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निर्भया कांडः ''मेरा दर्द ही मेरा हौसला है''

अपनी बेटी के बलात्कार और हत्या के बाद एक रोती-कलपती मां से इंसाफ के लिए लड़ती एक साहसी योद्धा तक-निर्भया की मां आशा देवी पांडे की अनोखी दास्तान.

आशा देवी आशा देवी
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 03 फरवरी 2020,
  • अपडेटेड 4:08 PM IST

सोनाली आचार्जी

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 29 दिसंबर, 2012 को  हजारों महिलाएं अपने मुंह पर काली पट्टी बांधे 23 साल की फिजियोथेरेपी की उस छात्रा के लिए दुआ मांगने सड़क पर उतरी थीं जिसके साथ 13 दिन पहले सामूहिक बलात्कार और क्रूरता की घटना हुई थी, जबकि दो लोग जान चुके थे कि अब सब खत्म हो चुका है. एक तो खुद निर्भया थी और दूसरी उसकी मां आशा देवी पांडे. आशा देवी कहती हैं, ''वह जान गई थी कि वह मर रही है.'' उसके बाद से वे उस रात के बारे में हजारों बार बता चुकी हैं मगर उस क्षण को कम ही जबान पर लाई हैं जब उन्होंने अपनी बेटी की आंखों में मौत देखी थी. 

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आशा देवी कहती हैं, ''जब पुलिस ने पहली बार फोन किया, तो मुझे लगा कि यह दुर्घटना है और वह ठीक हो जाएगी. लेकिन फिर मैंने उसे अस्पताल में देखा. कोई जानवर भी कहीं ज्यादा दया दिखाता. दरिदों ने इतनी ताकत से उसके बाल खींचे थे कि गर्दन के पास उसके सिर की चमड़ी उखड़ गई थी, उसके गालों पर काटे जाने के निशान थे, उसके होंठों पर केवल खून ही खून दिखता था, उन लोगों ने उसकी जांघों पर लोहे की छड़ से इतना मारा था कि जांघें बुरी तरह सूज गई थीं.''

उस घटना को सात साल हो चुके हैं, लेकिन आखिरी समय में उन्होंने अपनी बेटी के चेहरे पर उभरते पीड़ा के जो भाव देखे थे, वह अब भी उनकी आंखों में तैर आते हैं. उन्हें वह हर शब्द याद है जो निर्भया ने बड़ी मुश्किल से उनसे कहे थे. वे याद करती हैं, ''जब मैंने उसे अस्पताल के बिस्तर पर देखा, तो वह पानी की एक बूंद के लिए गिड़गिड़ा रही थी लेकिन मैं उसे नहीं दे सकी. खुद को इतना असहाय पाने पर मुझे यह दुनिया अपने लिए बेमानी लग रही थी.'' निर्भया की 29 दिसंबर को सिंगापुर के माउंट एलिाजाबेथ अस्पताल में मौत हो गई थी. 

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लेकिन उस मां के लिए एक दुनिया जैसे ही खत्म हुई, दूसरी शुरू हो गई. बेटी की मौत सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गई और यह आशा देवी के जीवन का हिस्सा बन गई. पहली बार जब उन्होंने अपनी साड़ी की चुन्नट में एक लैपेल माइक को खोंसा था, पहली बार जब उनके चेहरे पर कैमरे की फ्लैश लाइट पड़ी थी, पहली बार जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वे अपनी बेटी को याद करती हैं, तो उन्हें लगा था कि यह आखिरी बार है. आशा देवी कहती हैं, ''मुझे नहीं पता था कि यह सब इतने लंबे समय तक चलता रहेगा.'' आज, इन कैमरों को देखकर वे भावशून्य हो जाती हैं.

