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जानें देश में कृषि संकट की पूरी हकीकत

राजनैतिक बिरादरी कृषि संकट को समझने में लगातार नाकाम, अब थोथे नारों और जुमलेबाजी के बदले हकीकत से दो-चार होने का वक्त.

रवीश तिवारी
  • ,
  • 04 मई 2015,
  • अपडेटेड 12:35 PM IST

गजेंद्र सिंह ने अपनी मौत से राजनैतिक बिरादरी को अपना नजला निकलने का पर्याप्त मसाला दे दिया. बेशक, नाराजगी और क्षोभ वाजिब है लेकिन इसकी वजहें गलत हैं. राजस्थान के दौसा जिले में एक काश्तकार परिवार के अधेड़ उम्र के गजेंद्र सिंह पिछले 22 अप्रैल को दिल्ली के जंतर मंतर पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की किसान रैली के दौरान एक पेड़ से झूल गए थे. उनकी खुदकुशी को फौरन विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ मोर्चा खोलने का बहाना बना लिया और वे इस कानून को गजेंद्र सिंह और देश में बाकी किसानों की मौत की वजह बताने लगे.

हालांकि भूमि अधिग्रहण से गहराते कृषि संकट या किसानों की खुदकुशी का मामूली संबंध ही नजर आता है. यही नहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2013 तक के दस साल में खुदकुशी के मामलों में तेजी से गिरावट ही देखने को मिली है (देखें ग्रॉफिक्स). लेकिन नेता शायद अपनी बात को जायज ठहराने के लिए गलत मिसालें दे रहे हैं. संसद के दोनों सदनों में चली बहस में जोर सिर्फ संकट के कामचलाऊ समाधान पर था और उन गहरे ढांचागत मुद्दों की उपेक्षा कर दी गई जिनके लिए राजनैतिक समाधान की जरूरत है.

ऐसा भी नहीं है कि कृषि संकट कोई मुद्दा नहीं है, बल्कि संकट काफी बड़ा है. 2011 की जनगणना के आकलनों के मुताबिक देश के कुल 24.7 करोड़ परिवारों में 16.8 करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में हैं. 2013 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 70वें दौर के ''कृषि आधारित परिवारों का स्थिति आकलन्य सर्वेक्षण के मुताबिक इन 16.8 करोड़ परिवारों में सिर्फ 9.02 करोड़ ही उत्पादक कृषि गतिविधियों में लगे हुए हैं. लेकिन समस्या यही नहीं है. सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2 हेक्टेयर तक की जमीन पर खेती करने वाले-छोटे या सीमांत-किसान कृषि (खेती व पशुपालन) आय से अपने औसत मासिक खर्च की भी भरपाई नहीं कर पाते हैं. सर्वे कहता है कि इन 9.02 करोड़ काश्तकार परिवारों में से 7.81 करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते कि अपने खर्चों को पूरा कर सकें.
 यही दरअसल समस्या की असली जड़ है.

खेतों का घटता रकबा
ज्यादातर काश्तकार परिवार अपने खर्चों को पूरा करने के लिए गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार या नौकरी से अतिरिक्त कमाई करते हैं. लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक, एक हेक्टेयर से कम जमीन वाले 6.26 करोड़ परिवारों, यानी कुल कृषि परिवारों के सत्तर फीसदी के लिए तो वह अतिरिक्त कमाई भी पर्याप्त नहीं हो पाती. दरअसल इस सर्वेक्षण से अंदाजा मिलता है कि चुनौती कितनी बड़ी है. सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि 2 हेक्टेयर से ज्यादा खेती वाले परिवार ही अपने मासिक खर्च से ज्यादा कमाने में सक्षम हैं. इससे यही पता चलता है कि बड़ी जोत ही खेती के लिए कमाऊ विकल्प है.

पिछले साल फरवरी में नाबार्ड के एक अध्ययन के मुताबिक, पिछले 40 साल में खेती की जमीन का औसत आकार घटकर आधा रह गया है-1970-71 में 2.28 हेक्टेयर से कम होकर 2010-11 में 1.16 हेक्टेयर. नतीजतन इस अवधि में सीमांत व छोटी जोतों की संख्या में क्रमशः 5.6 करोड़ व 1.1 करोड़ की वृद्धि हो गई. छोटी जोतों के मुनासिब न रहने के नाबार्ड के इस आकलन को दिसंबर 2014 में सार्वजनिक हुए एनएसएसओ के नतीजों ने पुष्ट ही किया है, जिसमें कहा गया कि 2 हेक्टेयर से बड़े आकार के खेत ही किसान के उपभोग खर्च से ज्यादा कमाई दे पाने में सक्षम हैं.

