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अरुणाचल प्रदेशः सीमांत चालीसा

सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रपति शासन के जरिए कमान अपने हाथ में लेने की बीजेपी की महती रणनीति

ज्योति मल्होत्रा
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  • 29 जनवरी 2016,
  • अपडेटेड 5:47 PM IST

अरुणाचल प्रदेश के 1975 में अस्तित्व में आने के बाद दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नियम पुस्तिका और केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिशों के मद्देनजर इस पर मुहर लगा दी है. पूर्वोत्तर के इस सीमावर्ती राज्य में 16 दिसंबर से जारी सियासी उठापटक की कहानी में यह एक नया मोड़ था. इस सियासी भूचाल में बागी विधायकों के साथ राज्यपाल जे.पी. राजखोवा ने भी उतनी ही भूमिका निभाई थी. इस बीच, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं और जवाबी याचिकाओं का ढेर लग गया जिनमें एक कांग्रेस पार्टी की ओर से भी है जिसमें राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को चुनौती दी गई.

बीजेपी के लिए यह हाल ही में एक तरह से दूसरा कार्यकाल पाए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की परीक्षा की पहली घड़ी है. इस साल कई प्रदेशों (खासकर असम) में होने वाले चुनावों के लिए वे कोई योजना बना पाते, उससे पहले ही सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश ने उनके लिए फायदे की स्थितियां परोस दी हैं. प्रदेश में सत्तारूढ़ रही कांग्रेस पार्टी में उठे बगावत के तूफान (जो अप्रैल 2015 में उभरने लगा था) ने शाह के लिए मौके को भुनाने की तरकीब खुद ही पकड़ा दी. उन्होंने इसे भुनाने में कोई झिझक नहीं दिखाई.

पूर्व वित्त मंत्री कलिखो पुल, जिन्हें अब प्रदेश का नया “मुख्यमंत्री” मनोनीत किया जा चुका है, की अगुआई में 21 कांग्रेस विधायकों ने राज्य में कांग्रेस विधायक दल के नेता और मुख्यमंत्री नबाम तुकी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया था. डिप्टी स्पीकर नोरबू थोंग्डोक और दो निर्दलीय सदस्य भी कांग्रेस के बागियों के साथ मिल गए. उधर, बीजेपी के 11 विधायक तो हैं ही. लिहाजा, 60 सदस्यों की विधानसभा में नबाम तुकी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार विधानसभा में किसी संभावित परीक्षा में अल्पमत में आ गई होती.
लगातार हार झेल रही कांग्रेस पार्टी को अब यह भय सताने लगा है कि अरुणाचल प्रदेश में मिला यह झटका पूर्वोत्तर राज्यों में उसकी चुनावी संभावनाओं पर ग्रहण न लगा दे. नाम न छापने की शर्त पर एक कांग्रेस नेता ने इंडिया टुडे को बताया, “अरुणाचल की हार इसी साल होने वाले असम चुनावों पर निश्चित तौर पर असर डालेगी.” अगर यह राज्य हाथ से निकल जाता है तो पार्टी की कमान पूरी तरह से संभालने की ओर बढ़ रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए यह झटका आसान नहीं होगा.

इस बीच, बीजेपी की रणनीति कुछ ऐसी लगती हैः 23 फरवरी से होने वाले संसद के बजट सत्र के पहले बीजेपी राष्ट्रपति शासन हटाने का दबाव बनाएगी और कथित तौर पर अपने वफादार राज्यपाल राजखोवा के जरिए विधानसभा का सत्र आहूत करके शक्ति परीक्षण करवाएगी. और बीजेपी की उम्मीद के मुताबिक अगर बहुमत साबित हो जाता है तो कलिखो पुल की सरकार बन जाएगी. इस तरह संसद का बजट सत्र शुरू होने के पहले राज्य में एक बीजेपी समर्थक सरकार कुर्सी पर बैठ चुकी होगी.

अमित शाह जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ याचिकाओं पर सुनवाई के बाद चाहे जो भी फैसला सुनाए, उनके पास अपनी योजनाओं को अंजाम देने के लिए करीब तीन हफ्ते का समय है. संविधान के मुताबिक, राष्ट्रपति शासन लागू होने के छह हक्रतों के भीतर संसद के दोनों सदनों से उसका अनुमोदन होना चाहिए.