आशा देवी अनगिनत पुरस्कार समारोहों में गई हैं, नेताओं से चर्चा की है, अदालत के बाहर तस्वीरों के लिए पोज दिया है और युवा छात्रों की विशाल सभाओं को संबोधित किया है. 2013 में, वे कैमरे के सामने बोलते हुए सकुचाती थीं, स्टेज पर अपनी बारी का इंतजार करते हुए बाथरूम में रोती थीं, और दूसरे लोग उन्हें सहारा देकर लाते थे और उनकी बात रखते थे. 2020 में, वे बहुत शांत मन और बड़े आत्मविश्वास से बोलती हैं, और फोटो खींचे जाने से पहले अपने बालों में कंघी भी कर लेती हैं. उनके पति उनकी अनुमति के बिना प्रेस से बात नहीं करते हैं. न ही वे द्वारका के सेक्टर 19 के उस नए तीन-बेडरूम फ्लैट के सभी हिस्सों में तस्वीरें लेने की अनुमति देती हैं, जो परिवार को कांग्रेस सरकार की ओर से 35 लाख रुपए के मुआवजे के साथ मिला था. जब पुलिस ने निर्भया का फोन और पेन ड्राइव अपने कब्जे में लिया तो उसमें से निर्भया की अधिकांश तस्वीरें डिलीट कर दी गईं. निर्भया की बस एक तस्वीर है जो उनके पूजा के कमरे में लगी है.

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पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्मीं और पली-बढ़ीं आशा देवी का कहना है कि उन्होंने बचपन से ही हिंसा और बलात्कार की कई कहानियां सुनी थीं. वे बताती हैं, ''पुरुषों के घरों में घुसकर महिलाओं को प्रताडि़त करने; हिंसा की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई हैं.'' वे कहती हैं कि उन्होंने ''थोड़ी-बहुत स्कूली पढ़ाई'' ही की और 1985 में बद्रीनाथ सिंह पांडे से उनकी शादी हो गई. शादी के बाद पति-पत्नी दिल्ली चले आए, जहां उनके पति ने दिल्ली के तितारपुर इलाके में एक प्रेशर कुकर की फैक्ट्री में काम शुरू किया. 10 मई,1989 को जब उनकी पहली संतान निर्भया का जन्म हुआ तो बद्रीनाथ ने 1,000 रुपए की मिठाई बांटी थी. निर्भया और उसके दो भाई द्वारका के सेक्टर 8 के दो कमरों के घर में पले-बढ़े. निर्भया 16 दिसंबर को अपने दोस्त अवनींद्र प्रताप पांडे के साथ साकेत के सेलेक्ट सिटीवॉक मॉल में अपनी जिंदगी की पहली अंग्रेजी फिल्म लाइफ ऑफ पै देखकर इसी घर में लौटने की कोशिश कर रही थी.

देहरादून के साईं इंस्टीट्यूट ऑफ पैरामेडिकल ऐंड एलाइड साइंसेज से फिजियोथेरेपी स्नातक निर्भया ने, दिल्ली के सेंट स्टीफन अस्पताल में इंटर्न के लिए आवेदन किया था. अब बेंगलूरू में सॉफ्टवेयर इंजीनियर का काम करने वाले अवनींद्र के अनुसार निर्भया को जूते खरीदना और फिल्में देखना बहुत पसंद था और वे अक्सर साकेत मॉल में मिला करते थे. उस शाम, उसने अपनी मां से कहा था कि वह ''2-3 घंटे'' में वापस आ जाएगी. अवनींद्र ने अपनी गवाही में बताया था कि रात 8 बजे फिल्म खत्म होने के बाद दोनों ने साकेत से मुनीरका के लिए एक ऑटो लिया.

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उन्हें द्वारका जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला तो रात 8.15 बजे एक निजी बस में सवार हो गए. बस में छह लोग पहले से थे. उनमें सबसे कम उम्र वाले शख्स, जिसकी उम्र तब 18 साल से सिर्फ छह महीने कम थी, ने बाद में कबूल किया था कि वे सभी शराब पी रहे थे और उस रात ''मस्ती करने'' के लिए निकले थे. शुरू में जो लोग उस बस के यात्री होने का दिखावा कर रहे थे, उन्होंने जल्द ही लाइट बंद कर दी और अवनींद्र को काबू में कर लिया. जैसा  उस नाबालिग आरोपी ने बताया था कि निर्भया 'रोती चिल्लाती रही' और वे सभी उसके साथ बारी-बारी से बलात्कार करते रहे. उन्होंने फिर दोनों को चलती बस से बाहर फेंक दिया.