लिहाजा, समाधान यही है कि जमीन के छोटे टुकड़े पर रोक लगाई जाए और खेतों का आकार बड़ा रखा जाए. राजनैतिक वर्ग को इसी पर गौर करना होगा. प्रमुख कृषि अर्थशास्त्री वाइ.के. अलघ का कहना है, ''किसानों के सामूहिक खेती के लिए एकजुट होने से ही इसका समाधान निकलेगा. सोवियत संघ की तर्ज पर नहीं लेकिन उत्पादक कंपनियों की शक्ल में. इसके लिए एक सीमित स्तर का सहयोग जरूरी होगा जिसमें किसी किसान को अपनी जमीन नहीं देनी होगी बल्कि उसे लागत की खरीद और उत्पाद की बिक्री में सहयोग लेना-देना होगा.ʼʼ
राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र व नीति अनुसंधान संस्थान (एनसीएपी) के निदेशक रमेश चंद ने किसानों की सुरक्षा और स्थिरता तय करने के लिए कृषि भूमि को वैधानिक रूप से लीज पर देने की सहूलियत के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करने का सुझाव दिया है. देश के जमीन लीज संबंधी कानून आजादी के वक्त की स्थितियों के हिसाब से बने हुए हैं. इसके चलते कई किसान अपनी जमीन को लीज पर देने के इच्छुक नहीं होते. रमेश चंद कहते हैं, ''या फिर जो खेत लीज पर लेना चाहते हैं, उन्हें मिलते नहीं. किसान जमीन पर नियंत्रण खो देने के डर से उसे लीज पर देने की बजाए बेकार पड़ी रहने देना ज्यादा बेहतर समझते हैं.ʼʼ

राजनैतिक बिरादरी के लिए चुनौती भू-जोतों के और टुकड़े होने से रोकने की है जिससे खेती फायदे की नहीं रह जाती. कृषि प्रशासक भूस्वामियों को सुरक्षा देने और भू-जोतों के छोटी होने से रोकने के लिए एक नियामक ढांचे की वकालत करते हुए कृषि भूमि को जबानी या अनौपचारिक रूप से लीज/किराए पर देने की पद्धति की सिफारिश कर रहे हैं.

बीमा की गहमागहमी
अगर इस बार की सर्दियां किसानों के लिए तकलीफदेह रहीं और वसंत भी उनके लिए बहार लेकर नहीं आया, तो बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने रबी की कुल 606 लाख हेक्टेयर की फसल में करीब 189 लाख हेक्टेयर फसल को बरबाद कर दिया. इसकी वजह से दो मांगें उठी. एक, राज्य सरकारों ने केंद्रीय सहायता की मांग की. दूसरे, किसानों ने खरीद के मानकों में छूट की मांग की ताकि उनकी खराब हुई फसल को भी बाजार मिल जाए. 

उम्मीद के मुताबिक राजनैतिक हलके से जोरदार आवाजें उठीः संसद में सत्तारूढ़ एनडीए के सांसद राहत वितरण मानकों में छूट देने के केंद्र के अनुरोध का ढोल पीटते रहे तो विपक्षी दल राज्यों को तुरंत ज्यादा सहायता उपलब्ध कराने में केंद्र सरकार की नाकामी पर उसे घेरने की कोशिश में लगे रहे. इस राजनैतिक रस्साकशी में राहत और मुआावजे के बीच का बारीक अंतर कहीं खो गया. देश के नेताओं के लिए सबकः फसल खराब हो जाए तो केंद्र सरकार राहत प्रदान करती है लेकिन समय की जरूरत यह है कि फसलों का बीमा किया जाए.

यहां तक कि केंद्र सरकार ने भी स्वीकार किया है कि एनएसएसओ सर्वे के नतीजों से यह संकेत मिलता है कि कृषि परिवारों का एक बेहद छोटा हिस्सा फसल बीमा का इस्तेमाल करता है. इस स्थिति से निबटने के लिए एनसीएपी के रमेश चंद किसानों को इस बारे में जागरूक करने पर जोर देते हैं कि मुआवजे का पात्र बनने के लिए उन्हें बीमा की लागत देनी चाहिए. इसमें भी सीमांत किसानों के प्रीमियम पर सरकार सब्सिडी दे सकती है. हालांकि अलघ किसानों की लल्लो-चप्पो करने से भी चेताते हैं. वे कहते हैं, ''आप प्रीमियम कम करने के लिए मजबूर करके बीमा कंपनियों को बरबाद नहीं कर सकते.ʼʼ हालांकि वे सीमांत किसानों के लिए फसल बीमा प्रीमियम में सब्सिडी देने की सरकार की भूमिका को स्वीकार भी करते हैं. केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने संकेत दिया है कि एक मजबूत फसल बीमा प्रणाली की जरूरत है जिसकी शुरुआत एनडीए की पिछली सरकार में कृषि मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने की थी.

बाजार से लो, बाजार को दो
फसल अच्छी हो जाए और उसकी कटाई भी हो जाए तो भी किसान की सारी मुश्किलें खत्म नहीं हो जातीं. उसके बाद तो दरअसल एक और कष्टदायक सफर की शुरुआत होती है. आप महज गंगा के मैदान में पूर्व की ओर चले जाएं तो आपको उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के किसानों की शिकायतें सुनने को मिल जाएंगी कि उनके उत्पाद या तो बिक नहीं रहे हैं या फिर उन्हें सरकार की ओर से तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बेचना पड़ रहा है.

