
तारीख 13 जुलाई और वक्त शाम के तकरीबन आठ बजे. जगह दिल्ली का चाणक्यपुरी स्थित आलीशान होटल अशोक. भीतर का वातानुकूलित हॉल इशारा कर रहा है कि बाहर मौसम किस कदर आग उगल रहा है. हॉल में सबकी आंखें कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी पर टिकी हुई हैं. मौका इफ्तार पार्टी का है, जिसकी मेजबान खुद सोनिया गांधी हैं. उन शख्स को भी कुछ कम तवज्जो नहीं मिल रही, जो वहां उनकी बाईं तरफ बैठे हैं&बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. हालांकि इसमें अनपेक्षित कुछ भी नहीं. जैसे-जैसे बिहार के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, नीतीश कांग्रेस के नए चहेते बन गए हैं. इन सबके बीच जो चीज उम्मीद के उलट रही, वह थी कुछ गैरकांग्रेसी नेताओं की गैर-मौजूदगी. लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, जे. जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी का एक साथ नदारद होना न कहकर भी काफी कुछ कह रहा था. हालांकि शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल वहां मौजूद थे, लेकिन उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अब अपने पुराने कद की छाया भर रह गई है.
कम से कम तीन भगवा पार्टी के शासन वाले राज्य इस वक्त भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों की चपेट में हैं. अगर बीजेपी इस उम्मीद में थी कि अशोक होटल के बाहर आग उगलती गर्मी की तरह इस बार संसद के मानसून सत्र में उसके ऊपर भी विपक्ष की ओर से मिसाइलों और बरछियों की बरसात होने वाली है तो अब वह थोड़ी राहत की सांस ले सकती है. मौसम कुछ परेशान करने वाला तो रहेगा, लेकिन ऐसे भी आग उगलने की उम्मीद नहीं है, जैसे पहले 21 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले संसद के मानसून सत्र में उम्मीद की जा रही थी. इस बात के सारे संकेत उस इफ्तार पार्टी में मौजूद थे. उतने ही साफ, जितना साफ बारिश के बाद धुला हुआ आसमान होता है.
बीजेपी ने सत्ता की कमान भ्रष्टाचार और कमजोर नीतियों के ढेरों आरोपों से घिरे यूपीए-2 के हाथों से अपने हाथों में ली थी. प्रधानमंत्री कार्यालय में नरेंद्र मोदी का पहला साल साफ-सुथरी छवि के बड़े-बड़े दावों से रौशन था. और तभी तूफान ने दस्तक दी. ललित मोदी प्रकरण, मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला, छत्तीसगढ़ में पीडीएस घोटाला और महाराष्ट्र की मंत्री पंकजा मुंडे के खिलाफ 200 करोड़ रु. के घोटाले के आरोपों के बाद साफ-सुथरी छवि के बीजेपी के सारे दावे तार-तार हो गए. इसी सब को देखते हुए पहले से ये नतीजे निकाले जा रहे थे कि अब संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी की सारी तोपों का रुख एनडीए सरकार की ओर होगा. दनादन गोलों की बरसात होगी. खेलका नियम बहुत सीधा था. बिसात बिछ चुकी थी. अपने सारे दांव चल दो, सुर ऊंचा रखो और फिर एक-एक करके आरोपियों के इस्तीफे की मांग करो. ललित मोदी को ब्रिटेन जाने के लिए जरूरी कागजात हासिल करने में मदद करने के लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का इस्तीफा, आइपीएल के पूर्व दागदार कमिशनर के साथ कथित व्यावसायिक सौदों के लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का इस्तीफा और व्यापम घोटाले में शामिल होने के आरोपों की वजह से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस्तीफा.
