
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 9 मार्च को मुंबई में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में गरजते हुए कहा, "हम 2019 में भाजपा को सत्ता में नहीं आने देंगे.'' विरोधियों को तो यह अतिआत्मविश्वास की तरह जान पड़ा, खासकर ऐसे वक्त में जब उनकी पार्टी महज तीन राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सत्ता में रह गई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी राजनीतिक फलक पर सबसे करिश्माई सियासी नेता बने हुए हैं और इसमें उस बेरहम चुनाव मशीन को भी जोड़ लें जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने खड़ी की है, तो इस जोड़ी ने पिछले चार साल में 12 नए राज्य फतह किए हैं.
उन्होंने नई सरहदों—जम्मू और कश्मीर, असम और त्रिपुरा—में अपना परचम लहराया है. इससे उलट कांग्रेस मणिपुर, गोवा और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बावजूद सरकार नहीं बना सकी.
यह सिर्फ कांग्रेस ही नहीं है जो लगातार बढ़ती और फैलती भाजपा से—जो अब 21 सूबों में सत्ता में है—खतरा महसूस कर रही है बल्कि कई दूसरी क्षेत्रीय ताकतें, मसलन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल भी वजूद के संकट से दो-चार हैं.
वजूद कायम रखने की घोर हताशा ही है जिसने कट्टर प्रतिद्वंद्वियों को भी बेमेल गठबंधनों की तरफ धकेला है. सोनिया ने यह दावा असल में ऐसे वक्त किया है जब 2019 के चुनावों से पहले आखिरी निर्णायक साल के पहले तीन महीनों में एक के बाद एक तीव्र सियासी घटनाएं घटित हुई हैं. जनवरी में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सहयोगी शिवसेना ने ऐलान किया कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेगी.
दो महीने बाद उसकी एक और सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने एनडीए से रिश्ते तोड़ लिए. यही नहीं, भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव भी हार गई. 2014 के बाद लोकसभा के 10 उपचुनावों से नौ में पराजय से पहले दिसंबर में पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में कांग्रेस के खिलाफ कड़े मुकाबले में मुश्किल से किसी तरह जीत भर सकी थी.
सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक और झन्नाटेदार पराजय का मुंह उसे उत्तर प्रदेश में देखना पड़ा. जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफों से खाली हुई गोरखपुर और फूलपुर की सीटों के उपचुनाव में भाजपा को धूल चटाने के लिए कट्टर विरोधी सपा और बसपा ने हाथ मिला लिया.
इस हकीकत ने नाटकीयता को और भी बढ़ा दिया कि भाजपा 1989 से गोरखपुर सीट कभी नहीं हारी थी. सियासी दुश्मन अखिलेश यादव और मायावती के बीच नामुमकिन दिखाई देने वाली इस कामयाबी ने भाजपा के खिलाफ गठबंधन की चर्चा में ईंधन का काम किया—और उस सियासी गुणा-भाग में भी, जिसे साधने की कोशिश में सोनिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एक साल से ज्यादा वक्त से मुब्तिला थीं. यह दीगर बात है कि दोनों की महत्वाकांक्षाएं एकदम अलग हैं.
आंकड़ों की जुगाली पहले ही शुरू हो चुकी है. शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में इसे स्वर दिया. गोरखपुर और फूलपुर की हार पर भाजपा की तीखी आलोचना करते हुए उसने एक संपादकीय में आगाह किया, "2019 में भाजपा की सीटें 280 नहीं रहेंगी और अब यह साफ है कि इनमें कम से कम 100 से 110 सीटों की कमी आएगी.''
ममता के भरोसेमंद सिपहसालार और टीएमसी के राज्यसभा सांसद डेरेक ओब्रायन ने भविष्यवाणी की, "राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में, जहां से अभी भाजपा के पास 69 सीटें हैं, उसकी सीटें घटकर 20 से नीचे आ जाएंगी.''
चुनावी कयासबाजी और गुणा-भाग का कोई आदर्श तरीका नहीं है. हालांकि 2014 में भाजपा ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया था (लोकसभा की कुल 543 सीटों में 282 सीटें जीतकर), पर उसकी वोट हिस्सेदारी महज 31 फीसदी ही थी.