आशा देवी कहती हैं, ''जब मैं पहली बार दिल्ली आई थी तो मुझे इस शहर का जरा सा भी अंदाजा नहीं था. मैंने अपने परिवार की देखभाल की, अपने बच्चों के लिए बहुत से सपने देखे, उनके सपनों पर विश्वास किया. मैंने अपनी बेटी को बाहर जाने से नहीं रोका, वह बड़ी कर्मठ थी.'' निर्भया पर परिवार की उम्मीदें टिकी हुई थीं. तब तक पिता ने इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सामान लोडर की नौकरी शुरू कर दी थी और 6,000 रुपए प्रति माह कमाने के लिए उन्हें डबल शिफ्ट में काम करना पड़ रहा था. अपनी मामूली आय के बावजूद, निर्भया को एक कम खर्चीले सरकारी स्कूल में शिफ्ट करने से पहले पांच साल तक उन्होंने एक प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल, ब्रॉडवे पब्लिक स्कूल भेजा था.

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निर्भया की कॉलेज की पढ़ाई के लिए उन्होंने बलिया में अपनी पांच बीघा जमीन 3 लाख रुपए में बेच दी, जबकि आशा देवी को भी अपने कुछ गहने बेचने पड़े. निर्भया की मां याद करती हैं, ''वह साधारण लड़की थी, कभी भी ज्यादा मांग नहीं रखती थी.'' वे एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते थे और मुश्किलों के बीच अपना जीवन काट रहे थे. लेकिन बच्चों के लिए उनकी आंखों में बड़े सपने थे. आशा देवी कहती हैं, ''मेरी मां कभी मुझे बेवजह झिड़का नहीं करती थी. हमने भी अपनी बेटी के लिए यही नजरिया रखा. मुझे जरा भी आभास नहीं था कि बाहर राक्षस घूम रहे थे.''

अब, आशा देवी के लिए उनकी बेटी की मृत्यु से पहले के समय का कोई अस्तित्व ही नहीं है. वे कहती हैं, ''निर्भया की अंतिम इच्छा थी कि उसके साथ न्याय हो. उसकी वही अंतिम इच्छा अब मेरा जुनून बन गई है.'' उन्हें तब इसका ज्यादा अंदाजा नहीं था कि उस दौरान देशभर की लाखों महिलाएं और पुरुष भी उसी न्याय की मांग कर रहे थे. आशा देवी बताती हैं, ''मुझे नहीं पता था कि उस समय जनता का ऐसा समर्थन मिल रहा था, मेरा जीवन तो बस अस्पताल तक ही सीमित था. लेकिन एक रात, दिल्ली में डॉक्टर मुझे यह दिखाने के लिए बाहर लेकर गए, मैं इस लड़ाई में अकेली नहीं थी. मैंने ऐसे सैकड़ों लोगों को देखा जो इस लड़ाई में हमारे साथ खड़े थे.'' 

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उनके नए घर में जगह ज्यादा है, फ्रिज, ओवन और गीजर जैसी सुविधाएं हैं. लेकिन अब उस चार सदस्यीय परिवार के ऊपर दुख और हताशा की एक परछाई बनी रहती है. इंदिरा गांधी की एक फ्रेम की हुई तस्वीर के सामने बैठे बद्रीनाथ कहते हैं, ''हमारे पास अब एक बेहतर जीवन तो है, लेकिन बेटी नहीं है.'' उनके पास एक पिंक डॉल भी है जो निर्भया की थी. उनकी बेटी का बाकी सामान पुराने घर में ही है जहां आशा देवी की बहन रहती हैं. निर्भया की मृत्यु के बाद, निर्भया के बड़े भाई गौरव की खुद राहुल गांधी ने काउंसलिंग की थी और रायबरेली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय उड़ान अकादमी में भेजा था, अब इंडिगो में बतौर एक पायलट काम करते हैं. लेकिन परिवार छोटे बेटे का नाम या पेशा बताने के लिए तैयार नहीं है.

