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जापान के हिरोशिमा की तीव्रता 6.32 थी और नेपाल की 7.9. नेपाल में आया भूकंप हजार गुना ज्यादा ताकतवर था. क्या आप जानते हैं कि एक झटके में नेपाल हिंदुस्तान की ओर चार मीटर खिसक गया. वैसे भी हिंदुस्तान के कुछ हिस्से नेपाल के चार मीटर नीचे खिसक गए हैं. क्या इसके मायने यह हैं कि हमारे राजनैतिक नक्शों की लकीरें फिर से खींचनी पड़ेंगी? अभी तो नहीं. लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा... तो कौन जाने?
चर्चाओं पर कान दीजिए और हिंदुस्तान की भूकंप संबंधी नियति से सावधान रहिए. क्या आप अपने पैरों के नीचे की जमीन को हिलता हुआ महसूस कर सकते हैं? भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाने वाला यह विशाल भूभाग अपनी ऊपरी परत के नीचे कसमसा रहा है. यह पिछले पांच करोड़ साल से और शायद ठीक इस समय भी पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से, जिस रफ्तार से आपकी उंगलियों के नाखून बढ़ते हैं, उत्तर की ओर लचक, झुक और रेंग रहा है. हरेक धक्के के साथ, जो आपको दिखाई भी नहीं देता, धरती की सतह पर चारों ओर आघात और कंपकंपी की लहरें दौड़ जाती हैं. इस बेरहम धक्के को जब भी किसी जिद्दी प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, तो कोई न कोई कीमत चुकानी पड़ती है-एक, या कई, भूकंप या जलजले-छोटे, बड़े, नाटकीय या जानलेवा. क्या आप तैयार हैं?
आगे खतरा है
10,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और गिनती जारी है. 25-26 अप्रैल के सप्ताहांत पर जलजले की तबाही से नेपाल जहन्नुम की तरह दिखाई देने लगा है. गांव के गांव और कस्बे के कस्बे, मंदिर और इमारतें मलबे के ढेर में तब्दील हो गई हैं. हजारों लोग बेघर और लाचार अपने प्रियजनों को गंवाकर, अस्पतालों के वार्डों में इकट्ठा हो गए हैं या मूसलाधार बारिश में भीगते हुए सड़कों पर जमा हैं-उन्हें न खाना नसीब है, न कपड़े, न दवाइयां, न बिजली और न ही टेलीफोन. नदियों के किनारे चिताओं से लपटें उठ रही हैं. मौत की भभक सारे देश पर मंडरा रही है.
जलजले घात लगाए बैठे हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि वे भारत को भी बख्शेंगे नहीं. 26 अप्रैल को गंगा की घाटी का विशाल भूभाग-दिल्ली से लेकर कोलकाता-और असम तक तकरीबन एक मिनट के लिए झटकों से दहल गया. उन्होंने 78 जिंदगियां निगल लीं और लोगों तथा संपत्ति को नुक्सान पहुंचाया सो अलग.
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग बताता है कि पिछले सात दिन में हिंदुस्तान भर में 57 और पिछले एक साल में 122 जलजले आए हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि नेपाल का जलजला धरती के भीतर से एक चेतावनी है-और भी बड़े जलजले आने वाले हैं. लेकिन कब? ठीक-ठीक कहां? कितने ताकतवर होंगे ये? भूकंप वैज्ञानिक सुप्रियो मित्रा कहते हैं, ''यह जाहिर तौर पर बड़ा भूकंप है. लेकिन इसने सतह में 10 मीटर की दरार पैदा नहीं की. अगर 8 तीव्रता और 10 मीटर की दरार वाला जलजला आया और उसका केंद्र राजधानी की ऐन नाक की सीध में खड़े हिमालय के नीचे हुआ, तब शायद दिल्ली को वह सब सहना पड़े.ʼʼ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन ऐंड रिसर्च, कोलकाता के यह युवा वैज्ञानिक महज एक हफ्ते पहले एक कॉन्फ्रेंस के लिए नेपाल में थे.
शैतानी जलजला
डोंट गो देअर! द ट्रेवल डिटेक्टिव्ज एसेंशियल गाइड टू द मस्ट-मिस प्लेसेज ऑफ द वल्र्ड, यह लंबा नाम उस आसान-सी ट्रेवल गाइड का है, जो पत्रकार पीटर ग्रीनबर्ग ने 2008 में लिखी थी और जो दुनिया भर में हाथोहाथ ली गई थी. इस किताब में बेहद अहम वाक्य था, ''भूगर्भ की हलचलों से अस्थिर हिमालय भीषण बर्बादी का स्रोत है, और इसके बदतरीन नतीजे अभी सामने आने बाकी हैं.ʼʼ यह वाक्य कोई उनकी अपनी कल्पना की उपज नहीं था, बल्कि यह 2001 के उस शोध पर आधारित था, जो साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और अमेरिका के बोल्डर स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कोलैरेडो के भूभौतिक वैज्ञानिकों रोजर बिल्हम और पीटर मोल्नर ने बेंगलूरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के विनोद कुमार गौड़ के साथ मिलकर इसे अंजाम दिया था. इन वैज्ञानिकों ने पहली बार यह चेतावनी दी थी कि 8.1 से 8.3 तीव्रता का कम से कम एक, और शायद 7 तक भूकंप, अब कभी भी आ सकते हैं.
