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फैजान मुस्तफा
फैजान मुस्तफा लेखक संविधान विशेषज्ञ हैं
नागरिकता की कल्पना मूल रूप से एक राजनैतिक समुदाय की सदस्यता के रूप में की गई थी. यह सिर्फ एक क्षेत्र विशेष से जुड़ा विचार नहीं था बल्कि कुछ मूल्यों के प्रति राजनैतिक समुदाय की प्रतिबद्धता को दर्शाता था. नागरिकता केवल राज्य और लोगों के बीच का वर्गीकृत संबंध नहीं है, यह लोगों के बीच एक समानता का संबंध भी है. यही कारण है कि सभी धर्मों के लोग नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के दायरे से एक विशेष धर्म के लोगों को बाहर रखे जाने का विरोध कर रहे हैं; वे चिंतित हैं कि नया एनपीआर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) और एनआरआइसी (भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) उन लोगों को बाहर कर देगा जिनके पास नए मापदंडों पर नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं हैं या उनके पास असंगत दस्तावेज हैं.
नए बने सीसीए और आसन्न एनआरआइसी के खिलाफ चल रहा नागरिक विरोध भी एक स्वाग्रह है. किसी राजनैतिक समुदाय की उपलब्धियों का आंकलन नागरिकता के सार्वभौमिक, समतावादी और मुक्त आदर्शों की कसौटी पर होता है; जिसमें उन आदर्शों की प्राप्ति की ओर बढ़ा जाता है जो समुदाय की आकांक्षाओं को पूरा करते हों. भारत के संविधान और मूल नागरिकता अधिनियम, 1955 के निर्माता इस आदर्श के साथ एकमत होकर चले थे—इस देश के मूल कानून ने हमारी धरती पर पैदा हुए सभी लोगों को नागरिकता दी. नस्लीय शुद्धता का प्रतिगामी विचार तो 1987 और 2003 में डाला गया था और रक्त संबंधों को नागरिकता साबित करने की आवश्यकता के रूप में थोपा गया. उस समय किसी ने भी इन संशोधनों के खिलाफ विरोध नहीं किया क्योंकि किसी को एहसास तक नहीं था कि आगे चलकर इस परिवर्तन के कैसे प्रभाव हो सकते हैं. 1,600 करोड़ रुपए खर्च करके 31 अगस्त, 2019 को असम की एनआरसी तैयार कराई गई लेकिन प्रक्रिया पूरी होने पर उस रजिस्टर में 19 लाख लोग शामिल ही नहीं थे.
अगस्त 2019 में एनपीआर को भी अधिसूचित किया गया था. इस साल अप्रैल और सितंबर के बीच तैयार होने वाले एनपीआर के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने 3,941 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं; इसने 2021 की जनगणना के लिए भी 8,754 करोड़ रुपए रखे हैं. बहुत से लोग सीएए और एनपीआर के खिलाफ प्रदर्शन को एनआरआइसी पर सरकार को आगे बढ़ाने से रोकने के लिए की जा रही पूर्व कार्रवाई के रूप में देखते हैं. ऐसे में सरकार ने भी यह लाइन ली कि एनपीआर जनगणना प्रक्रिया का हिस्सा है और इसका एनआरआइसी से संबंध नहीं है. क्या यह सच है? भारत का जनगणना अधिनियम 1948 में पारित हुआ था और 2021 की जनगणना इसकी 16वीं पुनरावृत्ति होगी. 1990 में जनगणना अधिनियम और इसके नियमों में एनपीआर का कोई उल्लेख नहीं है. एक तरफ, जनगणना और एनपीआर के लिए अलग-अलग, भारी राशि आवंटन भी इस बात का प्रमाण हैं कि सरकार उन्हें अलग-अलग प्रक्रियाओं के रूप में मानती है.
हालांकि नागरिकता अधिनियम, 2013 में एनपीआर का कोई उल्लेख नहीं है पर एनपीआर वास्तव में एनआरआइसी से जुड़ा हुआ है. इसका संदर्भ नागरिकता (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) अधिनियम, 2003 में दिखता है. अधिनियम का नियम 3 (4) कहता है कि सरकार उस तारीख को तय कर सकती है जिसको आधार बनाकर जनसंख्या रजिस्टर तैयार किया जाएगा. नियम 4 (3) कहता है कि स्थानीय रजिस्ट्रार जनसंख्या रजिस्टर में प्रत्येक परिवार के विवरणों की जांच और सत्यापन करेंगे, और संदिग्ध मामलों में रजिस्टर में टिप्पणी दर्ज करेंगे.
केंद्रीय गृह मंत्रालय की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट (पेज.273) बताती है कि एनपीआर, एनआरआइसी की ओर पहला कदम है. एनपीआर 2020 माता-पिता की जन्म तिथि और जन्म स्थान के बारे में जानकारी मांगेगा, जो नागरिकता निर्धारित करने का आधार बनेगा. वास्तव में एनपीआर 2010 की तुलना में, एनपीआर 2020 में आठ अतिरिक्त प्रश्न हैं और जैसे ही नया डेटा प्राप्त हो जाएगा, एनआरआइसी व्यावहारिक रूप से सिर्फ एक क्लिक दूर होगा.
एनआरआइसी नियम पहले से ही लागू हैं और सरकार का यह दावा ठीक नहीं है कि इसको लेकर तो अब तक चर्चा भी नहीं हुई है. 2003 के नियम वाजपेयी सरकार ने पेश किए थे, जिसमें 2003 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन करके एक नई धारा 14ए भी शामिल की गई थी, जो कहती है कि सरकार अनिवार्य रूप से प्रत्येक नागरिक का पंजीकरण करेगी और एक एनआरआइसी बनाए रख सकती है. बहरहाल, चूंकि पूर्ववर्ती अधिनियम इसका उल्लेख भी नहीं करता है इसलिए एनपीआर को वापस ले लिया जाना चाहिए और इन नियमों से जनसंख्या रजिस्टर के संदर्भ को डिलीट किया जाना चाहिए.
जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशित हो जाने के बाद उसकी पहचान को मिटा दिया जाता है लेकिन उससे उलट एनआरआइसी को प्रकाशित किया जाएगा और उस पर लोगों की आपत्तियां मांगी जाएंगी—कोई भी किसी के भी शामिल होने पर आपत्ति कर सकता है. प्रोफाइलिंग का संभावित जोखिम शायद एक प्रबुद्ध सरकार को उस रास्ते पर और नीचे जाने से रोकने के लिए पर्याप्त होना चाहिए.
फैजान मुस्तफा लेखक और संविधान विशेषज्ञ हैं.
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