
छह साल पहले हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर के उस हादसे को याद कीजिए. जमीन धसकने की अफवाह के चलते श्रद्धालुओं में भगदड़ मचने से 140 लोग काल के गाल में समा गए. यह वही जगह थी जहां 1982 में इसी तरह के हादसे में 140 श्रद्धालु मौत के मुंह में समा गए थे. पर उससे कोई सबक नहीं लिया गया था. लेकिन 2008 के हादसे के बाद हिमाचल की तत्कालीन प्रेमकुमार धूमल सरकार ने इंतजामों की समीक्षा आदि के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में उच्च अधिकार प्राप्त समिति बनाई. संभागीय आयुक्त अश्विनी कपूर ने हादसे की जांच करके अपनी रिपोर्ट में जो सुझव दिए, उसी अनुरूप नियम बनाकर मंदिर में दर्शन की व्यवस्था बनी. अब वहां एक बार में 150-200 श्रद्धालु प्रवेश करते हैं, संख्या बढऩे पर प्रवेश सुबह चार बजे शुरू कर दिया जाता है, परिसर में दो दर्जन सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. अब यहां डीएसपी का बाकायदा दफ्तर है.
इसके उलट मध्य प्रदेश में दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर को देखें. अक्तूबर 2006 में मंदिर से लगी सिंध नदी में अचानक पानी छोड़े जाने से, दर्शन के लिए आ रहे 47 श्रद्धालु बह गए. जांच के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने जस्टिस एस.के. पांडे की अध्यक्षता में आयोग बिठाया, जिसने छह महीने में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. पर सरकार आठ साल तक इसे दबाए बैठी रही. आरटीआइ कार्यकर्ता अजय दुबे बताते हैं कि ''सरकार रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करना चाहती थी. इसीलिए आरटीआइ के तहत उसे हासिल करने की राह में तमाम रोड़े अटकाए गए. आखिर में इस साल जाकर वह विधानसभा में पेश की गई." जांच रिपोर्ट के प्रति सरकारी अमले की बेरुखी का नतीजा यह निकला कि उसी मंदिर में पिछले साल 13 अक्तूबर को श्रद्धालुओं की भगदड़ से हादसा हो गया, जिसमें 115 लोगों की जान गई. इसकी जांच के लिए बने जस्टिस राकेश सक्सेना आयोग ने इतनी बड़ी त्रासदी के लिए किसी भी अफसर को दोषी नहीं माना.
पूरे हिंदुस्तान और खासकर उत्तर भारत के मंदिरों में हाल के वर्षों में बदइंतजामी के चलते मचने वाली भगदड़ में हजार से ज्यादा श्रद्धालु जान गंवा चुके हैं. अमूमन हर हादसे के बाद जांच के लिए समिति/आयोग बनते आ रहे हैं. ऐसे हादसे फिर न हों, इसके लिए वे तमाम कारगर सुझव भी दे रहे हैं लेकिन राज्य सरकारें उन्हें दबा देने या कूड़ेदान में फेंकने पर उतारू हैं.
जोधपुर में मेहरानगढ़ किले में 2008 के नवरात्र पर चामुंडा देवी के मंदिर में हुई त्रासदी को ही लीजिए. जल चढ़ाने के लिए आधी रात को ही 8,000 से ज्यादा दर्शनार्थी आ जुटे थे. गेट खुलने पर दर्शन शुरू होने के बाद एकाएक बिजली चली जाने और फिर वहां लगा टेंट गिर पडऩे से मची भगदड़ में 224 लोग मारे गए. तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जो संयोग से इस समय भी मुख्यमंत्री हैं, जांच के लिए तुरत-फुरत जस्टिस राज चोपड़ा की अध्यह्नता में आयोग बना दिया. चोपड़ा ने चामुंडा मंदिर के अलावा जैसलमेर के प्रसिद्ध रामदेवरा समेत कई धर्मस्थलों का दौरा किया और 2011 में अपनी रिपोर्ट दे दी लेकिन वसुंधरा के धुर विरोधी, अशोक गहलोत की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी पिछले साल नवंबर तक रिपोर्ट को सार्वजनिक करना मुनासिब नहीं समझ.
1996 में हरिद्वार में सोमवती अमावस्या पर 30 श्रद्धालुओं की मौत की जांच के लिए बने राधाकृष्ण अग्रवाल आयोग का हश्र देखिए. नवंबर, 2011 में उत्तराखंड के एक सामाजिक कार्यकर्ता अजय शर्मा ने आरटीआइ लगाई तब पता चला कि सरकार ने आयोग की 44 सिफारिशों में से एक को भी लागू नहीं किया है. दूसरे बड़े हादसों की जांच सिफारिशों की किस्मत भी बÞत अच्छी नहीं रही है.
