
नरेंद्र दामोदरदास मोदी एक तूफान का सबब बने हुए हैं. इसे तूफान कहना उस आर्थिक जलजले को कम करके आंकना होगा जो पिछले 8 नवंबर को बड़े नोटों को बंद करने की प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद देश में आया था. इस अंधड़ ने 15 लाख करोड़ रु. के नोटों को अपनी आगोश में ले लिया और रद्दी में तब्दील कर डाला. सिर्फ एक फैसले ने सब कुछ लीप-पोत कर बराबर कर दिया, जिसके बाद क्या अमीर और क्या गरीब, दोनों ही पुराने नोट बदलने और नए नोट निकालने के लिए बैंकों की लंबी सर्पीली कतारों में एक साथ खड़े नजर आए. भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद को इस फैसले ने हिला डाला और तमाम अहम क्षेत्रों में वृद्धि को बौना कर दिया. यहां तक कि खुद मोदी सरकार मान रही है कि इसका बुरा असर मार्च 2017 तक कहीं नहीं जाने वाला है. हालांकि उसे भरोसा है कि अर्थव्यवस्था उसके बाद पटरी पर आ जाएगी.
जिन्हें मोदी में श्रद्धा है—और मोदी का दावा है कि ऐसे अधिसंख्य लोग हैं—उनके लिए विमुद्रीकरण या नोटबंदी बेईमानी से पैसा जमा करने वालों के खिलाफ एक तगड़ा झटका है. गरीब गुरबा जनता तब तक कतारों में खड़े होकर कष्ट सहने को तैयार रही जब तक कि अमीरों के ऊपर इसकी मार पड़ती रही. उन्हें लगा कि यह फैसला एक पलटवार है, कैंसर की तरह हमारी राजनीति में फैल चुके काले धन के रोग के खिलाफ एक निर्णायक कार्रवाई है.
जो असहमत हैं—और ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जिनमें चोटी के अर्थशास्त्री भी शामिल हैं—वे मोदी को सपने बेचने का महारथी मानते हैं. वे नोटबंदी को जुमलों की फेहरिस्त में एक और जुमले की तरह देखते हैं—हाथ की सफाई जैसा कोई किफायती करतब—जो मोदी ने अपने लचर प्रदर्शन को छुपाने के लिए हवा में उछाल दिया है. ये लोग कह रहे हैं कि नोटबंदी काले धन को उखाड़ फेंकने के प्राथमिक उद्देश्य में नाकाम हो गई है और उसने अर्थव्यवस्था को जो पीड़ा पहुंचाई है, उससे कोई लाभ हासिल नहीं होने वाला है.
फैसला होना अब भी बाकी है, लेकिन मोदी इस तूफान के बीचोबीच बिल्कुल शांत हैं. उनके फैसले ने जैसी खलबली मचाई है, उसके बावजूद वे आत्मविश्वास से लबालब हैं. पुराने नोटों को वापस करने की अंतिम तारीख 30 दिसंबर से दो दिन पहले मैंने साउथ ब्लॉक स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय में उनसे मुलाकात की. उनकी मेज पर फाइलों का कोई बोझ नहीं था और सब कुछ बिल्कुल तरतीब से सजा हुआ था. दीवार पर टंगी तस्वीर से महात्मा गांधी की कातर निगाह उनके ऊपर बरस रही थी.
प्रधानमंत्री ने बताया कि ढाई साल पहले जब वे इस दफ्तर में आए, तो उन्होंने सिर्फ एक बदलाव यह किया कि अपने दो पसंदीदा नायकों (संयोग से दोनों गुजराती) सरदार वल्लभ भाई पटेल और महात्मा गांधी की दो प्रतिमाएं यहां लगवा दीं, जिसमें दोनों संवाद करते दीखते हैं. साथ लगे एक कमरे में उस वक्त उनके मंत्री कैबिनेट की बैठक के लिए इकट्ठा हो रहे थे जिसमें अन्य चीजों के अलावा इस पर भी बात की जानी थी कि नोटबंदी पर और क्या कदम उठाए जाने हैं.
कुर्सी पर बिल्कुल तनकर बैठे मोदी ने अपने कंधे से आलोचनाओं की धूल को झाड़ फेंकते हुए कहा, ''आप इस बात को समझें कि हमने नोटबंदी का फैसला किसी अल्पकालीन लाभ के चलते नहीं किया है, बल्कि यह दीर्घकालीन ढांचागत बदलाव के लिए है. हमारा उद्देश्य वास्तव में अर्थव्यवस्था और समाज को काले धन के अभिशाप से मुक्ति दिलाना था तथा उस अविश्वास, नकली दबावों और दूसरी बीमारियों को खत्म करना था, जो उसके साथ चली आती हैं."