अब बेंगलूरू स्थित सीएसआइआर सेंटर फॉर मैथमेटिकल मॉडलिंग ऐंड कंप्यूटर सिम्यूलेशन में मानद वैज्ञानिक गौड़ कहते हैं, ''सैटेलाइट टेक्नोलॉजी और जीपीएस मशीनों के जरिए हमने पाया कि भारत एक सदी में करीब दो मीटर की रक्रतार से तिब्बत की ओर खिसक रहा है.ʼʼ इसी के साथ ऐतिहासिक आंकड़ों से पता चला कि बीती दो सदियों में इस इलाके में बहुत ही कम भूकंप आए हैं, कुछ इलाकों में तो 500 साल से एक भी भूकंप नहीं आया है. हिमालय के 2,500 किमी के वृत्त को 10 क्षेत्रों में बांटकर और उनमें से प्रत्येक को मोटे तौर पर बीती सदियों के एक बड़े भूकंप के साथ रखकर वैज्ञानिकों की टीम ने पाया कि इनमें से छह क्षेत्र 4-6 मीटर आगे खिसक चुके हैं. इसका मतलब था कि इन सभी क्षेत्रों के भीतर, दबाकर रखी गई एक विशाल स्प्रिंग की तरह, इतना ज्यादा खिंचाव पैदा हो चुका है कि वह कभी भी एक बड़े जलजले की तरह फूट सकता है. मध्य हिमालय, उत्तराखंड, खासकर देहरादून और काठमांडू के बीच विशेष रूप से खतरे के मुहाने पर है.
बेचैन धरती
धरती के भीतर की अजीब हलचलों के नीचे प्लेटों की बनावट प्लेट टेक्टॉनिक्स की नौटंकी चल रही है. धरती के ठोस ऊपरी हिस्से में महाद्वीपों और महासागरों को थामे ये बेहद भीमकाय प्लेटें एक-दूसरे को धकेल रही हैं. आइआइटी-खड़गपुर में भूगर्भशास्त्र और भूभौतिकी के प्राध्यापक विलियम के. मोहंती कहते हैं, ''करीब 14 करोड़ साल पहले एक ही अतिविशाल सुपर महाद्वीप था. समय के साथ वह टुकड़ों में टूटता चला गया.ʼʼ यहां तक कि 6.5 करोड़ साल पहले भी भारत दक्षिणी गोलार्ध का एक द्वीप था. पर वह तेजी से उत्तर की तरफ खिसकने लगा. जब भारत की एशिया से टक्कर हुई, तो इसने तिब्बत को ऊपर धकेल दिया और खुद बहुत गहराई में खिसककर उसके नीचे आ गया. इस तरह एक विराट चट्टानी पवर्तमाला का जन्म हुआ, जिसे हम हिमालय के नाम से जानते हैं. महज 5 करोड़ साल में माउंट एवरेस्ट 9 किमी से कुछ ही कम ऊंचाई तक उठ गया.
मोहंती कहते हैं, ''मगर यह सिलसिला रुका नहीं है.ʼʼ हिमालय की पर्वत शृंखलाएं अब भी हर साल 2 सेंमी ऊपर उठ रही हैं. और भारत भी लगातार उत्तर की तरफ खिसक रहा है. इससे एशियाई भूभाग पर जबरदस्त खिंचाव पैदा हो गया है, जो तिब्बत को ऊपर की ओर धकेल रहा है और हिमालय को एक विशाल स्प्रिंग की तरह ऐंठ, घुमा और मरोड़ रहा है. मोहंती कहते हैं, ''एक न एक दिन यह स्प्रिंग तड़क ही जाएगा और हिमालय एक विशाल जलजले में झटके के साथ आगे खिसक जाएगा.ʼʼ सिर्फ एक भीमकाय जलजला लाखों वर्ग किमी भूभाग पर जबरदस्त तबाही बरपा देगा और लाखों लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल देगा. वे कहते हैं, ''अफगानिस्तान से लेकर अरुणाचल प्रदेश और नीचे अंडमान द्वीपों खास तौर पर करोड़ों लोगों से आबाद गंगा की घाटी तक भारी तबाही का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है.ʼʼ
प्लेटों की बनावट की इस लड़ाई ने ही उत्तर भारत को हत्यारे जलजलों की बदतरीन यादें दी हैं. हिमालय क्षेत्र में जो चार बड़े भूकंप (8.0-8.7) आए, वे हैं-1897 में असम, 1905 में कांगड़ा, 1934 में बिहार और 1950 में असम का भूकंप. ये सभी भूकंप धरती के विशाल खंडों के एक-दूसरे से आगे-पीछे खिसकने की वजह से आए थे. 1897 के जलजले के बाद शिलांग का पठार 11 मीटर ऊपर उठ गया. कांगड़ा में 19,800 लोग मारे गए थे और भूकंप के झटके सुदूर पूरब में कोलकाता तक महसूस किए गए थे. बिहार-नेपाल के जलजले ने 16,000 लोगों की जान लील ली थी. 1950 में असम का भूकंप 20वीं सदी का 10वां सबसे बड़ा भूकंप था.
