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दलित राजनीति: साधने और संवारने का नया दौर

रामनाथ कोविंद के बहाने हाशिए पर पड़ी दलित राजनीति को केंद्र में ले आई भाजपा और बढ़ी दलित वोटों को लेकर रस्साकशी, आंबेडकरवादी राजनीति में बिखराव और बाकी पार्टियों के बेदम पुराने मुहावरों से हिंदुत्ववादी राजनीति को मिला नया तेवर.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से कितना सधेगा दलित एजेंडा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से कितना सधेगा दलित एजेंडा
सरोज कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 08 अगस्त 2017,
  • अपडेटेड 8:11 PM IST

सर्वोच्च आसन पर, भले ही उसका महत्व शृंगारिक हो, रामनाथ कोविंद के विराजमान होने और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती के राज्यसभा से इस्तीफे के बीच शायद ही कोई संबंध दिखे. मगर हाल के कुछ राजनैतिक घटनाक्रमों को देखें तो एक तार जुड़ता नजर आता है. लखनऊ में 29 जुलाई को भाजपा कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ऐलान किया कि जाटव समुदाय के प्रभावी नेताओं को भाजपा में लाने की कोशिशें हो रही हैं. उधर, मायावती 18 सितंबर को सहारनपुर में रैली करके अपने ''मिशन यूपी" का आगाज करेंगी.

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दलित राजनीति की हलचलें सिर्फ ये ही नहीं हैं. हैदराबाद में रोहित वेमुला की खुदकुशी, गुजरात के उना में दलितों पर कथित गोरक्षकों के हमले और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में शब्बीरपुर कांड के बाद युवा नेतृत्व भी नई बेचैनी का प्रतीक बनकर उभरा है. बेशक, ये अभी चुनावी राजनीति से दूर हैं पर दलित एजेंडे को नए तेवर में पेश कर रहे हैं. यही तेवर शायद मुख्यधारा की पार्टियों को अपनी रणनीतियां बदलने को मजबूर कर रहा है.

इसमें चुनावी गणित को जोड़ दें, तो दलित वोटों को समेटने तथा गंवा बैठने की बेचैनी और तीखी नजर आएगी. असल में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी दलित वोटों की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जहां दलितों की अच्छी-खासी आबादी है. गौरतलब यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और इस साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत और बसपा के सफाए से दलित वोटों के करवट बदलने की संभावना ने भी राजनैतिक हलचलों को बढ़ाया है.

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भाजपा हाल तक गैर-जाटव दलित जातियों को अपने पाले में करने की कोशिश करती नजर आई है. कोविंद भी उत्तर प्रदेश की गैर-जाटव दलित कोरी जाति के हैं. लेकिन 29 जुलाई को लखनऊ में शाह के बयान से भाजपा की रणनीति में आए बदलाव का संकेत मिलता है. यूपी में दलितों को लेकर भाजपा की बेचैनी की एक वजह सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलित और राजपूतों की टकराहट बताई जा रही है. भगवा दल को डर है कि इसका असर दलित वोटों पर हो सकता है.

सो, दलितों को अपने पाले में बनाए रखने की रणनीति के तहत उसने यूपी में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों में दलितों पर खास तौर पर फोकस किया है. दलितों के बीच लामबंदी तेज करने के लिए भाजपा ने पहली बार हर बूथ पर अनुसूचित मोर्चा समिति बनाने का फैसला किया है. भाजपा अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिवाकर सेठ बताते हैं, ''लखनऊ में 24 सितंबर को सिकंदराबाद स्थित वीरांगना ऊदादेवी की प्रतिमा से विधानभवन तक अंत्योदय मानव शृंखला बनाकर समाज के अंतिम आदमी के कल्याण का संकल्प लिया जाएगा."

ऐसे में मायावती के लिए अपनी दलित राजनीति और जनाधार को बचाए रखने की चुनौती है. सो, उन्होंने ने पहली बार विधानसभावार कार्यकर्ता सम्मेलन करने की योजना बनाई है, जिनमें वे खुद भी हिस्सा लेंगी. इसके अलावा मायावती ने अपने सभी कोऑर्डिनेटर को यूपी में दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामलों की जानकारी नियमित तौर पर प्रदेश मुख्यालय भेजने का निर्देश दिया है. पूर्वांचल के एक कोऑर्डिनेटर बताते हैं, ''दलितों पर अत्याचार के मामलों में पीड़ित पक्ष को कानूनी मदद मुहैया कराने के निर्देश भी दिए गए हैं." सहारनपुर में भीम आर्मी की बढ़ती सक्रियता के मद्देनजर बसपा ने हर जिले में युवा कार्यकर्ता सम्मेलन करने का भी खाका खींचा है.