इतनी कम वोट हिस्सेदारी के साथ किसी भी पार्टी ने कभी इतनी ज्यादा सीटें नहीं जीती थीं; इससे पहले सबसे कम वोट हिस्सेदारी के साथ किसी एक पार्टी ने बहुमत हासिल किया था तो वह 1967 में कांग्रेस थी, जब उसने कुल डाले गए वैध मतों के 40.8 फीसदी के साथ 28 3 सीटें जीती थीं.
ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस की मिलाकर कुल वोट हिस्सेदारी महज 50 फीसदी से कुछ ही ज्यादा थी, जिसका मतलब है कि आधे वोट किसी दूसरी पार्टी के लिए थे.
अगर दो बड़े गठबंधनों की कुल संयुक्त वोट शेयर को लिया जाए तो एनडीए को 38.5 फीसदी जबकि यूपीए को महज 23 फीसदी से कुछ कम वोट मिले थे. इसके बाद भी कुल तकरीबन 39 फीसदी वोट—मोटे तौर पर एनडीए की वोट हिस्सेदारी के बराबर—अन्य पार्टियों की झोली में गए थे. लिहाजा कागजों पर तो यूपीए और दूसरी पार्टियों का साथ आना 2019 में मोदी के विशालकाय काफिले को रोक सकता है.
यही नहीं, 2014 में भाजपा की 31 फीसदी वोट हिस्सेदारी पांच राज्यों (गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड) में उसे मिले 50 फीसदी वोटों का और अन्य चार राज्यों में उसे मिले 40 फीसदी से ज्यादा वोटों का नतीजा थी.
अब जब दो बड़े सहयोगी दल उसका साथ छोड़ चुके हैं और इन नौ राज्यों में 40 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने के जबरदस्त प्रदर्शन को दोहरा पाने की बहुत ही कम संभावना है, ऐसे में मोदी-शाह की जोड़ी के लिए चीजें मुश्किल दिखती हैं.
सीटों के लिहाज से 2014 के नतीजों का एक विश्लेषण 10 राज्यों में फैली 304 सीटों पर पार्टी की मुश्किलों को उजागर करता है. ये वे राज्य हैं जहां पार्टी बहुत-से विरोधी दलों के खिलाफ अकेले लड़ रही होगी (देखें विपक्ष का गणित).
पांच साल पहले, जब विपक्ष बिखरा हुआ था, उसने इन 304 सीटों में से 140 सीटें जीती थीं. इनमें भी 71 सीटें (कुल 80 में से) अकेले उत्तर प्रदेश में थीं. अगर सपा और बसपा 2014 में साथ मिलकर लड़ी होतीं, तो वे उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटों को 30 से भी नीचे ले आतीं. कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं, "गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे खुद बयान करते हैं कि आगे भाजपा के लिए क्या होने वाला है.''
सहयोगी भाजपा को बचा पाएंगे?
2014 के लोकसभा चुनाव में चार राज्यों में जहां भाजपा सहयोगियों के साथ लड़ी वहां संयुक्त विपक्ष की ताकत की एक पड़ताल. इन राज्यों की 100 सीटों में से 29 भाजपा जीती. साथ ही इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में वोट शिफ्ट होने की तस्वीर.
इसके अलावा चार राज्यों की अन्य 100 सीटों पर भाजपा एक या ज्यादा सहयोगी दलों के साथ मिलकर विपक्षी दलों का सामना करेगी. 2014 में उसने इनमें से 29 सीटें जीती थीं.
इनमें बिहार की 40 में से 22 सीटें थीं, यानी उस राज्य में, जो उसने 2015 में राजद, जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस के संयुक्त विपक्ष के हाथों गंवा दिया.
दो साल बाद जद(यू) के मुखिया और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पाला बदला और भाजपा के खेमे में आ गए, हालांकि इस दोस्ती में भी अब तनाव झलकने लगा है.
अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा-जद(यू ) गठबंधन की हार के बाद नीतीश कुमार ने कहा कि उनकी पार्टी ने भाजपा के भारी दबाव की वजह से इन मुकाबलों में उतरने का फैसला किया.
उन्होंने कहा, "भाजपा की जबरदस्त मांग पर पार्टी ने सोचा कि अगर हमने उनकी बात नहीं मानी तो दोष हमारे ऊपर ही आएगा. हमने अच्छी तरह जानते-बूझते हुए कि क्या होने वाला है, उनकी बात मानी थी.''