हिंदुस्तान धर्म प्रधान देश है. यहां धर्मस्थलों पर साल भर उत्सवों-आयोजनों का अटूट सिलसिला चलता रहता है. कई जगहों पर तो ऐसे आयोजनों में एक-एक दिन में लाख से ज्यादा श्रद्धालु जुटते हैं. अकेले राजस्थान में ऐसे 92 उत्सव-मेले हैं जहां एक ही दिन में एक लाख से ज्यादा लोगों का जमावड़ा होता है. मुश्किल और तनाव भरी ङ्क्षजदगी के बीच थोड़ी देर के लिए आस्था के किसी आयोजन में शामिल होना यहां के आम आदमी को फौरी सुकून देता है. इसीलिए क्या उत्तर और क्या दह्निण, सब जगह ऐसे उत्सवों में लोगों की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है. आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में 10 दिवसीय सालाना ब्रह्मोत्सवम में पिछले साल 11 लाख श्रद्धालु शामिल हुए थे. 25 सितंबर से शुरू इस साल के ब्रह्मोत्सवम में करीब 13-15 लाख दर्शनार्थियों के पहुंचने का अनुमान है.
बदइंतजामी का बोलबाला
लेकिन ज्यादातर मंदिरों में बदइंतजामी को देखते हुए इतने बड़े पैमाने पर जमावड़े वाले आयोजनों का बिना किसी विघ्न-बाधा के, सकुशल संपन्न होना चमत्कार जैसा ही लगता है. असल में प्रमुख मंदिर एक तो पहाडिय़ों या किले जैसी ऊंची जगहों पर होते हैं और अक्सर अप्रत्याशित भीड़ से वहां तक आने-जाने के रास्ते संकरे पड़ जाते हैं. श्रद्धालुओं में ज्यादातर ग्रामीण या कस्बाई पृष्ठभूमि वाले लोग होते हैं, जो मौके पर होने वाली उद्घोषणाओं पर ज्यादा गौर नहीं करते. व्यवस्था की दृष्टि से इन जगहों पर बिजली और सूचना प्रसारण आदि का ठीक से इंतजाम नहीं रहता. दुकानदारों के अतिक्रमण और नारियल का कचरा इसमें कोढ़ में खाज का काम करते हैं. जनवरी 2005 में महाराष्ट्र के सातारा जिले के मंधार देवी मंदिर का हादसा इस तरह की भीषण त्रासदियों में से है. वहां सीढिय़ों पर नारियल फोडऩे से हुई फिसलन के चलते मची भगदड़ से 340 श्रद्धालु मारे गए थे. ऐसे हादसों में अफवाहों का बड़ा रोल रहता आया है.
सवाल भीड़ प्रबंधन का
2016 में उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ पडऩे वाला है. इसमें एक महीने में पांच करोड़ से ज्यादा श्रद्धालुओं के उज्जैन पहुंचने का अनुमान है. ऐसे में महाकाल मंदिर öशासन का चौकन्ना होना लाजिमी है. वह भीड़ प्रबंधन की दृष्टि से व्यवस्था में जुट गया है. इंतजाम किया जा रहा है कि श्रद्धालुओं को खड़ा न रहना पड़े और वे लगातार चलते रहें. इसके लिए गर्भगृह के सामने के नंदी हाल का विस्तार हो रहा है. लगातार चलने के सिद्धांत के तहत ही तिरुपति मंदिर में कतारबद्ध मूवमेंट के लिए कई मंजिलें बनाई गई हैं. कुंभ आयोजन स्थल इलाहाबाद के मंडलायुक्ïत रहे रवींद्रनाथ त्रिपाठी यहां अहम बात जोड़ते हैं, ''भीड़ नियंत्रण का सिद्धांत है कि उसे चलायमान रखा जाए. उसके रुकते ही लोग घुटन महसूस करते हैं और उसी बीच किसी का पैर फिसला तो भगदड़ और हादसा तय है."
इसे टाला भी जा सकता है जैसा कि 2001 के महाकुंभ के दौरान हुआ. स्नान के बाद तीर्थयात्रियों का जनसैलाब इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के टिकट खिड़की ह्नेत्र में पहुंचा. वहां भारी अफरा-तफरी फैलती दिखी. हालत बिगड़ती देख उस समय के मंडलायुक्ïत सदाकांत ने उत्तर öदेश के मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव के जरिए öधानमंत्री कार्यालय तक यह संदेश पहुंचाया कि यात्रियों को बिना टिकट उनके गंतव्य की ओर जाने दिया जाए नहीं तो खिड़की पर भगदड़ मचना तय है. थोड़ी ही देर में रेल मंत्रालय के जरिए सहमति का संदेश आ गया.
इस संदर्भ में जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रोफेसर एक गहरी बात की ओर इशारा करते हैं, ''जहां श्रद्धा होती है, वहां इनसान बिल्कुल असुरक्षित महसूस नहीं करता. वह पहले दर्शन करने की होड़ में व्यवस्थाएं नकार देता है. ऐसे में दूसरे उपायों के साथ तीर्थयात्रियों में जिम्मेदारी का भाव पैदा करने के लिए अभियान चलाना भी कारगर हो सकता है.
—साथ में समीर गर्ग, महेश पांडे, महेश शर्मा, सुनील राय, डी. के गुप्ता और विजय महर्षि