दोषियों को सजा दिलाने के लिए सात साल से चल रही कानूनी लड़ाई के कारण बद्रीनाथ अब नई तरह की परेशानियों से जूझ रहे हैं. उन्हें अब ब्लड शुगर और घुटने में समस्या हो गई है. वे आज भी हवाई अड्डे पर काम करते हैं, लेकिन अब प्रति माह 20,000 रुपए के वेतन पर प्रवेश पास बनाते हैं. जब निर्भया की मृत्यु हुई, तो उन्होंने यह तक स्वीकार किया था कि उन्हें इस बात का भी डर सता रहा था कि उनके पास बेटी के दाह संस्कार तक के लिए पैसे नहीं हैं. वे हिम्मत हार चुके थे. मगर आशा देवी ने दृढ़ता का परिचय दिया. उन्होंने तय कर लिया था कि पीछे नहीं हटेंगी. बद्रीनाथ बताते हैं, ''मेरी पत्नी हमेशा से मजबूत महिला है लेकिन निर्भया के बाद, वह और मजबूत हो गई है.''

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आशा देवी खुद स्वीकार करती हैं कि उनके दिमाग में अब बस एक ही बात घूमती रहती थी-अपनी बेटी के लिए न्याय, उसके हत्यारों के लिए फांसी की सजा. फिर भी, आशा देवी को जरा भी अंदाजा नहीं था कि अदालत में सुनवाई के दौरान उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ सकता है. मुकदमे के दौरान आरोपी पक्ष उनकी बेटी के चरित्र हनन से लेकर क्या-क्या आरोप लगा सकता है. वे पूछती हैं, ''मामले की सुनवाई तेजी से की गई. हर कोई जानता था कि निर्भया के साथ क्या हुआ था. और, फिर भी इसे लंबा घसीटा गया. आप किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सहानुभूति कैसे रख सकते हैं, जो जान-बूझकर एक जवान लड़की की आंतों को चीर देता हो?'' पिछले दो महीनों से, वे अपने वकीलों के साथ रोजाना अदालतों में जा रही हैं ''मैं बस और मेट्रो लेकर अदालत जाती हूं. गिद्धों द्वारा अपने बचाव में दिए गए तर्कों को सुन-कर घर पहुंचने तक मैं सुन्न हो जाती हूं. लोगों ने मुझे लड़ाका बनना सिखा दिया.'' उन्होंने किसी आरोपी से कभी बात नहीं की है. 

दो अन्य लोगों ने आशा देवी को एक असहाय मां से एक दृढ़ योद्धा में परिवर्तित होते देखा है. निर्भया को जब बस से बाहर फेंक दिया गया था और वह महिपालपुर में सड़क पर खून से लथपथ पड़ी थी तो करगिल युद्ध में अपनी सेवाएं देने वाले एक सेवानिवृत्त सैन्यकर्मी राजकुमार सिंह ने ही उसे देखा था. वे बताते हैं, ''मैं महीने में कई बार मिलने जाता हूं. आशाजी ने दृढ़ निश्चय के साथ संघर्ष किया है. जब मैं पहली बार उनसे मिला था तो वे उलझन में थीं, लेकिन अब वे पक्के इरादे वाली महिला हैं.'' 

परिवार के बाहर के एक अन्य व्यक्ति राज कुमार अनुरागी हैं जिन्होंने आशा देवी के इस परिवर्तन को करीब से देखा है. वे पत्रकार हैं और निर्भया ज्योति ट्रस्ट के सह-ट्रस्टी हैं. इस ट्रस्ट की शुरुआत 2012 में हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं और उनके परिवारों को कानूनी सहायता और आश्रय देने के लिए की गई थी. अनुरागी कहते हैं, ''आशाजी इससे पहले कभी अदालत नहीं गई थीं, लेकिन वे बदल गई हैं. बहुत हौसला आया है.''

