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पशिचम बंगालः एनआरसी से दो-दो हाथ

एनआरसी को लेकर बंगाल में चल रही गर्मागर्म बहस के बीच ममता बनर्जी ने शरणार्थियों को भूमि का मालिकाना हक दिया. उनका कहना है कि नागरिकता रजिस्टर हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के अधिकारों का हनन करेगा

सुबीर हलदर सुबीर हलदर
रोमिता दत्ता
  • पश्चिम बंगाल,
  • 03 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 4:03 PM IST

पश्चिम बंगाल में 25 नवंबर को तीन विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव के लिए मतदान हो रहा था और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में 11,900 शरणार्थी परिवारों को भूमि के मालिकाना हक देने के अपनी सरकार के फैसले की घोषणा कर दी. ममता ने घोषणा की, ''यहां 48 साल से अधिक समय तक रहने, अपनी आजीविका कमाने, अपने बच्चों को स्कूल भेजने और वोट डालने के बावजूद, इन शरणार्थियों के लिए 'घर का न घाट का' वाली स्थिति रही है. हमने सभी शरणार्थी कॉलोनियों को नियमित करने का फैसला लिया है.''

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घोषणा का यह वक्त रणनीतिक रूप से काफी सोच-समझकर चुना गया है क्योंकि बंगाल में भाजपा बार-बार यह बात दोहरा रही है कि असम की तर्ज पर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को देशभर में तैयार कराया जाएगा. वहीं ममता लगातार कह रही हैं कि वे अपने राज्य में इसकी अनुमति नहीं देंगी. विश्लेषकों का कहना है कि इसकी पड़ताल के इतर कि उनके फैसले से कितने शरणार्थी लाभान्वित होंगे, ममता ने सटीक चाल चलते हुए यह तो संकेत दे दिया कि उनकी सरकार मुसलमानों और हिंदुओं, दोनों के कल्याण के लिए एक समान चिंतित है. दरअसल, केंद्र सरकार की भूमि पर बसी 150 शरणार्थी कॉलोनियों के मुकाबले बंगाल सरकार की भूमि पर सिर्फ 94 कॉलोनियां बसी हैं.

दिलचस्प बात यह है कि जिन सीटों पर उपचुनाव हो रहा था उनमें से दो क्षेत्रों, नदिया में करीमपुर और उîारी दिनाजपुर में कालियागंज की सीमाएं बांग्लादेश के साथ लगती हैं. इन क्षेत्रों ने अवैध सीमा-पार प्रवासन के दबावों को महसूस किया है. कालीगंज में जहां मुसलमानों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है, वहीं असम में जारी अंतिम एनआरसी सूची से लाखों हिंदू परिवारों को भी बाहर रखे जाने के बाद से इन क्षेत्रों की हिंदू आबादी भी बहुत तनाव में है.

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नदिया के निवासी अघोर दास कहते हैं, ''हर दूसरे दिन, भाजपा एनआरसी को लेकर नई बातें कहती है. हम हिंदू हैं और हम बांग्लादेश छोड़कर आए हैं. हमें चिंता है कि न जाने क्या दस्तावेज वे हमसे मांगेंगे.'' कालीगंज में रहने वाले भुवन बैरागी कहते हैं, ''राज्य में आत्महत्या की कई घटनाएं हुई हैं. उनमें बहुत-से हिंदू थे. हम कैसे मानें कि हम सुरक्षित हैं?''

प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी, कोलकाता के प्रोफेसर एमरिटस प्रशांत रे कहते हैं, ''ममता बनर्जी ने यह संदेश दिया है कि हिंदू शरणार्थियों के लिए वे वह सब कुछ कर रही हैं जो कर सकती हैं.'' ममता खुद को लोगों को एनआरसी से बचाने वाले 'पहरेदार' के रूप में पेश कर रही हैं. यह बंगाली 'पहरेदार' का नैरेटिव पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से इस्तेमाल किए जाने वाले 'चौकीदार' शब्द के समकक्ष है. आक्रामक तेवर में ममता कहती हैं, ''उन्हें (भाजपा को) बंगाल से किसी भी नागरिक को छूने से पहले मुझसे निबटना होगा...असम में भाजपा का शासन है इसलिए वह वहां एनआरसी को लागू कर सकती है.''

यह मुद्दा उत्तर बंगाल में गोरखा, राजबोंगशी और अन्य जातीय समूहों के बीच भी लोगों का ध्यान खींच रहा है. कूच बिहार रैली में, ममता ने दावा किया कि असम एनआरसी में शामिल किए गए 12 लाख बंगालियों में से 11 लाख राजबोंगशी थे, जबकि दार्जिलिंग में उन्होंने कहा कि 1,50,000 गोरखाओं को एनआरसी से बाहर कर दिया गया. कूचबिहार और जलपाईगुड़ी की लोकसभा सीटों पर भाजपा की जीत में राजबोंगशियों ने बड़ी भूमिका निभाई थी, जबकि गोरखाओं ने दार्जिलिंग में पार्टी का समर्थन किया था.

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ममता ने नागरिकता संशोधन विधेयक को केंद्र का 'लॉलीपॉप' बताकर उसका मखौल उड़ाते हुए कहा कि यह नागरिकों को उनके अधिकारों की गारंटी नहीं दे सकता. असम के एनआरसी से भारी संक्चया में हिंदुओं का नाम बाहर रह जाने के बाद से भाजपा बैकफुट पर है और वह इस विधेयक को बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं और अन्य गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के लिए एक सुरक्षा कवच बताकर इसकी वकालत कर रही है. रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, ''तृणमूल कांग्रेस मुसलमान और हिंदू दोनों शरणार्थियों को यह विश्वास दिलाकर कि भाजपा शासित राज्यों में कोई भी सुरक्षित नहीं है, एनआरसी के मुद्दे का राजनीतिक फायदा उठा रही है. भाजपा अब तक इसकी कोई काट नहीं ढूंढ़ पाई है.''

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