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर द्वैपायन भट्टाचार्य के मुताबिक, 2019 में मुकाबला राज्य के अपने खास असंतोष-नाराजगी और राज्यों के प्रति "असंवेदनशील'' केंद्रीय भाजपा के बीच होगा.
भट्टाचार्य कहते हैं, "इसके संकेत आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु (स्टालिन की द्रविडऩाडु की मांग), कर्नाटक (लिंगायतों के लिए अल्पसंख्यक दर्जा), महाराष्ट्र (किसानों का विरोध प्रदर्शन) में दिखते हैं. भाजपा की विस्तार योजना ने क्षेत्रीय दलों को भयभीत कर दिया है.
चेहरों की भरमार
मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने का श्रेय एक दो नहीं बल्कि कई नेता लेना चाहते हैं. जिसके कारण आकार लेने से पहले ही गठबंधन के बिखरने के आसार बन गए हैं.
वे नामुमकिन-से गठजोड़ बनाएंगे, जिसकी मिसाल सपा-बसपा हैं. भाजपा विरोधी वोट रणनीतिक तरीके से चुनाव लड़ रही सबसे मजबूत पार्टी को चले जाएंगे.'' निर्णायक लड़ाई अलबत्ता राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की 100 सीटों पर होगी, जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधा मुकाबला होगा.
2014 में भाजपा ने इनमें से 97 सीटें जीती थीं. भाजपा के अंदरूनी लोग भी निजी तौर पर मानते हैं कि राजस्थान और मध्य प्रदेश के उपचुनावों के रुझान को देखते हुए इसे दोहराना नामुमकिन ही होगा. पिछले दो साल में कांग्रेस ने राजस्थान और मध्य प्रदेश में लोकसभा (2) और विधानसभा (6) के सभी उपचुनाव जीते हैं. भट्टाचार्य कहते हैं, "एकजुट विपक्ष और तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस की हालत में सुधार मिलकर पक्का कर देंगे कि भाजपा 200 के पार न जाए.''
पचमेल गठबंधन?
हालांकि आंकड़े भाजपा की मुश्किल का इशारा कर रहे हैं, पर सियासत महज गुणा-भाग से कहीं ज्यादा है. इसका बहुत कुछ मतलब केमिस्ट्री भी है और फिलहाल कोई एक नेता नहीं है जो बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट कर सके.
चुनावी गणित भी हमेशा कामयाबी की गारंटी नहीं देता, जैसे राजद-जद(यू) कांग्रेस महागठबंधन 2015 में बिहार में भाजपा को सत्ता से दूर रखने में कामयाब रहा, पर सपा-कांग्रेस का गठबंधन अखिलेश और राहुल की युवा अगुआई के साथ पिछले साल उत्तर प्रदेश में वैसा जादुई नतीजा देने में नाकाम रहा.
2016 में पश्चिम बंगाल में वाम दलों और कांग्रेस का गठबंधन कागजों पर मजबूत दिखाई देता था, पर टीएमसी को चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल करने से नहीं रोक सका. जेएनयू में राजनैतिक विज्ञान के प्रोफेसर प्रलय कानूनगो कहते हैं, "चुनावों का मतलब केवल जोड़ और घटाव ही नहीं है.
चुनाव अब भी एक साल दूर हैं और नतीजे उस वक्त के ज्वलंत मुद्दों से तय होंगे. हमें भूलना नहीं चाहिए कि राम मंदिर का फैसला इस साल आने की संभावना है.
यह चुनावों की दशा-दिशा बदल सकता है. एक और खराब मॉनसून बिल्कुल अलहदा कहानी लिख सकता है.''
अगर कोई एक चुनाव है जो 2019 तक पूरे साल की दशा-दिशा तय करेगा, तो वह कर्नाटक का चुनाव है. अगर कांग्रेस इस सूबे को अपनी झोली में रख पाती है, तो यह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अगले तीन बड़े चुनावों के लिए पार्टी में नई जान फूंक देगा.
लेकिन भाजपा की जीत राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर बड़ा सवालिया निशान लगा देगी. राजनैतिक विश्लेषक राहुल वर्मा और प्रणव गुप्ता अपने एक वेब कॉलम में लिखते हैं, "समान चुनावी संभावनाओं वाली कई क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन में कई सारे वीटो खिलाड़ी होंगे.
