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जनता परिवारः पस्त हुए परिवार की नई पेशकदमी

मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए कभी जनता दल का हिस्सा रही छह पार्टियों ने विलय का फैसला किया,  मगर क्या इसके नेताओं के अहं की टकराहट यह संभव होने देगी?

aajtak.in
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  • 20 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 1:34 PM IST

जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय महासचिव के.सी. त्यागी की चाल में अचानक नया जोश और फुर्ती आ गई है. नरेंद्र मोदी की बीजेपी के हाथों सबसे बुरी चुनावी हार से पस्त होने के 11 महीने बाद आखिर फिर मौका जो दिखने लगा है और फिर जीत की बातें हवा में तैरने लगी हैं. कभी जनता दल का हिस्सा रहे छह पार्टियों के नेता कई महीने चली चर्चा के बाद आखिरकार अपने-अपने अहंकार को छोड़कर अपने साझा दुश्मन बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो गए हैं. हालांकि यह पहली बार नहीं हो रहा है और इसमें पचड़े भी हजार हैं. फिर भी, इसमें यह संदेश भी गूंज रहा है कि सियासत संभावनाओं को मुमकिन बनाने की कला है.

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पिछले 15 अप्रैल को नीतीश कुमार के जेडी(यू), लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी (सपा), ओमप्रकाश चैटाला के इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी), पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले जनता दल (सेकुलर) और समाजवादी जनता पार्टी (एसजेपी), जिनके नेताओं की औसत उम्र 72 है, ने हाथ मिलाया तथा एक साझा दल बनाने का फैसला किया. इस मौके पर त्यागी ने ऐलान किया, "बिहार में हमारी जीत दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा सियासी संदेश देगी." सियासी पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस विलय की कामयाबी पर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी और इन दलों के एक-दूसरे के साथ आने की वजह इनकी सियासी मजबूरी है. जाहिर है, पिछले लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा दांव खेलने वालों में नीतीश कुमार इस पहल का नेतृत्व कर रहे हैं. मोदी ने लोकसभा चुनावों से पहले अपने में जताए गए भरोसे के आधार पर छलांग भरी थी तो उन्हें बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के खिलाफ एनडीए से नाता तोड़कर नीतीश ने कहीं ज्यादा बड़ा जोखिम उठाया था. जाहिर है, जीत किसी एक की ही होनी थी और मोदी जीत गए. तब से लेकर अब तक नीतीश अपने घावों को सहला रहे हैं और अपनी खोयी हुई जमीन को वापस पाने के लिए संयुक्त जनता परिवार के आसरे हैं.

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जहां तक बिहार का सवाल है, अगर आंकड़ों के सहारे स्थिति का आकलन करें तो कह सकते हैं कि त्यागी का आशावाद कुछ खास गलत नहीं है. पिछले साल के लोकसभा चुनाव में प्रदेश में जेडी(यू)-आरजेडी को संयुक्त तौर पर बीजेपी से ज्यादा वोट मिले थे. आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर उपचुनाव लडऩे के नीतीश के प्रयोग ने भी जनता परिवार की कल्पनाओं को पंख लगाने का काम किया था. लोकसभा चुनाव में पड़े मतों के आंकड़े को देखें तो यह साफ है कि एनडीए ने बिहार में सिर्फ 36.48 फीसदी वोट लेकर 31 सीटों पर जीत हासिल की थी. लालू और नीतीश अगर बिहार में कामयाब रहे, तो उससे 2017 में उत्तर प्रदेश और 2018 में कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जनता परिवार की स्थिति मजबूत होगी. चौटाला के हरियाणा में 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं.

बिहार में अच्छे प्रदर्शन के बाद हो सकता है कि नवीन पटनायक का बीजू जनता दल (बीजेडी) और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी जनता परिवार के साथ आ जाएं. ऐसा होने पर 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए खतरा बड़ा हो जाएगा. ओमप्रकाश चौटाला के आइएनएलडी के लिए भी विकल्प सीमित हैं. अब वह बीजेपी पर और ज्यादा भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि हरियाणा में बीजेपी गैर-जाट राजनीति कर रही है. जाट राजनीति के एक असरदार खिलाड़ी बताते हैं, "जनता परिवार की मदद से आइएनएलडी नए सिरे से उभरने की उम्मीद में है." जहां तक देवेगौड़ा के जेडीएस का सवाल है तो उसे भी कर्नाटक में अपनी विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिए एक मंच की दरकार है. वहां अगले विधानसभा चुनावों में सीधी टक्कर कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही जान पड़ती है.