उनके आत्मविश्वास की वजह पूछने पर वे बोले, ''अगर आप स्पष्टता और शुद्धतम मंशा के साथ काम करेंगे तो परिणाम सबके देखने लायक होंगे. मेरे आलोचक चाहे जो कहें लेकिन मुझे इसमें कोई निजी लाभ तो नहीं दिखता, बल्कि सबका कल्याण ही दिखता है." उन्होंने मेरी आंखों में देखकर कहा, ''मैं मानता हूं कि भारत आज एक ऐतिहासिक बदलाव का साक्षी बन रहा है और एक विकसित देश तथा वैश्विक नेतृत्व के रूप में अपनी अंतर्निहित क्षमता को साकार करने के मोड़ पर खड़ा है."
फिर वे महान अमेरिकी स्वप्न के भारतीय संस्करण का खाका खींचने लगे. ''मैं एक ऐसा भारत चाहता हूं जहां का किसान सुखी हो, व्यापारी संपन्न, हर महिला सशक्त हो और युवा रोजगाररत हो. एक ऐसा भारत जहां हर परिवार के पास एक मकान हो और हर परिवार की पहुंच पानी, बिजली व शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं तक हो." अपने अग्रगामी कार्यक्रम की ओर इशारा करते हुए वे मुस्कराते हुए बोले, ''मैं एक ऐसे भारत की दिशा में काम कर रहा हूं जो हर किस्म की गंदगी से मुक्त होकर एकदम स्वच्छ हो."
यही वह कमरा है जहां उनके प्रतिष्ठित पूर्ववर्तियों ने ऐसे फैसले किए थे जिन्होंने भारत के इतिहास की दिशा को बदल डाला. इसी कमरे में जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार उन चार स्तंभों की नींव रखी और योजना बनाई, जिसे बाद में नेहरूवाद के नाम से जाना गया—सेकुलरवाद, स्वावलंबन, मिश्रित अर्थव्यवस्था और गुटनिरपेक्षता. नेहरू राज्य को वृद्धि का इंजन मानकर उसे तरजीह देते थे और ''आधुनिक भारत के मंदिरों" की बात करते थे, साथ ही अपनी दृष्टि को विस्तार देने के लिए खासकर कृषि में निजी उद्यम के लिए भी जगह रखते थे. उनकी विरासत करीब चालीस साल तक इस देश में टिकी रही.
इसी दफ्तर में उनकी पुत्री और उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी ने 1969 में सभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का एक निर्णायक आर्थिक फैसला लिया. उसी साल उन्होंने राजशाही के प्रिवीपर्स को समाप्त किया, जो आरंभ में संसद में पारित नहीं हो सका लेकिन बाद में 1971 में लागू हो गया जब उन्हें चुनावों में बहुमत हासिल हुआ. उस जीत का श्रेय ''गरीबी हटाओ" के उनके नारे को जाता है. बरसों बाद प्रधानमंत्री बनने पर मोदी भी इसी नारे पर अपना राज कायम करना चाह रहे हैं.
गठबंधन सरकार बनाकर इस दफ्तर में बैठे वी.पी. सिंह ने 1990 में आजादी के बाद का सबसे बड़ा सशक्तिकरण कार्यक्रम लागू करते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर डाला और उसके माध्यम से अन्य पिछड़ी जातियों को वैधानिक आरक्षण की व्यवस्था कर दी, जो पहले अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए ही लागू थी. इस फैसले ने योग्यता को प्रभावित किया और सामंती अभिजात्यों के लिए यह एक बड़ा झटका था, जिसका असर आज तक महसूस किया जा रहा है लेकिन इसने पिछड़े समुदायों और जातियों के लोगों को राजनैतिक और आर्थिक सत्ता की पहली कतार में लाकर खड़ा कर डाला.
साल भर बाद 1991 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने अपने वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ मिलकर आर्थिक सुधारों की घोषणा कर दी, जिसके तहत लाइसेंस परमिट राज का अंत, निजी क्षेत्र को बंदिशों से मुक्त किया जाना और विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था को खोला जाना शामिल था. इस आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बेडिय़ों से मुक्त कर दिया और यह दुनिया की सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गई.