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दलित वोटों की इसी जद्दोजहद ने पहली बार राष्ट्रपति पद पर दलित उम्मीदवारों को उतारने की दिशा तय की. हालांकि राष्ट्रपति कोविंद के पहले दलित समुदाय के के.आर. नारायणन राष्ट्रपति हो चुके हैं मगर उन्होंने कभी भी अपनी पहचान सिर्फ एक जाति विशेष तक सीमित नहीं की. न तब उन्हें समर्थन देने वाले दलों ने उसे भुनाने की कोशिश की. लेकिन इस बार तो कोविंद भी खुद के संघर्षपूर्ण जीवन का जिक्र करने से नहीं चूके और भाजपा अध्यक्ष ने उनकी उम्मीदवारी का 19 जून को ऐलान करते वक्त करीब पांच मिनट में पांच बार दलित शब्द का जिक्र किया. शाह ने कहा, ''रामनाथ कोविंद दलित समाज से संघर्ष करके राजनैतिक करियर में इतने ऊंचे मुकाम तक पहुंचे हैं."

दलित हितैषी होने का यह संदेश आज कितना अहम है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष को भी राष्ट्रपति पद के लिए दलित पहचान वाली पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने पर मजबूर होना पड़ा. मायावती भी कोविंद का खुलकर विरोध नहीं कर सकीं. 17 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के मतदान के दिन उन्होंने कहा, ''दोनों ओर से दलित उम्मीदवार हैं. दलित उम्मीदवार बसपा की देन है. बाबा साहेब की देन है कि आज राष्ट्रपति चुनाव कोई भी जीते, लेकिन राष्ट्रपति दलित ही होगा." लेकिन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री रामदास अठावले इंडिया टुडे से कहते हैं, ''मोदी जी ने कोविंद जी को राष्ट्रपति पद पर लाकर बड़ी क्रांति की है." भाजपा सांसद उदित राज कहते हैं, ''इससे दलित और कमजोर तबके को मान-सम्मान मिला है. स्वाभाविक तौर पर भाजपा को भी इसका लाभ मिलेगा."

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लेकिन दूसरों की राय इससे अलहदा है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार कहते हैं, ''काफी तिकड़म करने के बाद भी भाजपा को लग रहा है कि दलित वोट अब भी उससे विमुख है. रोहित वेमुला से लेकर सहारनपुर तक दलितों पर अन्याय की घटनाएं जो घटी हैं. ऐसे में इस बेरुखी पर काबू पाने का सबसे आसान तरीका यही था कि किसी दलित को सर्वोच्च पद पर बैठा दिया जाए, लेकिन वह शृंगारात्मक पद हो, निर्णायक न हो."

हालांकि अपनी जाति पर जोर न देने वाले पूर्व राष्ट्रपति नारायणन ने बड़े मौकों पर निर्णायक भूमिका अदा की थी. वे दलितों के हक और उनके खिलाफ अत्याचार को लेकर भी काफी मुखर थे. बिहार में 1997 के चर्चित लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को उन्होंने श्राष्ट्रीय शर्म्य बताया था. उन्होंने न्यायपालिका में दलितों के प्रतिनिधित्व की भी बात उठाई थी. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष तथा रोहित वेमुला के साथी डोंटा प्रशांत कहते हैं, ''बतौर राष्ट्रपति नारायणन ने अपनी स्वायत्तता बनाए रखी थी और संविधान तथा उसके मूल्यों को बचाए रखा था. लेकिन कोविंद की प्रेरणा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है.

वे कितना भी आंबेडकर के प्रति प्रेम दिखा लें लेकिन वे आंबेडकर के विचारों के खिलाफ ही रहे हैं." गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में सीनियर प्रोफेसर तथा चिंतक आनंद तेलतुंबड़े कहते हैं, ''सत्तासीन पार्टी से अलग राय रखने वाला राष्ट्रपति उस पार्टी के लिए जनता के बीच समस्या उत्पन्न कर सकता है. आरएसएस के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में कोविंद भाजपा के लिए सबसे आदर्श चुनाव हैं."

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भीमराव आंबेडकर के पौत्र और भारतीय रिपब्लिकन पक्ष-बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश यशवंत आंबेडकर आरोप लगाते हैं कि आरएसएस-भाजपा ने अपने एजेंडे को लागू करने के लिए कोविंद को राष्ट्रपति बनाया है, न कि दलितों के फायदे के लिए. वे कहते हैं, ''आरएसएस और भाजपा तो संविधान में भी फेरबदल करने की बात करते हैं. ऐसे में अगर वे कुछ ऐसी जुगत करेंगे तो अब कहेंगे कि भाई ऐसा हमने नहीं बल्कि आपके ही समुदाय के शख्स ने किया."