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मुलायम, लालू और चौटाला जैसे नेताओं ने उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा को 1970 के दशक से ही हमेशा समाजवादी राजनीति के परंपरागत सियासी अखाड़े के तौर पर ही देखा है. यहां तक कि 1977 और 1989 के ऐतिहासिक चुनावों में भी कांग्रेस को हराने के लिए जब इन दलों ने पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी को साथ में लिया, तब भी इन राज्यों में उनकी पकड़ मजबूत बनी रही. इस तरह बीजेपी को मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में अपने पांव जमाने का मौका दे दिया. इन समाजवादी नेताओं की पकड़ जाट, यादव और कुर्मी जैसे ताकतवर कृषक समुदायों के सहारे पिछड़ी जातियों के ध्रुवीकरण से संभव हुई थी. अब इन्हें अपने इलाके में भगवा पार्टी का खतरा मंडराता दिख रहा है तो उनकी नजर एक बार फिर इस कामयाब गठजोड़ पर आ टिकी है.

मगर अतीत में ऐसे प्रयोग कई बार नाकाम हो चुके हैं, लिहाजा जनता परिवार का सफर बहुत आसान नहीं दिख रहा. विलय के औपचारिक रूप से साकार होने से बहुत पहले ही इसके नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएं और अहं सतह पर आ गए. विलय को लेकर मुलायम सिंह यादव की सपा का सतर्कतापूर्ण रुख और कभी जनता परिवार का हिस्सा रहे अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) को इसमें शामिल न किया जाना दिखाता है कि विलय की प्रक्रिया में निजी महत्वाकांक्षाओं और अहं की क्या भूमिका है.

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वैसे जनता परिवार के कुछ सदस्य निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि विलय में हुई देरी के पीछे सपा है जहां सिर्फ एक व्यक्ति की चलती है. विलय के विचार से सपा और मुलायम के परिवार के भीतर हर कोई खुश नहीं है. अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि मुलायम के छोटे भाई और दिल्ली में पार्टी के सबसे ज्यादा पहचाने जाने वाले चेहरे रामगोपाल यादव को इस विलय से दिक्कत थी. उन्हें डर था कि बदली हुई स्थिति में उनका असर कम हो जाएगा. हालांकि मुलायम के एक और भाई शिवपाल विलय के विचार के प्रति ज्यादा नरम थे. रामगोपाल ने ही मुलायम को इस समूची कवायद से अजित सिंह को दूर रखने की हिदायत दी थी. नतीजतन, मुलायम के गुस्से से बचने के लिए शरद यादव, नीतीश और लालू को मजबूरन चुप रहना पड़ा.

नई पार्टी के नाम और सपा के चुनाव चिह्न साइकिल को इसका चुनाव चिह्न बनाने को लेकर अभी से मतभेद उभरने लगे हैं. सपा के कुछ नेताओं ने दो संभावित नाम सुझाए हैं-समाजवादी जनता पार्टी और समाजवादी जनता दल. वैसे सूत्रों की मानें तो जनता परिवार के प्रमुख नेताओं ने प्रस्तावित चिह्न और नाम को स्वीकार करने की मंशा जताई है ताकि मुलायम को खुश रखा जा सके. यह अलग बात है कि नाम और चुनाव चिह्न को तय करने में चुनाव आयोग की सहमति भी जरूरी है. मुलायम को खुश करने के लिए एक और कदम उठाया गया है. नए दल की नीतियों और संविधान को तय करने वाली समिति में रामगोपाल यादव का भी नाम डाला गया है. वहीं विलय की घोषणा के दिन रामगोपाल बैठक से गायब थे.

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मोदी के उभार के चलते लालू और नीतीश भले ही दो दशक बाद साथ आने को मजबूर हुए हों लेकिन दोनों के बीच पुरानी दुश्मनी के चलते आरजेडी के कुछ नेताओं ने लालू को विलय न करने का सुझाव दिया था. सच तो यह है कि पिछले महीने तक लालू विलय को लेकर कटिबद्ध नहीं थे. सूत्रों की मानें तो वे जनता परिवार में आने को तब तैयार हुए जब नीतीश ने वादा किया कि बिहार में उनका कद और भूमिका पहले जैसी ही बनी रहेगी.

