल संघर्ष चाहते थे, जबकि गांधीजी को लगता था कि संघर्ष का समय अभी नहीं आया है. कांग्रेस के साथ अपने रिश्तों को खाक में मिलाकर साझा दुश्मन ब्रिटेन के खिलाफ अपनी लड़ाई में समर्थन जुटाने के लिए बोस पहले जनवरी, 1941 में जर्मनी और फिर 1943 में जापान गए. आखिर में वे आजाद ङ्क्षहद फौज (आइएनए) की कमान संभालने के लिए सिंगापुर गए, जिसे जापान के हाथों पकड़े गए युद्ध बंदियों को जुटाकर 1941 में मोहन सिंह ने बनाया था. आइएनए ने साफ कर दिया था कि वह मोर्चे पर तभी उतरेगी, जब कांग्रेस उसे न्योता देगी; यह विरोधी सत्ता केंद्र की तौर पर नहीं बनाई गई थी. बोस ने यह बात तब और साफ कर दी, जब 6 जुलाई, 1944 को उन्होंने आजाद हिंद रेडियो पर प्रसारण में गांधीजी को संबोधित किया. उन्होंने कहा, ''हमारे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति की इस पवित्र लड़ाई में हम आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं की अभिलाषा करते हैं.''

आइएनए को सिर्फ इंफाल की चढ़ाई में जापानी सेना के साथ भाग लेने दिया गया, और यह भी कोई खुशगवार तजुर्बा नहीं था-पक्षपातपूर्ण बर्ताव, तकलीफदेह वापसी और ब्रितानियों के आगे समर्पण. पकड़े गए सैनिकों को वापस भारत लाया गया. उन पर कोर्ट मार्शल की तलवार लटका दी गई. नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने नरमी की मांग की और आइएनए के नुमाइंदों को देशभक्त (अगरचे गुमराह) करार दिया.

देश भर में सहानुभूति की लहर दौड़ गई, और नेहरू, भूलाभाई देसाई, तेजबहादुर सप्रू, काटजू और आसफ अली ने लाल किले की सुनवाइयों में आइएनए के नेताओं का बचाव करने के लिए वकालत का चोगा पहना. इस बीच 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में एक विमान दुर्घटना में बुरी तरह झुलसने के बाद सुभाषचंद्र ने प्राण त्याग दिए. नेहरू ने आइएनए सिपाहियों के बारे में जो कहा था, वही उनके बारे में भी कहा जा सकता है, देशभक्त, लेकिन गुमराह.सत्तारूढ़ पार्टियां आम तौर पर आइबी का इस्तेमाल राजनैतिक विरोधियों की जासूसी या अपने परिजनों पर नजर रखने के लिए करती रही हैं.

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