जब बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 1998 में सरकार बनाई, तब अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत के आला परमाणु वैज्ञानिकों को बुलावा भेजा, जिनमें ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और आर. चिदंबरम शामिल थे. उन्होंने उसी साल मई में उन्हें पोकरण में परमाणु परीक्षण करने की मंजूरी दे डाली. उसकी कामयाबी के चलते उन्होंने भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र घोषित कर दिया और विश्व की ताकतों में शुमार करवा दिया. उसी साल इस लेखक ने जब वाजपेयी से ऐसे निर्णायक फैसले के पीछे के कारणों को पूछा, तो वे काफी देर तक शांत रहे और फिर इतना ही बोले थे, ''इसे तो होना ही था."
मोदी से नोटबंदी पर ऐसा ही सवाल पूछे जाने पर वाजपेयी वाली स्पष्टता और प्रत्यक्षता का अंदाजा मिलता है. बावजूद इसके हाल के प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के पहले वर्ष में ही अपने निर्णायक फैसले लेते रहे हैं लेकिन मोदी को ऐसा करने में आधा कार्यकाल बीत गया. आर्थिक मोर्चे पर खुद को बाजार हितैशी दिखाने के बाद जब वे सत्ता में आए तो उनके कदमों से ऐसा लगा कि कहीं वे भरोसे को तोड़ न दें. उनके आरंभिक दो बजट बड़े आर्थिक सुधारों के वाहक नहीं रहे, बल्कि निरंतरता और मामूली बदलाव की नीति को दर्शाते रहे.
जब हमें उनसे सबसे कम उम्मीद थी, ठीक तभी उन्होंने नोटबंदी का बम फोड़ कर आर्थिक पोकरण रच डाला. इस फैसले के पीछे प्रधानमंत्री का तर्क यह है कि ''भारत को विकसित राष्ट्र और वैश्विक ताकत" बनाने के लिए यहां काला धन खत्म करने की तत्काल जरूरत थी. उन्होंने यह भी कहा कि यह कदम उन आतंकी समूहों और जाली नोट छापने वालों को रोकने के लिए है जो सीमा पार से अपना काम करते हैं. इसके जो लाभ गिनवाए जा रहे हैं, उनमें कर का दायरा विस्तृत करने की बात कही जा रही है क्योंकि अब हर लेन-देन की पहचान हो सकेगी. बैंकों के बाहर जब नकदी बदलवाने वालों की कतार बढ़ती गई, तब उनकी टीम ने प्रतिकूलता को अवसर में बदल दिया. उन्हें आधुनिकता के महान वाहक की तरह दिखाया गया जो लेन-देन को डिजिटल बनाने और कम नकदी वाली अर्थव्यवस्था को कायम करने के लिए प्रोत्साहन दे रहा है.
ये सारे लक्ष्य प्रशंसनीय हैं, लेकिन इसके पीछे एक राजनैतिक कारण भी है और यह मामला सिर्फ उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव जीतने के उद्देश्य से नहीं लिया गया है. मोदी दरअसल इंदिरा गांधी द्वारा अपनाई रणनीति को दोहरा रहे हैं ताकि उन्हें गरीबों और वंचितों के नए मसीहा के रूप में देखा जा सके. ऐसा करने की प्रक्रिया मंऐ वे जातिगत और धार्मिक जोड़तोड़ के पार चले जाते हैं जबकि उन सामाजिक-आर्थक असमानताओं का दोहन कर रहे हैं जो तेज रफ्तार से भागती एक अर्थव्यवस्था के साथ पैदा होती हैं.
यह मंडल से भी बड़ी सोशल इंजीनियरिंग है. धार्मिक विभाजनों के बजाए ऐसा लगता है कि मोदी वर्गीय विभाजन की जमीन पर खेल रहे हैं और अमीरों तथा गरीबों को एक-दूसरे के बरअक्स खड़ा कर रहे हैं. इसके मूल में संदेश यह है कि वेतनभोगी और कामगार तबका ईमानदार करदाता है जबकि अमीर लोग व्यवस्था की खामियों का दोहन करके अवैध धन जमा कर लेते हैं. ऐसे में मोदी का मंत्र यह है कि वे न सिर्फ धन-संपदा निर्मित करना चाहते हैं (औद्योगिक वृद्धि को समर्थन देकर) बल्कि उसके पुनर्वितरण के लिए भी जोर लगा रहे हैं ताकि वह असमानता और शोषण खत्म हो सके जिससे मजदूर वर्ग प्रताड़ित होता आया है. यह नव-मार्क्सवाद और बाजार का एक ऐसा सम्मिश्रण है जो अस्सी के दशक में चीन में देंग शियाओपिंग ने साकार किया था. जैसा कि एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ''बहुत सीधी और सच्ची बात है कि प्रधानमंत्री खुद को व्यापक संदर्भ में एक सुधारक की भूमिका में देख रहे हैं—न सिर्फ एक आर्थिक बल्कि सामाजिक सुधारक की भूमिका में भी."