कांग्रेस अकेली संभावित उम्मीदवार है, पर वह 2014 के बाद स्वतंत्र रूप से खुद का कायाकल्प करने का रास्ता खोजने में नाकाम रही है. जब तक वह कर्नाटक नहीं जीतती और मध्य प्रदेश या राजस्थान सरीखा बड़ा राज्य फतह नहीं करती, तब तक उसके सर्वमान्य पार्टी के तौर पर उभरने की संभावनाएं ढुलमुल रहेंगी.''
ये दोनों लेखक उपचुनावों के नतीजों का बहुत ज्यादा मतलब निकालने को लेकर भी आगाह करते हैं. उन्होंने 1967 और 2012 के बीच हुए 1,100 विधानसभा और 213 लोकसभा उपचुनावों के नतीजों का अध्ययन किया और पाया कि राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ पार्टी की बजाए इन सीटों पर राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी के जीतने की संभावना ज्यादा थी.
उन्होंने विधानसभा चुनावों के दो साल के भीतर हुए उपचुनावों के नतीजों का राज्य स्तर के चुनाव नतीजों के साथ भी मिलान किया और पाया कि उपचुनाव की विजेता पार्टी के अगला विधानसभा चुनाव जीतने की संभावना आधी से भी कम होती है.
आखिर में वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं, "इन दो प्रकार के नतीजों का निष्कर्ष साफ है—स्थानीय स्तर के मुद्दे और रफ्तार उपचुनाव के नतीजे तय करती है और उनसे पूरे राज्य का या राष्ट्रीय रुझान मिलने का कोई सबूत नहीं है.''
विचारधारा के साझा आधार का न होना भी ऐसे गठबंधनों के बिखरने की एक और वजह है. कई सियासी जानकार दलील देते हैं कि आज का आकांक्षाओं से लबालब युवा मतदाता 1990 के दशक की अंतर्कलह से ग्रस्त "तीसरे मोर्चे'' की सरकारों को बर्दाशत करने के लिए तैयार नहीं भी हो सकता है और इसके बजाए मोदी की "मजबूत-निर्णायक'' अगुआई को चुन सकता है.
प्रोफेसर भट्टाचार्य मानते हैं कि कर्मयोगी होने की मोदी की छवि को जबरदस्त धक्का लगा है और अब उन्हें केंद्र में अपने और राज्यों में भाजपा सरकारों के कामकाज के आधार पर परखा जाएगा. वे कहते हैं, "भाजपा ने मोदी-शाह की जोड़ी के मातहत खुद को बहुत ज्यादा केंद्रीयकृत कर लिया है.
वह एकतरफा फैसले ले रही है. नोटबंदी की जबरदस्त भूल और जीएसटी से नाराजगी के बाद स्थिति में नाटकीय बदलाव आया है. इस जोड़ी ने नाकाबिलियत जाहिर कर दी है. वे अब उतने भरोसेमंद नहीं रह गए जितने हुआ करते थे.''
ममता बनाम राहुल
अस्तित्व का संकट और मोदी-शाह को रोकने की एक जैसी ख्वाहिशें, विपक्षी दलों को यह बात एकजुट तो कर सकती है लेकिन इसको लेकर एकराय नहीं बन पा रही कि यदि सभी विपक्षी दलों का कोई साझा मोर्चा बन भी गया, तो इसकी अगुआई कौन करेगा.
चूंकि कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है और पूरे देश में मौजूदगी रखती है इसलिए अलग-अलग मिज़ाज वाले दलों को एक साथ जोड़कर रखने के लिए वह एक स्वाभाविक विकल्प हो सकती है पर ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षाएं, राहुल को मोदी का विकल्प बनकर उभरने में आड़े आ सकती हैं.
हालांकि लोकसभा में कांग्रेस के 48 सांसदों के मुकाबले तृणमूल के सिर्फ 14 सांसद हैं फिर भी ममता ने ऐसी बिसात बिछा रखी है कि पिछले चार वर्षों से उनकी ही पार्टी संसद और संसद के बाहर, दोनों ही जगहों पर मुख्य विपक्षी दल के रूप में नजर आती है.