यह पूछे जाने पर कि इस मामले ने कैसे उन्हें बदल दिया, आशा देवी कहती हैं कि वे अब वैसी महिला नहीं रहीं जैसी पहले हुआ करती थीं. वे बताती हैं, ''लोग मिलने-जुलने आते रहते हैं, लेकिन अंतत: आपको अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लौटना होता है. कोई भी आपके साथ हर समय नहीं रहता. आपको अंतत: अपने क्चयालों के साथ अकेला रहना पड़ता है.'' 

आशा देवी के लिए, दुनिया उनकी चिकित्सक बन गई. वे कहती हैं, ''जब मैं कॉलेज में जाती हूं, तो युवा लड़कियां मेरे पास आती हैं और कहती हैं कि वे मेरी बेटी जैसी हैं. मैंने बहुत से लोगों को बताया है कि उनके साथ क्या हुआ था, इसलिए बहुत से लोग अब मेरे पास यह बताने के लिए आते हैं कि उनके साथ क्या हुआ है. केवल दो दिन पहले, एक मां मेरे पास आईं और हम दोनों एक साथ रोए, क्योंकि उन्होंने भी एक बेटी खो दी है.'' 

वे कहती हैं, ''मैं अपनी बेटी के बलात्कारियों के लिए फांसी चाहती हूं.'' छह में से चार दोषियों—मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय कुमार सिंह, पवन कुमार- को 1 फरवरी, 2020 को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी जानी है. अन्य दो में से एक, राम सिंह ने कथित तौर पर जेल में आत्महत्या कर ली थी, जबकि छठे दोषी को अल्पवयस्क होने के कारण तीन साल के लिए निगरानी गृह में भेजा गया था. आशा देवी और बद्रीनाथ ने छठे आरोपी के साथ इस दयालुता को अदालत में कड़ी चुनौती दी थी. यूपी के बदायूं का रहने वाला वह शख्स अब एक नए नाम के साथ रसोइए का काम कर रहा है.

जब पटियाला हाउस कोर्ट ने जब 7 जनवरी को दोषियों की फांसी पर चढ़ाने की तारीख का ऐलान किया तो मुकेश की मां रमा बाई आशा देवी के पास आईं और बोलीं: ''मेरी झोली में मेरे बेटे की जान दे दो''. रमा बाई कहती है कि उस समय आशा देवी की आंखों में ''सुकून'' दिखता था. आशा देवी बताती हैं, ''रमाबाई ने बाद में पत्रकारों से कहा कि मैं उनके बेटे को मारना चाहती हूं क्योंकि वह गरीब है. उनके बेटे ने मेरी बच्ची के साथ बलात्कार किया, मुझे उनको देखकर घृणा होती है.''

पहले फांसी की तारीख 22 जनवरी तय हुई थी लेकिन मुकेश की राष्ट्रपति के समक्ष दायर दया याचिका खारिज होने के बाद, फांसी की नई तारीख 1 फरवरी तय हुई. तब उसने इस बात को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती दी कि दया याचिका जल्दबाजी में खारिज की गई है. अदालत ने याचिका खारिज कर दी. इसके बाद अक्षय ने 29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव पिटीशन दायर की है. उसके वकील ए.पी. सिंह कहते हैं कि अगर इसे भी खारिज कर दिया जाता है, तो उसके बाद दया याचिका लगाएंगे. विनय और पवन ने अभी कोई याचिका दायर नहीं की है. निर्भया की मां कहती है कि वे 'थक' चुकी हैं और फांसी पर चढ़ाने में होने वाली हर देरी से कानूनी व्यवस्था के प्रति उनके भरोसे को एक और झटका लगता है. आशा देवी कहती हैं, ''इंदिरा जयसिंह जैसे लोग मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं, मुझे दया करने को कह रहे हैं. आप बलात्कारियों के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं?'' 