पूर्व कृषि सचिव आशीष बहुगुणा कहते हैं कि पूर्वी भारत में कृषि जोत इतनी छोटी-छोटी हैं कि किसानों को खरीद केंद्रों तक फसल ले जाने के लिए ढुलाई काफी महंगी पड़ती है. इससे वहां के व्यापारियों को मंडी (थोक) की जगह खेत से ही उत्पाद खरीदने का मौका मिल जाता है और वे अक्सर यह खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम पर करते हैं.

मूल हरित क्रांति के राज्यों-पंजाब और हरियाणा के राजनैतिक नेतृत्व ने तो अपने खरीद नेटवर्क  को संस्थागत स्वरूप दे दिया है लेकिन बाकी जगहों, खास तौर पर गंगा के मैदान के राजनैतिक नेतृत्व को मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों क्रमशः शिवराज सिंह चैहान व रमन सिंह से सबक सीखना चाहिए. इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने गेहूं (मध्य प्रदेश) और धान (छत्तीसगढ़) के किसानों के लिए एक मजबूत खरीद नेटवर्क खड़ा करने की दिशा में लगातार काफी काम किया है जिससे उन्हें फसलों की अच्छी कीमत मिल जाती है.

दरअसल रमेश चंद खरीद के लिए केवल सरकार पर निर्भर रहने के खिलाफ चेतावनी देते हैं और निजी क्षेत्र की भूमिका की ओर इशारा करते हैं. उनका कहना है कि एमएसपी जैसे संस्थागत दखल के अलावा जोर खरीदारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने पर भी होना चाहिए. मौजूदा कानून भी इस दिशा में मददगार नहीं हैं. कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून और आवश्यक वस्तु कानून, दोनों ही पारंपरिक व्यापारियों को संरक्षण देते हैं और आधुनिक ट्रेडिंग की गुंजाइश नहीं छोड़ते. उनमें संशोधन किया जाना चाहिए. राजनैतिक नेताओं को इस बात पर विचार करना चाहिए कि घरेलू व्यापार को किस तरह से आधुनिक किया जाए ताकि परिवहन व भंडारण सुविधाएं विकसित करने में आधुनिक पूंजी के प्रवाह को सरल बनाया जा सके.

लागत का मामला
देश की कृषि परंपरा का श्रेय लेने की बात हो तो समूचा राजनैतिक तबका आगे आ सकता है लेकिन हकीकत में ज्यादातर किसान बुनियादी जरूरतों, जैसे कि बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई, बिजली और कर्ज के लिए जूझते रहते रहते हैं. पिछले साल ही उर्वरकों की आपूर्ति में व्यापक रुकावट आई जिसके चलते देश के कई हिस्सों में राजनैतिक गहमागहमी भी रही. पूर्व केंद्रीय कृषि आयुक्त और अब कृषि वैज्ञानिक नियुक्ति बोर्ड के चेयरमैन गुरबचन सिंह का कहना है, ''बीज और उर्वरक समय पर उपलब्ध होने चाहिए. खरीफ की फसल के लिए उर्वरकों की जरूरत पिछले रबी मौसम के अंत में पूरी हो जानी चाहिए.ʼʼ

भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ का कहना है, ''राजनैतिक वर्ग को अपने ही कुशासन से उपजे संकट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बदले संभावित मांग के अनुमान पर ध्यान देना चाहिए. राजनैतिक दबाव रहेगा तो ऑर्डर देने, उर्वरकों का संचालन सुनिश्चित करने और उनके समय पर वितरण करने में तालमेल स्थापित किया जा सकेगा.ʼʼ
राजनैतिक वर्ग को किसानों के फायदे के लिए सिंचाई का दायरा बढ़ाने में शिवराज सिंह चैहान जैसी राज्य सरकारों से भी सबक लेना चाहिए. इसी तरह, सिंचाई व अन्य कामकाज के लिए बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश जैसी सरकारों की ओर देखना चाहिए जिन्होंने किसानों के लिए अलग कृषि फीडर लाइन की सुचारू व्यवस्था की है.

जहां तक कृषि ऋण की बात है, वह बढ़कर 8 लाख करोड़ रु. से ज्यादा हो गया है लेकिन रमेश चंद राज्यों के दरम्यान संस्थागत ऋण में घोर असमानता की ओर इशारा करते हैं.
किसानों के सामने जो अलग-अलग तरह की समस्याएं हैं, उनसे निबटने के लिए राजनैतिक दलों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. ऐसे वक्त में जब हम सामान्य से कम मॉनसून वाले साल की ओर बढ़ रहे हैं, यह जरूरी है कि वे गजेंद्र सिंह सरीखी मौतों पर गुस्सा जाहिर करें. लेकिन इस गुस्से का निर्णायक असर हो, इसके लिए यह भी जरूरी है कि वह गुस्सा सही दिशा में हो.

(साथ में असित जॉली, अमिताभ श्रीवास्तव और रोहित परिहार)

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