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मोदी का एक साल: पर्यावरण में जस के तस हैं पुराने मर्ज

सरकार को इस बात का एहसास होना जरूरी है कि पर्यावरण की रक्षा और उसका पोषण करने के लिए इसमें उसे लोगों को शामिल करना होगा.

माधव गाडगिल
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  • 25 मई 2015,
  • अपडेटेड 5:26 PM IST

साल 2014 में आम चुनाव के नतीजेे आने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी के भाषण को मैंने बहुत ध्यान से सुना था. सबसे ज्यादा सुकून इस बात से मिला था कि उन्होंने सबको साथ लेकर चलने पर जोर दिया था, ''सबका साथ, सबका विकास" और विकास को एक जनांदोलन बनाने पर जोर दिया था, ''विकास को जनांदोलन बनाएंगे." मैं बहुत शिद्दत से उम्मीद करता था कि हमारे प्रधानमंत्री का एक नई शुरुआत करने का, और एक बड़ी आबादी के हितों पर वास्तव में गंभीरता से ध्यान देने का इरादा है.

जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता कि अर्थशास्त्री जोसफ ई. स्टिग्लिट्ज जोर देकर कहते हैं कि वास्तविक विकास का उद्देश्य किसी राष्ट्र की चार अलग-अलग पूंजीगत संपदाओं की समग्रता के विकास का होगा: भौतिक वस्तुओं की पूंजी; प्राकृतिक पूंजी जैसे मिट्टी, जल, जंगल और मछलियां; स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार सहित मानवीय पूंजी और सामाजिक पूंजी जिसमें आपसी विश्वास और सामाजिक सद्भाव शामिल हो. इस तरह का विकास ही विकास को एक जनांदोलन बनाने के साथ तालमेल बैठा सकेगा. अफसोस यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणाओं के बावजूद भारत में जमीन पर अभी तक जो हो रहा है, उसका इससे कोई वास्ता नहीं है.

मसलन, पूरे पश्चिमी घाट में पत्थर की खदानें जमीन, जल, जंगल और जैव विविधता के संसाधनों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही हैं, वायु और ध्वनि प्रदूषण के माध्यम से लोगों के स्वास्थ्य को बर्बाद कर रही हैं, जबकि उनसे रोजगार नाममात्र का पैदा हो रहा है. प्रतिरोधक हिंसा की अर्थव्यवस्था (आर्थिक गतिविधियों का समाज को फायदा नहीं मिलना) की अवधारणा के तहत सामाजिक पूंजी भी प्रभावित हो रही है, जिसकी उम्दा मिसाल अवैध पत्थर खदानों से मिलती है, जो शेष समाज की कीमत पर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि, जल, खनिज और वन संसाधनों को हथियाने को बढ़ावा दे रही हैं.

वास्तव में, यह दावा संदिग्ध है कि भारत का तीव्र आर्थिक विकास अत्यावश्यक रोजगार अवसर पैदा करने में मदद कर रहा है; संगठित क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि की वार्षिक दर जो तब 2 फीसदी थी, जब सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 3 फीसदी थी—वास्तव में गिरकर 1 फीसदी रह गई है, जब सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7 फीसदी तक बढ़ गई है. यह स्थिति बद से बदतर ही होगी, क्योंकि ऑटोमेशन में तेजी से तकनीकी प्रगति का अर्थ होगा मानव श्रम की मांग का कम-से-कम होते जाना. लिहाजा, हम जो देख रहे हैं, वह प्राकृतिक, मानवीय और सामाजिक पूंजी के क्षरण के साथ-साथ रोजगारविहीन वृद्धि है.

तो फिर आगे रास्ता क्या है? हमें निश्चित रूप से आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों और सेवाओं को विकसित करना जारी रखना चाहिए. हालांकि यह अनिवार्य है कि यह आधुनिक क्षेत्र श्रम प्रधान, प्राकृतिक संसाधन आधारित व्यवसायों और आजीविकाओं पर पडऩे वाले इसके प्रतिकूल प्रभावों पर लगाम अवश्य लगाए, और इसकी जगह पर सहजीवी संबंध को पुष्ट करे. हमारा लोकतंत्र ऐसे परस्पर संबंधों को स्थापित करने का खाका 73वें और 74वें संविधान संशोधनों और जैव विविधता अधिनियम, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम और वन अधिकार अधिनियम के माध्यम से प्रदान करता है. हमें इस संवैधानिक ढांचे का लाभ जरूर उठाना चाहिए, जो विकेंद्रीकृत शासन और प्रकृति और लोगों के साथ काम करके वास्तविक विकास की दिशा में आगे बढऩे को प्रोत्साहित करता है.

महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिलों में उम्मीदों से भरे ऐसे उदाहरण उभर रहे हैं कि कैसे विकास को जनांदोलन के रूप में पुष्ट किया जा सकता है. इन जिलों के आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासी समुदायों में से कई लोगों को अब सामुदायिक वन संसाधनों पर प्रबंधन का अधिकार हासिल है. राज्य इन संसाधनों पर स्वामित्व को बरकरार रखे हुए है, और इनको अन्य प्रयोजनों की दिशा में मोड़ा नहीं जा सकता. लेकिन अब इन संसाधनों को लोगों की पूर्ण भागीदारी के साथ समग्र रूप से प्रबंधित किया जा रहा है. मसलन, हरियाणा के गुडग़ांव जिले में पचगांव के नागरिकों ने अपनी ग्राम सभा की दो दिन चली बैठकों में, करीब 40 नियमों को अपनाने का फैसला किया है. तेंदू पत्ता एक प्रमुख वन उपज है, लेकिन उसकी कटाई अपने पीछे व्यापक छाल और जंगल की आग छोड़ जाती है. लिहाजा पचगांव ने इस आमदनी को भूल जाने और उसकी बजाए खाने योग्य तेंदू के फल की मार्केटिंग पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. तेंदू पत्ते का संग्रहण रोकने की वजह से पेड़ स्वस्थ हैं और फलों की उपज और उनकी मार्केटिंग से कमाई, दोनों में ही इजाफा भी हुआ है. बांस की कटाई से होने वाली आमदनी भी कई गुना बढ़ गई है, और पहली बार लोग अपने अतीत के अनिश्चित अस्तित्व से बाहर निकल पा रहे हैं.

वन संसाधनों का इस तरह का सामुदायिक प्रबंधन उग्रवाद से निबटने का एकमात्र समझदार तरीका है, और दुखद यह है कि सरकारी तंत्र, अतीत में और वर्तमान में, वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन में अड़ंगे डालने की कोशिश कर रहा है. नियामगिरि विवाद पर एन.सी. सक्सेना समिति की रिपोर्ट में इसे अच्छी तरह से दर्ज किया गया है: ''एक निजी कंपनी को लाभ दिलाने के लिए प्रस्तावित खनन स्थल पर खनन की अनुमति देकर दो आदिम जनजातीय समूहों को प्रस्तावित खनन पट्टा क्षेत्र से उनके अधिकारों को वंचित करना देश के कानून से जनजातीय लोगों का विश्वास हिला देगा." फिर भी, नई सरकार उन्हीं नीतियों का पालन करती आ रही है. वास्तव में, ग्रीनपीस कार्यकर्ता प्रिया पिल्लै, जिन्हें ब्रिटेन के लिए उनके विमान से उतार दिया गया था, ने दावा किया है कि वे मध्य प्रदेश में एक आदिवासी समुदाय के प्रति इस तरह के अन्याय को ठीक करने में कानूनसम्मत ढंग से लगी हुई थीं.

लोगों को मिले ताकत
निश्चित रूप से जरूरत इस बात की है कि हम आगे बढ़ें और सही मायने में लोगों को शक्तियां हस्तांतरित करें, ताकि वे यह फैसला लेने में लगातार शामिल हो सकें कि राष्ट्र को किस दिशा में आगे बढऩा चाहिए. वजह यह है कि जमीनी स्तर पर लोग ही इसे सबसे अच्छे ढंग से जानते हैं कि प्राकृतिक, मानवीय और सामाजिक पूंजी का क्या हो रहा है, और उनकी पूर्ण भागीदारी ऐसे विकास की रणनीति पर पहुंचने में महत्वपूर्ण है, जो सामंजस्यपूर्ण और संतुलित विकास को बढ़ावा दे. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें संविधान में बाधा डालना बंद करना चाहिए, संविधान के सभी प्रगतिशील प्रावधानों का पालन करना चाहिए और विकास संरक्षण के अपने विभिन्न विकल्पों के बारे में जनता को हर संभव तरीके से सूचित करना चाहिए.

सूचनाओं से लैस और सशक्त नागरिक समुदाय यह सुनिश्चित करेगा कि औद्योगिकीकरण को जारी रखने के साथ-साथ पर्यावरण की ठीक से चिंता की जा रही है, जैसा कि जर्मनी में और स्कैंडेनेवियाई देशों में हुआ है. सरकार को लोगों को सशक्त बनाने और पर्यावरण की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधानों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है. खेद की बात यह है कि सरकार जो कर रही है, वह उससे कोसों दूर है. मुझे कहना होगा कि मैं पर्यावरण के प्रति चिंतित उन ज्यादातर लोगों की इस राय से सहमत महसूस करता हूं कि नरेंद्र मोदी सरकार का प्रदर्शन पूरी तरह निराशाजनक रहा है.

(माधव गाडगिल एक पारिस्थितिकीविद् और शौकिया इतिहासकार हैं )

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