ऐसा करते वक्त मोदी बीजेपी और भगवा परिवार के पारंपरिक वोट बैंक के पार जा रहे हैं जिसके पीछे यह अपेक्षा है कि 2019 तक पार्टी के मतदाताओं का आधार और चौड़ा होगा. उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों में जिस तरह विकास के मंत्र का कामयाब इस्तेमाल किया था, ठीक उसी तर्ज पर मोदी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम का एक नया संस्करण विकसित कर रहे हैं जो कभी कांग्रेस पार्टी की चुनावी रणनीति का केंद्र था और साथ ही वे उस भ्रष्टाचार-विरोध के मुद्दे को भी भुना रहे हैं जिसकी नाव पर सवार होकर अरविंद केजरीवाल ने अपना सियासी सफर शुरू किया था. उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि अब तक कोई भी बड़ा घोटाला मोदी की सरकार को घेर नहीं पाया है. उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव मोदी के इन प्रयोगों का इम्तिहान होंगे.
इस दौरान आलोचना के स्वर लगातार बढ़े हैं और ज्यादा व्यापक हुए हैं. खासकर इस फैसले के बाद जब अर्थव्यवस्था में सुस्ती आई है और पैसे की हेरफेर करने वालों ने जमाखोरी किए गए धन को सफेद बनाने के नए तरीके खोज निकाले हैं. असाधारण रूप से कठोर भाषा का इस्तेमाल करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मोदी के फैसले को ''भव्य कुप्रबंधन" और ''संगठित लूट" की संज्ञा दी है. ग्रामीण क्षेत्रों से आ रही खबरें निराशाजनक तस्वीर पेश कर रही हैं, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र से जो नकदी पर ही निर्भर होता है. अर्थव्यवस्था के कई अहम क्षेत्रों में बिक्री और सेवाओं में गिरावट की खबर आई है.
इसके बावजूद मोदी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है. उनका आत्मविश्वास उन गणनाओं से पैदा हो रहा है जो उनकी सरकार ने किए हैं. वो यह है कि 1,000 रु. के करीब दो-तिहाई नोट और 500 रु. के एक-तिहाई नोट प्रवाह में नहीं थे बल्कि जमा करके रखे गए थे. इन नोटों को खुले में औपचारिक अर्थतंत्र के भीतर लाकर सरकार को आर्थिक दंड से अतिरिक्त लाभ मिलेगा. मोदी की टीम मानती है कि इतने नकद के प्रवाह में आने से यह वृद्धि में उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगा.
इस बात के सबूत के तौर पर कि आम जनता का मोदी में भरोसा कायम है, वे इस हकीकत का हवाला देते हैं कि 8 नवंबर के बाद नोटबंदी को लेकर न तो कोई हिंसा हुई और न ही कोई संगठित विरोध सामने आया. वे यह भी मानते हैं कि जनवरी का महीना खत्म होते-होते नकदी का संकट भी कम हो जाएगा. मोदी के हाथ में एक और तुरुप का इक्का आने वाला बजट है जो 1 फरवरी को पेश किया जाएगा. इसका इस्तेमाल वह आर्थिक वृद्धि को उछाल देने की गरज से टैक्स घटाने और खास तौर पर छोटे और मझोले क्षेत्र के लिए प्रोत्साहनों और सस्ते कर्जों सरीखी सौगातें देने के लिए कर सकते हैं.
इस बीच, 2016 में मोदी विदेश नीति के मोर्चे पर भी गेम-चेंजर साबित हुए. अपनी बनिस्बतन नातजुर्बेकारी के बावजूद अपने कार्यकाल की बिल्कुल शुरुआत में ही उन्होंने अपनी ''पास-पड़ोस पहले" नीति से और महाशक्ति देशों की तरफ हाथ बढ़ाने के लिए आर्थिक कूटनीति का इस्तेमाल करके हर किसी को हैरत में डाल दिया था. मगर दिल जीतने की शुरुआती मुहिम के बाद, जिनमें लाहौर की अचानक यात्रा भी थी, पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की उनकी कोशिशें खटाई में पड़ गईं.