इफ्तार की दावत ने ये संकेत दे दिए कि इस लड़ाई में उनकी पार्टी बहुत अलग-थलग पडऩे वाली है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस एक ऐसे समय में सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने में नाकाम रही, जब बीजेपी संकट के दौर से गुजर रही है और यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी तक के ये दावे कि “न खाऊंगा, न खाने दूंगा” की विश्वसनीयता भी संदेह के घेरे में है. एक ओर जयललिता, मुलायम और मायावती ने सोनिया गांधी के निमंत्रण की अनदेखी की, वहीं लालू और ममता ने अपने प्रतिनिधि भेजे. यहां तक कि सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी भी तब लंदन में थे, जिनके साथ सोनिया के बहुत अच्छे संबंध हैं. एनडीए के खिलाफ आवाज बुलंद करने में वाम दल हमेशा सबसे सहयोगी साथी रहे हैं. लेकिन इस बार वे भी नदारद थे.
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने स्वीकार किया कि इफ्तार की दावत विपक्षी दलों के बीच आगे की योजना और रणनीति पर बातचीत करने की प्रक्रिया का हिस्सा थी. हालांकि यह मुलाकात कितनी कामयाब रही, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेठी के सांसद खुद इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि सरकार के खिलाफ उनकी रणनीति क्या होगी. एक मौके पर तो उन्हें डीएमके नेता कनिमोलि से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की बीजेपी के साथ कथित नजदीकी के बारे में पूछते सुना गया. राहुल की मुस्कराहट हमेशा की तरह खिली हुई थी, लेकिन जब रिपोर्टरों ने उनसे पूछा कि संसद में मोदी सरकार के साथ उनका रुख और रणनीति क्या होगी तो उनकी परेशानी भी साफ देखी जा सकती थी.
जब उनसे पूछा गया कि क्या वे विभिन्न राज्यों में बीजेपी सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपना बयान देने के लिए मोदी पर दबाव डालेंगे तो राहुल ने जवाब दिया, “उन्हें बयान देने के लिए कहने वाला मैं कौन होता हूं? यह उनका विशेषाधिकार है.” विपक्ष के बीच फैला अनिश्चितता का माहौल और भी कई बातों से जाहिर है. सूत्रों की मानें तो तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, जनता दल (यूनाइटेड) और समाजवादी पार्टी अनौपचारिक रूप से इस बात पर एकमत हैं कि सुषमा स्वराज को निशाना बनाया जाए. लेकिन वहीं दूसरी ओर जब तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगत रॉय ने ललित मोदी प्रकरण में विदेश मंत्री की आलोचना करते हुए ट्वीट किया तो पार्टी ने तुरंत उससे अपने हाथ पीछे खींच लिए. वहीं एनसीपी के डी.पी. त्रिपाठी को भी स्वराज के खिलाफ बोलने के लिए पार्टी का कोपभाजन बनना पड़ा.
कांग्रेस के बाहर एकमात्र नीतीश कुमार ही बड़े कद के ऐसे नेता हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए मोदी पर वार कर रहे हैं. कांग्रेस के एक महासचिव ने इंडिया टुडे को बताया, “क्षेत्रीय पार्टियों का नजरिया संकुचित होता है. वे तब तक किसी चीज पर प्रतिक्रिया नहीं करतीं, जब तक वे खुद उससे सीधे प्रभावित न हो रही हों. तृणमूल कांग्रेस राजे के इस्तीफे की मांग कर सकती है. लेकिन पार्टी अब भी इस बात को लेकर किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंची है.” तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन कहते हैं कि पार्टी की बैठक से पहले वे पार्टी की मॉनसून सत्र की रणनीति का खुलासा नहीं कर सकते.