किस ओर दलित राजनीति

भाजपा भले ही दलितों को अपनी ओर खींचने को इच्छुक है, लेकिन उसकी रणनीतियों में भगवा रंग में रंगना अनिवार्य शर्त नजर आ रही है. आंबेडकर से लेकर अन्य दलित प्रतीकों को लेकर भी उसकी यही रणनीति है. इसकी झलक उस वक्त भी मिली जब कोविंद के शपथ ग्रहण के बाद भाजपा सांसदों ने ''जय श्री राम" के नारे लगाए.

आंबेडकर के बाद दलित आंदोलन और राजनीति में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. भारतीय रिपब्लिकन पार्टी (आरपीआइ) से निकले धड़ों में आज सिर्फ रादास अठावले के धड़े की ही सत्ता में भागीदारी नजर आ रही है. वरना प्रकाश आंबेडकर का धड़ा महज स्थानीय स्तर पर थोड़ा-बहुत प्रभाव रखता है. अठावले कभी आरएसएस और भाजपा के विरोधी रहे हैं. लेकिन अपने इस राजनैतिक परिवर्तन पर उनका कहना है, ''मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा दलितों के हित में कई काम कर रही है. सो, भाजपा के साथ रहकर ही दलितों का भला हो सकता है."

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कांशीराम ने 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को खड़ा किया. बसपा उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी है और मायावती मुख्यमंत्री बनी हैं. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव और इस बार के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उसे भारी शिकस्त झेलनी पड़ी है. प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, ''मायावती के पास मौका था कि वे बड़ी नेता बनतीं. लेकिन वे दलितों की सिर्फ एक जाति तक सिमटकर रह गईं."

लेकिन पंजाब समेत अन्य राज्यों में दलितों की अच्छी-खासी आबादी होने के बावजूद बसपा सरीखी स्वतंत्र राजनैतिक ताकत का उभार नजर नहीं आता. बिहार में भी दलित राजनीति नेतृत्व की भूमिका में नहीं रही है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पूर्व चेयरमैन सुखदेव थोराट कहते हैं, ''(कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर) दलितों की जो भी स्वतंत्र गोलबंदी हुई है, वह अलग-थलग पड़ गई. छोटा-सा तमिलनाडु में है, छोटा-सा आंध्र प्रदेश में है, थोड़ा-सा पंजाब में है. लेकिन वह बेदम है. यह कांशीराम और मायावती की देन है कि उत्तर प्रदेश में बसपा के तौर पर सशक्त गोलबंदी बन पाई है. वरना पंजाब और हरियाणा को देख लिजिए, जहां दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद कोई अलग गोलबंदी नहीं बन पाई."

भाजपा की सेंध और वोटों की जंग

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2014 का आम चुनाव भाजपा के लिए न केवल देश की सियासत में बल्कि दलित राजनीति के लिए भी अहम रहा है. भाजपा ने 14 सुरक्षित सीटें जीत ली थीं. इसी तरह इस साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उसने अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित 86 में से 76 सीटों पर जीत दर्ज की. इसके बरअक्स 2014 में बसपा वोट हिस्सेदारी में दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत पाई थी और विधानसाभा चुनाव में 19 सीटों पर सिमटकर रह गई. इससे माना जा रहा है कि इस दौरान बसपा के दलित वोट घट गए हैं. लेकिन विवेक कुमार सवाल करते हैं, ''उसे जो आम चुनाव में करीब 20 फीसदी और फिर उत्तर प्रदेश चुनाव में 22 फीसदी का वोट मिला, वह फिर किसका था?" दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद की भी कुछ ऐसी ही राय है, ''आरएसएस-भाजपा का यह दुष्प्रचार है कि गैर-जाटव दलित समुदाय ने बसपा को वोट नहीं दिया."

प्रशांत का मानना है कि चुनावी जीत-हार अलग हैं मगर जमीनी स्तर पर दलित संगठन भाजपा के खिलाफ उभरे हैं. लेकिन पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान इंडिया टुडे से कहते हैं कि जिस तरह दल की बात को दलित तक पहुंचाने के लिए दलित चेहरे का सहारा लिया जाता है, ठीक उसी तरह दलितों की बात भी दल में सुनी जाएगी तभी दलित नेतृत्व विकसित हो सकेगा. उनके मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बाबत पहल शुरू की है.

नया उभार

लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद रोहित वेमुला की आत्महत्या और सहारनपुर में दलित उत्पीडऩ की घटनाओं के बाद उभरे जनाक्रोश ने सरकार को परेशानी में डाल दिया. यहां तक कि प्रधानमंत्री ने गोरक्षकों के खिलाफ पहली बार उना की घटना के बाद ही मुंह खोला था. सहारनपुर की भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर के भाई कमल किशोर कहते हैं, ''मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद दलितों पर अत्याचार की घटनाएं काफी बढ़ गई हैं. दलितों के खिलाफ इतना अत्याचार कभी नहीं दिखा. भाजपा का नारा ''सबका साथ, दलितों का विनाश" हो गया है." हालांकि उदित राज का तर्क है कि ऐसा नहीं है कि इस तरह की अत्याचार की घटनाएं किसी सरकार में नहीं होतीं, ''इसकी जड़ें समाज में हैं, राजनीति में इसकी जड़ें नहीं खोजनी चाहिए. इसको खत्म होने में समय तो लगेगा. इससे मैं सहमत नहीं हूं कि हमारी सरकार में अत्याचार बढ़े हैं. हरियाणा में कांग्रेस की सरकार रही तो मिर्चपुर और भगाणा जैसी बड़ी घटनाएं हुईं."