मोदी ने सितंबर में पलट वार किया और पाकिस्तान की सीमा के काफी भीतर घुसकर सबसे बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक को कामयाबी के साथ अंजाम दिया. दो हफ्ते पहले उड़ी में एक फौजी टुकड़ी के ऊपर हमले के बाद उन्हें यह कदम उठाना पड़ा. उनका संदेश थाः मैं पिछले हुक्मरान की तरह नहीं हूं. मैं पीछे हटकर नहीं खेलूंगा और न ही दब्बू बनकर रहूंगा ताकि तुम मेरी प्रतिक्रिया की कोई परवाह न करो. उन्होंने सिंधु जल संधि पर फिर से विचार करने का मुद्दा भी उठाया और पाकिस्तान को हड़काने के लिए ब्लूचिस्तान के अलगाववादियों की तरफ सहानुभूति का हाथ बढ़ाया. भारत की प्रतिक्रिया में अनिश्चितता का एक तत्व लाकर मोदी ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों के अफसाने को पक्के तौर पर बदल दिया.
उनके साथ नजदीकी से काम रहे एक अफसर बताते हैं कि मोदी कुछ भी आवेग या उत्तेजना में नहीं करते. वे कहते हैं कि अगर आप विदेशी नीति के मोर्चे पर अलग-अलग उठाए गए कदमों को जोड़कर समझने की कोशिश करते तो आपको पता चल जाता कि इसका अंजाम पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक में होगा. मोदी म्यांमार के भीतर घुसकर पूर्वोत्तर के बागियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक पहले कर ही चुके थे. जिसे उनके आलोचक भारत की पाकिस्तान नीति में झोल करार देते हैं, उसमें एक तार्किक संगति है. कई मौकों पर उन्होंने दुनिया को दिखाया कि वे पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के लिए जरूरत से आगे जाने को तैयार हैं. लेकिन अगर पाकिस्तानी फिर से अपने पुराने खोटे तौर-तरीके पर वापस जाते हैं, तो वे उन्हें बख्शेंगे भी नहीं और सजा देंगे.
काले धन के मोर्चे पर और कम नकदी की अर्थव्यवस्था की तरफ बढऩे से पहले कदम दर कदम तैयारी की गई थी. उन्होंने जन धन खाते बढ़ाने के जबरदस्त अभियान से शुरुआत की. फिर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने की तरफ गए. उसके बाद स्वैच्छिक आय घोषणा योजना लाए. तब कहीं जाकर नोटबंदी के जरिए काले धन पर कमरतोड़ धावा बोला. एक अफसर ने कहा, ''वे जो भी कहते हैं उसे हल्के में मत लीजिए. वे एजेंडा तय करने वाले शख्स हैं. उनमें जोखिम उठाने की हिम्मत और दिलेरी है, पर वे सोच-समझ और नाप-तौल के बाद ऐसा करते हैं. लेकिन उन्होंने बीड़ा उठा लिया तो आधे-अधूरे उपायों में उनका भरोसा नहीं है."
इसमें कोई शक नहीं कि सियासी फलक पर मोदी का बोलबाला है और उन्हें असल चुनौती देने वाला कोई नहीं है. मोदी को खतरा आज विपक्ष से नहीं, बल्कि खुद अपनी जमात के भीतर से आएगा. एक बड़े विश्लेषक बताते हैं कि पिछली बार राजीव गांधी को बगावत उनके सबसे भरोसेमंद सहयोगी वी.पी. सिंह से मिली थी. नोटबंदी के दैत्य को खुला छोड़कर मोदी ने बीजेपी के ठोस समर्थक व्यापारियों और कारोबारियों को नाराज करने का जोखिम उठाया है. आरएसएस की शिखर मंडली अभी तक तो उनके समर्थन में है, मगर प्रधानमंत्री की गद्दी को उनकी निजी शख्सियत से हांके जाने को लेकर उनकी बेचैनी बढ़ सकती है. तब तो और भी अगर अगले कुछ महीनों में अर्थव्यवस्था नहीं उबर पाती है और अगर बीजेपी यूपी का चुनाव जीतने में नाकाम रहती है.
तो भी, 2016 के खत्म होते-होते, कोई शक नहीं कि इस साल मोदी अपने असल रंग में निखरकर आए. भारत के इतिहास को बदलने की ताकत रखने वाले दिलेर और मौलिक फैसले लेने की उनकी इच्छाशक्ति को देखते हुए मोदी इंडिया टुडे के साल के सुर्खियों के सरताज हैं.