इसी बीच कांग्रेस ने नेतृत्व की कमान सोनिया गांधी से राहुल को थमा दी तो तृणमूल भी ममता को भाजपा का मुखरता के साथ सामना करने वाली सबसे विश्वसनीय नेता के रूप में पेश करने में सफल रही है. डेरेक ओ'ब्रायन ममता की राजनैतिक आकांक्षाओं के संकेत इशारों-इशारों में दे देते हैं, "2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को टक्कर देने वाला कोई सबसे भरोसेमंद चेहरा है तो वह हैं ममता बनर्जी.
मुझे उनके राजनैतिक अनुभव के बारे में बताने की आवश्यकता नहीं. उनके पास राजनीति का चार दशक का अनुभव है. वे कई बार केंद्र में मंत्री रही हैं और पश्चिम बंगाल की सत्ता में उन्होंने प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की है.'' उससे उलट राहुल के पास सत्ता का कोई अनुभव नहीं है और उनके नेतृत्व में पार्टी कई चुनावी नाकामियों से दो-चार हो चुकी है.
ममता ने विभिन्न दलों के नेताओं से संपर्क साधना शुरू भी कर दिया है जिसमें से पाटीदारों की आवाज के तौर पर उभरे हार्दिक पटेल और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी शामिल हैं जिन्होंने गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की ओर सहयोग का हाथ बढ़ाया था. दीदी पहली नेता रहीं जिन्होंने आम आदमी पार्टी के विधायकों को अयोग्य ठहरा दिए जाने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरफ अपने समर्थन का हाथ बढ़ाया था.
जब चंद्रबाबू नायडु ने एनडीए से पल्ला झाड़ा तो उनके फैसले का स्वागत करने वाली पहली नेता भी ममता ही थीं. नायडु के निर्णय का स्वागत करते हुए ममता ने सभी विपक्षी दलों से अनुरोध किया कि आइए "यातनाओं, आर्थिक आपदाओं और राजनैतिक अस्थिरताओं'' वाली इस सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए हम सब एकजुट हों.
ओब्रायन के अनुसार, उन्होंने डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एम.के. स्टालिन को फोन किया था और "संसद के भीतर और संसद के बाहर समन्वय बनाने के लिए्य बात की थी. दिसंबर में अखिलेश यादव उनसे कोलकाता में मिले.
तीन महीने बाद तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव 2019 में एक मोर्चा तैयार करने की दिशा में बातचीत के उद्देश्य से उनके दफ्तर पहुंचे. बीजू जनता दल प्रमुख और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ उनके मधुर संबंध पहले से ही हैं.
ममता बनर्जी तो भाजपा के उन सहयोगियों के साथ भी बातचीत करने को तैयार हैं जिनकी भाजपा के साथ खटपट चल रही है. पिछले साल नवंबर में मुंबई के अपने एक आधिकारिक दौरे के बीच ममता शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और उनके पुत्र आदित्य से दक्षिणी मुंबई के एक होटल में मिलीं और दोनों के बीच करीब एक घंटे तक "राजनीति और प्रशासनिक सहयोग पर'' बातचीत हुई.
हिलोरें मारता कांग्रेस का आत्मविश्वास
कई कांग्रेसी धुरंधर हालांकि ममता और राहुल के बीच इस तरह की किसी तनातनी की बात को मीडिया की कपोलकल्पना बताकर सिरे से खारिज कर देते हैं. तृणमूल के समर्थन से राज्यसभा में फिर से जाने की तैयारी कर रहे कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं, "वह गांधी परिवार की बड़ी प्रशंसक हैं.
यदि वे मोदी के खिलाफ ताकतों को एकजुट करने का प्रयास कर रही हैं तो हर्ज क्या है? किसी ने नेतृत्व का दावा नहीं ठोका है. अभी सारा ध्यान साथ मिलकर प्रयास करने को लेकर है.'' सिंघवी कहते हैं कि यहां तक कि राहुल के करीबी सहयोगी भी दीदी की सक्रियता से चिंतित नहीं हैं और जहां भी जरूरत हो, वहां इस काम में हर प्रकार का सहयोग देने को भी तैयार हैं.
बहुत से क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस अध्यक्ष स्वीकार्य नहीं हैं, इस धारणा को गलत ठहराने के लिए वे राहुल के एनसीपी के मुखिया शरद पवार (16 मार्च से शुरू हुए कांग्रेस अधिवेशन से कुछ दिनों पूर्व राहुल ने शरद पवार के दिल्ली स्थित आवास में कई घंटे बिताए थे), समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव और डीएमके नेता एम.के. स्टालिन के साथ करीबी रिश्तों का हवाला देते हैं.