ऐसे में राजनैतिक ताकत के बतौर स्वतंत्र दलित आंदोलन भले ही हाशिए पर नजर आ रहा हो, लेकिन हाल की घटनाओं से जिस तरह व्यापक माहौल बना, वह उम्मीदें जगाता है. सुखदेव थोराट कहते हैं, ''दलितों की राजनैतिक स्थिति ठीक नहीं है. लेकिन इस बीच दलितों की सिविल सोसाइटी मजबूत हुई है. हो सकता है यही से कुछ सकारात्मक निकल आए." कुछ ऐसी ही उम्मीद प्रकाश आंबेडकर करते हैं. उनका कहना है कि विभिन्न राज्यों में दलित राजनीति की नई लीडरशिप की जरूरत है. वे कहते हैं, ''यह उभर रही युवा और नई लीडरशिप अगर अपना सामाजिक एजेंडा न छोड़ते हुए अलग किस्म की राजनीति करती है, तो यह पुराने नेताओं की जगह ले सकती है." आज के दौर में सोशल मीडिया पर भी ऐसे दलित युवाओं की धमक देखी जा सकती है.

हालांकि विवेक कुमार की मानें तो रोहित वेमुला, उना से लेकर सहारनपुर तक अनशन और धरना-प्रदर्शन तो दिखाई पड़ा, लेकिन यह आंदोलन में तब्दील नहीं हो पाया. उनके मुताबिक, जो उत्साही दलित युवा हैं, वे अपने ही नेतृत्व के आधार पर बिना संगठन और बिना विचारधारा के उद्वेलित हो रहे हैं, इससे आंदोलन नहीं पैदा होते. युवाओं के प्रयास सराहनीय हैं पर वे लंबे दौर में ही आंदोलन में तब्दील हो पाएंगे. इसलिए वर्तमान में राजनैतिक आंदोलन के साथ मिलकर ही उन्हें लड़ाई लडऩी होगी, तभी परिवर्तन आ पाएगा.

वहीं तेलतुंबड़े का मानना है, ''दलित हितों से गहरे जुड़ाव वाली कोई स्वतंत्र दलित राजनीति नहीं है. दुर्भाग्य से, दलित नेताओं ने अपने पिछड़ेपन को तो खूब भुनाया मगर दलितों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया. इसी तरह आरक्षण की व्यवस्था से उभरे मध्यवर्ग के हित दलित जनता से कुछ अलग किस्म के बन गए. वह अपने हितों के लिए सुविधाजनक ढंग से आंबेडकर के उद्धरण और सांस्कृतिक मसलों को तो उठाता है लेकिन दलितों की जीविका के मुद्दों से कोई वास्ता नहीं रखता."  

 कैसे बदले तकदीर

 राष्ट्रपति चुनाव से ठीक दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के बलिया में एक दलित वृद्ध रिक्शावाले की हत्या कथित तौर पर अपने मेहनताने के महज 10 रु. मांगने के कारण कर दी गई. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, देश में दलितों पर अत्याचार की रोजाना करीब 123 घटनाएं हो रही हैं. दलित शिक्षा, नौकरी और संपत्तियों में हिस्सेदारी में भी औरों से काफी पीछे हैं (देखें ग्राफिक). ऐसे में दलित राष्ट्रपति का होना दलितों की बहुसंख्यक आबादी के लिए क्या मायने रखता है?

विवेक कुमार कहते हैं, ''आधुनिक समाज में सत्ता की सात संस्थाए हैः राजनीति, न्यायपालिका, नौकरशाही, इंडस्ट्री, यूनिवर्सिटी, सिविल सोसाइटी और इंडस्ट्री के बतौर मीडिया. इस सातों में दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में निर्णायक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. इसके साथ-साथ संसाधनों में भी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. जब तक यह नहीं होता, उनका सशक्तीकरण नहीं हो पाएगा." जाहिर है, हर चीज में दलितों के निर्णायक प्रतिनिधित्व के बगैर बदलाव मुमकिन नहीं है. अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलितों की कितनी आवाज बन पाएंगे, यह तो उन्हीं पर निर्भर है.

(साथ में आशीष मिश्र और अशोक कुमार प्रियदर्शी)

 

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