लेकिन राज्यसभा में बीजेपी के पास बहुमत नहीं है और सभी प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रपति शासन के खिलाफ पेश की गई कांग्रेस पार्टी की याचिका के समर्थन में खड़े हैं (दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसे “लोकतंत्र की हत्या” करार दिया और कहा कि बीजेपी, “पिछले दरवाजे से सत्ता पर काबिज हो रही है.”

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस कदम को “हैरतनाक” बताया.) इसलिए बीजेपी अध्यक्ष जानते हैं कि अपनी रणनीति को मुकाम तक पहुंचाने के लिए उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है. बीजेपी नेताओं को कहना है कि राज्यसभा में राष्ट्रपति शासन पर मुहर लगनी मुश्किल है, इसलिए अच्छा यही होगा कि बजट सत्र के पहले एक नई निर्वाचित सरकार सत्ता में बिठा दी जाए.

उधर, कांग्रेस पार्टी सिर्फ उम्मीद के आसरे है. वह उम्मीद लगाए बैठी है कि सुप्रीम कोर्ट विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया (जिनके खिलाफ बागियों ने “महाभियोग” की प्रक्रिया चलाने की कोशिश की) के पक्ष में फैसला सुना दे और राज्यपाल के आदेश को निरस्त कर दे. कांग्रेस ने राज्यपाल पर राजभवन को बीजेपी कार्यालय में बदल देने का आरोप लगाया है.

कांग्रेस को बखूबी पता है कि सुप्रीम कोर्ट पहले भी राष्ट्रपति शासन को लेकर गहरी टिप्पणी कर चुका है. 1984 में अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल पर सरकारिया आयोग की टिप्पणी से रजामंदी जाहिर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “इसका इस्तेमाल बेहद खास स्थितियों में आखिरी उपाय के रूप में ही किया जाना चाहिए.” सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के एस.आर. बोम्मई मामले में भी अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल के लिए कड़े दिशा-निर्देश कायम किए थे और विधानसभा में शक्ति परीक्षण पर ही जोर दिया.

ऐसा लगता है कि पिछले साल के मध्य में बीजेपी की ओर से अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के पद के लिए चुने गए असम के पूर्व मुख्य सचिव राजखोवा ने कई संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है. बीजेपी का एहसान चुकाने की हड़बड़ी में उन्होंने बुनियादी नियमों को दरकिनार कर मुख्यमंत्री नबाम को विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका नहीं दिया.

विधानसभा सत्र आहूत करने की छह महीने की समय सीमा जनवरी में खत्म हुई. लेकिन मध्य जनवरी में तय सत्र के महीने भर पहले मध्य दिसंबर में ही विधानसभा का सत्र बुलाने का आदेश दे दिया. इसके अलावा, उन्होंने सदन को यह भी संदेश भेजा कि “सबसे पहले विधानसभा अध्यक्ष को हटाने के प्रस्ताव” पर चर्चा की जाए. विधानसभा अध्यक्ष मुख्यमंत्री तुकी के वफादार माने जाते हैं.

राजखोवा दिलचस्प इंसान हैं. असम में शीर्ष अफसरशाह रहने के दौरान उन्हें आदिवासी मामलों का विशेषज्ञ बताया जाता था. लेकिन पिछले कुछ समय से वे प्रधानमंत्री मोदी के बड़े प्रशंसक बन गए हैं. वे असम में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ से श्निबटने्य के मोदी के तरीकों के मुरीद हो गए थे (मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि अब ऐसा नहीं चलेगा और वाकई कुछ को तो वापस भी भेज दिया).

अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनने के बाद भी यह उनका पसंदीदा मुद्दा बना रहा. ईटानगर में राजीव गांधी यूनिवर्सिटी (सितंबर 2014) में राजखोवा ने श्रोताओं को गंभीर खतरे के प्रति आगाह किया था कि अगर बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ जारी रही तो पूर्वोत्तर की स्थानीय आबादी जल्दी ही अल्पसंख्यक बन जाएगी.

अगले कुछ हफ्तों में बीजेपी की इस राजनैतिक दूरदर्शिता की परीक्षा होनी है, जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फैसला सुनाएगा. अगर सब कुछ बीजेपी की योजना के मुताबिक चला तो वह कांग्रेस को इस मोर्चे पर जबरदस्त पटखनी दे देगी. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसे बस यही सोचकर संतोष करना होगा कि भले ही उसके हाथ से एक और राज्य निकल गया और उसका दायरा सिकुड़ गया हो, मगर उसने जमकर लोहा लिया और इस मसले को राष्ट्रीय मंच पर चर्चा का विषय बनाने में कामयाब हुई.

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