कांग्रेस के एक युवा महासचिव कहते हैं, "हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच असंभव गठजोड़ को संभव करने के पीछे, राहुल गांधी का बड़ा हाथ था.''
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, राहुल गांधी का निर्देश सरल है—2019 का हमारा लक्ष्य जीतने का नहीं है, बल्कि मोदी को सत्ता से हटाने का है. नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष बखूबी समझते हैं कि एक साल के भीतर पार्टी को उन राज्यों में लड़ाई के लिए तैयार कर पाना असंभव है, जहां वह सिमटकर एक मामूली खिलाड़ी की हैसियत में आ चुकी है.
इसलिए उन राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने के प्रयास करेगी जबकि कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और उत्तराखंड में अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.
पार्टी ने माकपा के साथ गठबंधन की आशा अब छोड़ दी है. राहुल गांधी की माकपा नेता सीताराम येचुरी के साथ घनिष्ठता के बावजूद दोनों पार्टियों के बीच कोई प्रत्यक्ष चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं होगा. माकपा पोलित ब्यूरो ने कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का गठजोड़ नहीं रखने का अपना राजनैतिक संकल्प तय किया है.
कांग्रेस में भी इस बात को लेकर सहमति थी कि गठबंधन संबंधी किसी भी वार्ता से वामपंथी दलों को फिलहाल अलग ही रखना चाहिए क्योंकि इससे केरल और पश्चिम बंगाल में परेशानी की स्थिति खड़ी हो सकती है, जहां पार्टी सबसे मजबूत स्थिति में है. पश्चिम बंगाल में यह गठजोड़ उलटा ही पड़ा (2016 का कांग्रेस-माकपा गठजोड़ फुस्स साबित हुआ और इसने भाजपा को सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरने का मौका दिया).
कांग्रेस को टीआरएस और टीडीपी जैसे क्षेत्रीय दलों के भी विरोध का सामना करना होगा जो गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे के गठन के प्रति उत्सुक हैं. 19 मार्च को ममता बनर्जी के साथ मुलाकात के बाद के. चंद्रशेखर राव ने कहा, "किसानों, दलितों और अति पिछड़े वर्ग की अनदेखी हो रही है.
आखिर कब तक वे परेशानहाल ही रहेंगे? इस परिस्थिति को बदलना होगा और यह काम ये दोनों दल (भाजपा और कांग्रेस) नहीं कर सकते. इसलिए देश में एक गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चा बनाने की जरूरत है.''
कांग्रेस के सामने दूसरी बड़ी चुनौती अपने साझीदारों के लिए प्रासंगिक बने रहने की है. उदाहरण के लिए, बिहार में यह राजद के लिए बोझ साबित हुई. हालिया उप-चुनावों में कांग्रेस ने भभुआ विधानसभा सीट से लडऩे की जिद की और भाजपा से बड़े अंतर से हार गई जबकि राजद ने दो अन्य सीटें जीत लीं.
बहरहाल सिंघवी ऐसे किसी भी गठबंधन की कल्पना को ही फिजूल बताते हैं जिसमें कांग्रेस साझीदार न हो. "कांग्रेस की सहायता के बिना भाजपा के खिलाफ किसी प्रभावशाली गठबंधन की कल्पना ही बेकार है.
यह समय ख्वाबों-ख्यालों की दुनिया में रहने का नहीं है. गैरभाजपा दलों का संयुक्त गठबंधन ज्यादा असरदार होगा बजाए कोई तीसरा मोर्चा बनाने के.'' प्रोफेसर कानूनगो इससे सहमत दिखते हैं. वे कहते हैं कि टीआरएस, टीएमसी, टीडीपी और आईएनएलडी जैसे दलों को मिलाकर बने गठजोड़ जिसमें कांग्रेस न हो, उससे भाजपा का गणित नहीं बिगाड़ा जा सकता.
क्या भाजपा विपक्षी गठजोड़ के आगे टिक पाएगी?