राहुल की चुप्पी के बावजूद कांग्रेस का थिंक टैंक संवैधानिक मुद्दों पर सरकार पर सुनियोजित वार करने की तैयारी कर चुका है. इस मानसून सत्र में पेश होने वाले कुछ विवादास्पद बिलों पर कांग्रेस पहले ही अपना रुख साफ कर चुकी है जैसे, व्हिसलब्लोअर संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2015; भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (संशोधन) अध्यादेश में उचित मुआवजा पाने का अधिकार और पारदर्शिता, 2015; संविधान (122वां संशोधन) (जीएसटी) विधेयक, 2014; रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) विधेयक, 2013. 234 सदस्यों वाली राज्यसभा में 68 सदस्यों वाली कांग्रेस के समर्थन के बगैर एनडीए के लिए कोई भी विधेयक पारित करना मुमकिन नहीं होगा. (देखें बॉक्स) ऐसे में पार्टी सिर्फ दो चीजों पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर रही हैः भूमि अधिग्रहण और वस्तु एवं सेवा कर बिल.
हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस हर मोर्चे पर पूरी तरह पराजित हो गई हो. भूमि अधिग्रहण बिल पर अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों का रुख साफ है. ऐसे में राज्यसभा में एनडीए के लिए इसे पारित करवाना नामुमकिन हो जाएगा, जहां एनडीए के मात्र 61 सदस्य हैं. यहां तक कि शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना जैसे बीजेपी के सहयोगी दल भी इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप के बारे में अपनी नाराजगी जता चुके हैं. वहीं एआइएडीएमके प्रमुख जयललिता ने महत्वपूर्ण यू-टर्न लेते हुए 15 जुलाई को मोदी को पत्र लिखकर उनसे बिल में कोई संशोधन न करने का अनुरोध किया है. लोकसभा में बीजू जनता दल (बीजेडी) के नेता भृर्तहरि महताब कहते हैं कि अगर सरकार उनके सुझावों पर सहमत हो जाती है तो हम बिल का समर्थन करेंगे. पार्टी ने पांच संशोधन करने का सुझाव दिया है. उनमें से एक यह भी है कि जिस की जमीन अधिग्रहीत की जा रही है, वहां पर बनने वाले उद्योग में वह हिस्सेदार होगा.
सपा के रुख में विपक्ष की रणनीति को साफ देखा जा सकता है. रणनीति यह है कि ऊपरी सदन में आने के बाद सपा उस बिल को राज्यसभा की प्रवर समिति को भेजने के लिए दबाव डालेगी. सपा के संसदीय बोर्ड के एक सदस्य कहते हैं, “यह संसदीय प्रक्रिया है कि हर विधेयक को प्रवर समिति के पास भेजा जाना चाहिए. लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में एनडीए ने इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया है.” इससे मोदी को दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर बिल को पारित कराने का मौका भी नहीं मिलेगा. येचुरी कहते हैं, “विपक्ष बिल को संसद में न पारित होने देगा, न गिरने देगा ताकि सरकार को दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाने का मौका न मिले.”
हालांकि वस्तु एवं सेवा कर विधेयक पर तृणमूल कांग्रेस और बीजेडी सरकार के साथ है. बीजेडी के महताब के मुताबिक, बीजेडी वस्तु एवं सेवा कर बिल का विरोध नहीं करेगी, लेकिन खनिज संपदा से समृद्ध राज्य जैसे ओडिसा को भी 1 फीसदी उपकर लगाने की अनुमति मिलनी चाहिए. उम्मीद है कि इस बिल को 21 सदस्यों वाली प्रवर समिति का समर्थन हासिल होगा क्योंकि कांग्रेस और सपा ही इसका विरोध करने वाली हैं. लोकसभा में कांग्रेस की मुखर आवाज ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं, “वस्तु एवं सेवा कर बिल को उसके मौजूदा रूप में पारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. यहां तक कि गुजरात सरकार ने भी इसका विरोध किया है.” संसदीय समिति 17 जुलाई को इस पर अपनी रिपोर्ट पेश करने वाली है.
लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि इस रास्ते पर कांग्रेस को सफलता मिलने वाली है. सवाल यह भी है कि सहयोगी कब तक मैदान में
डटे रहेंगे और कांग्रेस कब तक मजबूती से टिकी रह पाएगी.