तत्कालीन जनता दल के अन्य सदस्य, जैसे रामविलास पासवान (एलजेपी), अजित सिंह (आरएलडी) और पटनायक (बीजेडी) विलय के विचार को लेकर सशंकित हैं. पासवान की एलजेपी जहां बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा है, वहीं पटनायक ने भी अब तक जनता परिवार को समर्थन देने पर सहमति जाहिर नहीं की है. आरएलडी के पूर्व लोकसभा सांसद जयंत चौधरी कहते हैं, "विपक्ष की राजनीति हमेशा अस्थिर होती है क्योंकि लोग लगातार विकल्पों की तलाश में रहते हैं. जनता परिवार सही मायने में तभी परिवार बन पाएगा जब मुद्दों, विचारधाराओं और नेतृत्व पर सहमति कायम होगी."
जनता परिवार के सामने अलग-अलग राज्यों में मामूली असर वाली या बेअसर पार्टियों को साथ लेकर चलने से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती मुंह बाए खड़ी है. बिहार और उससे बाहर बीजेपी से मुकाबला करने के लिए उसे इस समझदारी तक आना होगा कि पहचान की राजनीति के दिन अब लद गए हैं.

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पुराने क्षत्रपों के लिए असली चुनौती को रेखांकित करते हुए जनता परिवार के एक नेता कहते हैं, "नए और उभरते हुए भारत में पहचान की बहुत ज्यादा राजनीति और सांप्रदायिक बनाम सेकुलर का विमर्श इन नेताओं को और ज्यादा अलग-थलग करेगा." वे इन नेताओं को पुराने जुमलों से बाहर आने की चेतावनी देते हैं. वे यह भी कहते हैं कि आक्रामक 'यादव' राजनीति पर भी लगाम लगानी होगी ताकि भगवा लहर का मुकाबला करने के लिए हिंदीपट्टी में दूसरे तबकों और जातियों को भी साथ में लिया जा सके.

हालांकि अपने-अपने राज्यों में मुलायम, लालू और शरद यादवों के, चौटाला जाटों के, नीतीश कुर्मी जाति के और देवेगौड़ा वोक्कलिगा जाति के प्रतिनिधि हैं. नेताओं का यह नया समूह उन राज्यों में ताकतवर पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करता है, जहां सामाजिक न्याय की राजनीति एक राष्ट्रीय विकल्प बनकर उभरी थी. इसलिए इन लोगों को जाति की आक्रामक राजनीति से उबरना होगा और दूसरी अति पिछड़ी जातियों के प्रति ज्यादा समावेशी बनना होगा. उन्हें साथ लेकर चलने की कोशिश करनी होगी.

जनता परिवार के भीतर के कुछ लोगों को उम्मीद है कि बिहार में नीतीश की विकास-समर्थक छवि और उत्तर प्रदेश में युवा अखिलेश यादव के सहारे इन दलों के घटते प्रभाव को दोबारा हासिल करने की संभावना मौजूद है. त्यागी इस ख्याल से सहमत हैं. वे मानते हैं कि जनता परिवार के नेताओं के साथ आने से उन्हें मोदी की लहर को पछाडऩे का एक मौका मिला है. वे कहते हैं, "नीतीश कुमार और अखिलेश यादव में इस परिवार की रीढ़ बनने की संभावना है." उनका दावा है कि जनता परिवार न सिर्फ  जल्दी में है बल्कि बेचैन भी है क्योंकि उसे मोदी शैली की राजनीति के खतरे साफ दिखाई दे रहे हैं. त्यागी कहते हैं, "हम बीजेपी को हराने के लिए बेचैन हैं. जेडीयू-आरजेडी की जोड़ी ने अगर बिहार में बीजेपी को हरा दिया तो यह एक निर्णायक मोड़ होगा." हालांकि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि परिवार को अपने राजनैतिक विमर्श को ज्यादा समावेशी बनाना होगा.

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ऐसा लगता है कि जनता परिवार के प्रमुख सदस्यों को इस बात का एहसास है. मुलायम सिंह के आवास पर पिछले नवंबर में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीश ने सामाजिक न्याय के अपने नारे से दूरी बनाए रखी थी. इसके बजाए उन्होंने विदेश से काला धन लाने, रोजगार सृजन और किसानों को बेहतर मुआवजे संबंधी मोदी के चुनावी वादों की हवा निकालना बेहतर समझा. भूमि अधिग्रहण कानून में मोदी सरकार के किए संशोधनों ने इन सभी समाजवादी नेताओं को खेतिहर समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर खुद को पेश करने का अवसर मुहैया कराया है.

कुल मिलाकर नए परिवार के सदस्यों को अपने पुराने नारों को नरम करना होगा और एक नई तथा समावेशी सियासी रणनीति विकसित करनी होगी. यह काम आसान नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं है.

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