विपक्षी दलों के भाजपा के खिलाफ एक साझा गठजोड़ बनाकर चुनाव लडऩे की संभावनाओं पर चर्चा शुरू करने से पहले ही अमित शाह यह समझ चुके थे कि पार्टी हिंदी पट्टी में अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा नहीं पाएगी.
इसके अलावा एनडीए के साथियों के बीच जिस कदर दूरियां बढ़ रही हैं वह भी भाजपा की चिंता बढ़ाती है. टीडीपी और शिवसेना के अलावा छोटे सहयोगियों ने भी भाजपा के खिलाफ स्वर मुखर कर दिए हैं. उत्तर प्रदेश उपचुनावों के बाद भाजपा के प्रमुख सहयोगी और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान ने भगवा दल को यह कहते हुए चेताया कि सत्तारूढ़ गठबंधन को समाज के कुछ वर्गों के बीच अपनी छवि को तत्काल दुरुस्त करने की जरूरत है.
यही कारण है कि शाह पिछले चार साल से पार्टी के विस्तार और गठबंधन के नए सहयोगियों की तलाश पर जोर दे रहे हैं. उत्तर-पूर्व के आठ में से सात राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के बाद पार्टी की नजर इस क्षेत्र की 25 में से कम से कम 15 लोकसभा सीटों पर जमी हुई है. अगला बड़ा जोर बंगाल, केरल और ओडिशा को लेकर रहेगा जहां पार्टी अपने एक अंक वाले प्रदर्शन को सुधारने की आशा रखती है.
कर्नाटक में यह कांग्रेस को कड़ी चुनौती दे रही है लेकिन आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में वह नए सहयोगी तलाश रही है. कोई भाजपा नेता खुलकर बोलने को तैयार नहीं है पर बहुत से नेताओं ने निजी बातचीत में बताया कि आंध्र प्रदेश में वाइएसआर कांग्रेस और तमिलनाडु में रजनीकांत की नवगठित पार्टी के साथ गठबंधन हो सकता है.
वाइएसआर कांग्रेस के मुखिया जगनमोहन रेड्डी ने पहले से ही इसके संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनकी पार्टी के महासचिव वी. विजयसाई रेड्डी ने हालिया महीनों में चंद्रबाबू नायडु के मुकाबले नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात के लिए समय लेना ज्यादा आसान पाया.
सीबीआइ के चंगुल में फंसे जगन भाजपा से दोस्ती गांठकर कानूनी पचड़े से कुछ राहत की आशा कर सकते हैं. भाजपा अपने पुराने सहयोगी अभिनेता पवन कल्याण की अगुआई वाली जन सेना पार्टी (जेएसपी) को फिर से साथ ले सकती है यदि राम माधव यह भरोसा दे सके कि एनडीए की सत्ता में पुनर्वापसी पर आंध्र प्रदेश को "विशेष राज्य के दर्जे से कहीं ज्यादा लाभ हासिल होगा''.
लेकिन डीएमके का पाला बदलकर यूपीए से एनडीए में आ जाना सबसे आश्चर्यजनक उलटफेर हो सकता है. यदि भाजपा के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो महाराष्ट्र में शिवसेना भी मौके की नजाकत समझते हुए फिर से गठबंधन में वापसी कर लेगी.
भाजपा के सूत्र मानते हैं कि मोदी बनाम अन्य का मुकाबला बेशक मुश्किल हो जाएगा. हालांकि शाह कहते हैं, "हम मोदी बनाम अन्य की स्थिति का स्वागत करते हैं.'' मोदी इसे अपने खिलाफ समूचे विपक्ष के एकजुट होने के तौर पर प्रचारित करके भावनात्मक कार्ड खेल सकते हैं. यही कारण है कि शाह पूरे आत्मविश्वास से यह दावा करते हैं कि भाजपा 2019 में यूपी के कुल वोटों का 50 प्रतिशत प्राप्त करेगी.
लक्ष्य मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं क्योंकि भाजपा ने 2014 में जिन 282 सीटों पर झंडा गाड़ा था, उनमें से 141 सीटों पर उसने इसी अंतर से जीत हासिल की थी. लेकिन तब अखिलेश और मायावती अलग-अलग थे, अब हालात बदल गए हैं.
साथ में उदय माहूरकर, अमरनाथ के मेनन, किरण डी. तारे, आशीष मिश्र, रोमिता दत्ता, अमिताभ श्रीवास्तव और जीमॉन जैकब
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