पूर्वानुमान संभव है?
1960 के दशक में, जब गौड़ पढ़ रहे थे, भूकंपों का अध्ययन अंधेरे में टोह लेने की तरह था. तब न तो सैटेलाइट हुआ करती थी और न ही ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस). टेक्टॉनिक प्लेटों की हलचलों का विज्ञान ज्यादातर अज्ञात ही था. प्लेटों की हलचल को समझने के लिए भूकंप वाले क्षेत्रों में छड़ें डाली जाती थीं और यह देखने के लिए इंतजार किया जाता था कि कितने समय में वे कितना खिसकती हैं. 1980 का दशक आते-आते मशीनों और उपकरणों की नई लहर शुरू हुई, जिसकी वजह से विज्ञान चीजों को ज्यादा सटीक ढंग से समझने के काबिल हो सका.
मित्रा कहते हैं, ''आज हम जीपीएस का इस्तेमाल करके भूकंप क्षेत्रों को लगातार और मिलीमीटर तक सटीक नाप सकते हैं कि कहां सापेक्ष हलचलें हो रही हैं और कहां दबाव बन रहा है.ʼʼ अब ऐसे अत्याधुनिक सिस्मोमीटर मौजूद हैं, जो 0.1 नैनोमीटर हलचल के लिए 1 ऐंगस्ट्रम तक के कंपनों को पकड़ सकते हैं या बिल्कुल कैट स्कैन की तरह भूकंपीय तरंगों की तस्वीरें खींच सकते हैं. मित्रा कहते हैं, ''उनकी मदद से हम पहले से बता सकते हैं कि भूकंप कहां आएगा, कितनी तीव्रता और कितने बड़े पैमाने का आएगा. लेकिन यह हम अब भी नहीं बता सकते कि भूकंप कब आएगा.ʼʼ
जलजलों की भविष्यवाणियां जितनी सही निकली हैं, उससे ज्यादा गलत भी हुई हैं. मोहंती कहते हैं, ''1975 में चीन ने हाइचेंग भूकंप की बिल्कुल सही-सही भविष्यवाणी कर दी थी.ʼʼ भूकंप से ठीक एक दिन पहले इमारतों को खाली करवाकर कई जानें बचाई गई थीं, तो भी 1,328 लोग मारे गए थे. इसके बाद भी 1976 में भकंप के पूर्वानुमान की सबसे अहम नाकामियों में से एक बीजिंग के नजदीक टंगशन शहर में 27 जुलाई, 1976 को आया भूकंप था, जो बगैर किसी चेतावनी के आया और 2,50,000 जानें ले गया. वे कहते हैं, ''जलजलों के पीछे कई सारी चीजें काम कर रही होती हैं.ʼʼ
जलजले कई किस्म की हलचलों से पैदा हो सकते हैः वे धरती के भीतर चल रही टेक्टॉनिक हलचलों के कारण हो सकते हैं, वे ज्वालामुखियों की हलचलों से आ सकते हैं, भूस्खलनों या नाभिकीय और/या रासायनिक विस्फोटों की वजह से विशाल भूमिगत गड्ढों में दुघर्टनाओं की वजह से छोटे भूकंप हो सकते हैं. मोहंती बताते हैं, ''सभी भूकंपों का अपना अलग-अलग मैकेनिज्म होता है. कभी-कभी भूकंप से पहले रेडॉन सरीखी गैसें (ज्यादातर चट्टानों में मौजूद यूरेनियम के रेडियोएक्टिव सडऩ से) निकलती हैं, कभी-कभी बड़े जलजले से पहले छोटी-छोटी दरारें आती हैं, कभी-कभी उस इलाके में पानी के स्वाद में फर्क आ जाता है (मसलन ऐसा जापान में अक्सर होता है) और कभी कोई संकेत नहीं मिलता.
यूके की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में भूविज्ञानों के प्रमुख जेम्स जैक्सन नेपाल के भूकंप से थर्राने से सिर्फ एक हफ्ते पहले एक कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए काठमांडू में थे. उन्होंने एक प्रेस वार्ता में कहा, ''(नेपाल) एक किस्म का दुःस्वप्न था, जो घटने का इंतजार कर रहा था. भौतिक और भू वैज्ञानिक लिहाज से जो हुआ, वह ठीक वैसा ही हुआ, जैसा हमने अंदेशा जाहिर किया था.ʼʼ