उन्होंने अभी तक इस बारे में कुछ नहीं सोचा कि बेटी के बलात्कारियों को फांसी हो जाने के बाद वे क्या करेंगी. उनके राजनीति में शामिल होने की अटकलें हैं, लेकिन वे इसे अफवाह बताती हैं. आशा देवी कहती हैं, ''जब निर्भया चली गई, तो मेरे अंदर की औरत भी मिट गई और एक मां खड़ी हो गई. मुझे नहीं पता कि जब सजा हो जाएगी, उसके बाद मैं क्या करूंगी.'' 

सुप्रीम कोर्ट के बाहर 17  दिसंबर 2019 को निर्भया के मां-बाप

''मैंने उसे अस्पताल के बिस्तर पर देखा तो वह एक घूंट पानी के लिए गिड़गिड़ा रही थी पर मैं नहीं दे सकती थी, लगा कि दुनिया खत्म हो गई.''

वह रात जिसकी सुबह नहीं

निर्भया के बलात्कारियों को सजा में सात साल बीत गए

16 दिसंबर, 2012: दिल्ली के मुनीरका में एक प्राइवेट बस में छह लोगों ने निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसके दोस्त अविंद्र प्रताप पांडे के साथ मार-पीट की 

18 दिसंबर: सीसीटीवी फुटेज से बस का पता लगा तो आरोपी राम सिंह को राजस्थान के करोली से और उसके जरिए विनय शर्मा, पवन गुप्ता, मुकेश को पकड़ा गया. तीन दिन बाद नाबालिग दिल्ली में धरा गया और अक्षय बिहार से

29 दिसंबर: निर्भया की मौत सिंगापुर के अस्पताल में जहां उसे दो दिन पहले भेजा गया था. एफआइआर में हत्या जोड़ी गई

16 जनवरी, 2013: मामला निचली अदालत में गया

11 मार्च: राम सिंह ने कथित तौर पर जेल में खुदकुशी कर ली

31 अगस्त: नाबालिग को किशोर न्याय बोर्ड ने तीन साल के लिए सुधार गृह भेजा

10 सितंबर: सत्र न्यायाधीश ने अक्षय, विनय, मुकेश, पवन को दोषी मान मौत की सजा सुनाई

13 मार्च, 2014: दिल्ली हाइकोर्ट ने मौत की सजा पर मुहर लगाई लेकिन दो दिन बाद सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने रोक लगा दी

20 मार्च, 2015: नाबालिग सुधार गृह से छूटा

5 मई, 2017: सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने हाइकोर्ट के मौत की सजा के फैसले पर मुहर लगाई

9 नवंबर: मुकेश ने सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका दायर की, 15 दिसंबर को विनय शर्मा और पवन गुप्ता ने भी यही किया

9 जुलाई, 2018: सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की

8 नवंबर, 2019: विनय ने राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर की

10 दिसंबर: अक्षय की सुप्रीम कोर्ट में डाली गई समीक्षा याचिका 18 दिसंबर को खारिज 

19 दिसंबर: दिल्ली हाइकोर्ट से पवन की घटना के वक्त नाबालिग होने की अपील खारिज

7 जनवरी, 2020: पटियाला हाउस कोर्ट से चार दोषियों के खिलाफ डेथ वारंट. 22 जनवरी की सुबह 7 बजे तिहाड़ में फांसी देने का आदेश

14 जनवरी: सुप्रीम कोर्ट ने मुकेश और विनय की क्यूरेटिव याचिका खारिज की. मुकेश ने दया याचिका दायर की

17 जनवरी: राष्ट्रपति ने मुकेश की दया याचिका खारिज की. 1 फरवरी को सुबह 6 बजे तिहाड़ जेल में फांसी दिया जाना तय. मुकेश ने सुप्रीम कोर्ट के दया याचिका खारिज करने के खिलाफ अपील की

29 जनवरी: सुप्रीम कोर्ट ने मुकेश की याचिका खारिज की

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