
"दिस सिटी, दिस होल कंट्री इज अ स्ट्रिप क्लब. यू हैव गॉट पीपल टॉसिंग द मनी, ऐंड पीपल डुइंग द डांस."
फ़िल्में उनका आईना होती हैं जिस समाज, जिस वक़्त और हालात में हम रह होते हैं. हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ इंसानी-जज़्बातों से ज़्यादा अहमियत पैसों की है. पैसे से ताकत आती है और रसूख लोगों को आपकी तरफ आकर्षित करता है. अगर आपके पैसे हैं तो आप सबके अपने हैं. आपकी हर बात शहद-सी मीठी है.
तभी जब फिल्म 'हस्लर्स' में जेनिफ़र लोपेज़ असल जिंदगी से प्रेरित किरदार रमोना बनकर यह बात अपनी को-डान्सर डेस्टिनी से कहती हैं, तो हम सब कहीं न कहीं जोड़ लेते हैं इससे. लगता है बात हमारी ही तो रही. जब एक फ़िल्म देखते हुए बतौर दर्शक आप जुड़ाव महसूस करने लगते हैं, तो फ़िल्म की सफलता वहीं से शुरू हो जाती है.
मुझे यक़ीन था कि जेनिफ़र लोपेज़ अभिनीत ‘हस्लर्स’ ने ऑस्कर की दौड़ में ज़रूर अपनी जगह बनाई होगी.
2019 में देखी फ़िल्मों में यह सबसे उम्दा फिल्मों में से एक फ़िल्म थी. गोल्डन ग्लोब में भी बेहतरीन सपोर्टिंग ऐक्ट्रेस की श्रेणी में जेनिफ़र पहले ही नामित थीं. फिर जैसे-जैसे ऑस्कर की लिस्ट आंखों के सामने गुज़रती गयी एक निराशा सी होती चली गयी. जेनिफ़र नामित नहीं हुईं. हस्लर्स को किसी भी श्रेणी में पुरस्कार के लिए नामांकित नहीं किया गया.
वजह क्या रही होगी उस पर बाद में आते हैं, पहले फ़िल्म की बात कर लें ज़रा.
हस्लर्स की कहानी आधारित है स्ट्रिप-क्लब में डान्स करने वाली लड़कियों की ज़िंदगी पर. फ़िल्म स्ट्रिप-क्लब में एक नई डान्सर डेस्टिनी की डान्सर वाली ज़िंदगी से शुरू होती है. डेस्टिनी एशियाई मूल की हैं और छोटी आंखों, चिपटी नाक, सपाट छाती और छोटे नितंबों वाली इस लड़की के लिए स्ट्रिप-क्लब में जगह बनाना मुश्किल है. वहां उभरी छाती, बड़े कूल्हे वाली लड़कियों का दबदबा है. पहली ही रात को डान्स करते हुए डेस्टिनी को अहसास हो जाता है कि वो फ़िट नहीं है. उसका कुछ नहीं हो सकता. जबकि उसे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है, बीमार दादी की देखभाल करनी है.
वो हताश होकर दिसम्बर की सर्दी में न्यूयॉर्क शहर की बहुमंज़िला इमारत की छत पर अकेली उदास बैठी रहती है और तभी वहां महँगे बूट्स, फ़र वाली ओवरकोट और सेक्सी-बैंगस वाली रमोना आती है. अपने सामने यूं अकेली लड़की को छत पर देख उसे अपना बीता कल याद आता है. वह डेस्टिनी को अपने कोट में समेटकर बिठा लेती है. यहाँ से फ़िल्म की कहानी शुरू होती है.
रमोना ट्रेन करती है डेस्टिनी को डान्स के लिए. स्ट्रिप क्लब में आए कस्टमर को कैसे पहचानना है. कौन अमीर है, कौन पैसे खर्च करेगा कौन नहीं. स्ट्रिप-क्लब एक कंपनी की तरह चलता है. वहाँ काम करने के लिए वहां के कारोबार की बारीकियां सीखना ज़रूरी है. डेस्टिनी को रमोना में बड़ी बहन मिल जाती है. ज़िंदगी एकदम वैसे चल रही होती जैसा उसने सोचा था. वो पढ़ती है. दादी की देखभाल करती है. उसका एक प्रेमी है जिसके साथ वो ख़ुश है.
मगर ज़िंदगी की तरह फ़िल्मों में भी सब अच्छा-अच्छा नहीं हो सकता न. 2008 का साल होता है जब अमेरिका में मंदी आती है, जिसका सीधा असर वॉलस्ट्रीट पर पड़ता है. अब हाई-एंड क्लॉइंट स्ट्रिप-क्लब में पैसे खर्च करने नहीं आते. लगभग सभी स्ट्रिपर बेरोज़गार से हो जाते हैं.
कई क्लब बंद होने की कगार पर पहुँच जाते हैं. रिशेसन का सीधा असर उन स्ट्रिपर की जिंदगियों पर अब पड़ने लगा है. ऐसे में रमोना एक आइडिया लेकर आती है, जिसके तहत वो क्लाईंट को ड्रग देकर उनके क्रेडिट कार्ड स्वाइप कर लेती है. पहले डेस्टिनी इसके लिए मना करती है. ख़ुद के लिए दूसरी नौकरी ढूँढती है मगर कोई नौकरी नहीं मिलने पर रमोना के साथ हो जाती हैं.
रमोना उसे समझाती है कि इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. ये वो वॉलस्ट्रीट के बंदे हैं जिन्होंने करोड़ों रूपए डुबो दिए हैं. इन्होंने पहले ही बहुत गलत किया है दुनिया के साथ. और उनसे पैसे ऐंठना कत्तई गलत नहीं है.
ज़ाहिर तौर पर हस्लर्स के केंद्रीय पात्र उसकी नायिकाएं हैं. इस फ़िल्म में पुरुष सिर्फ़ आते-जाते हैं. इस फ़िल्म की कहानी मूलतः इन दो चरित्रों के बहनापे पर है. रमोना और डेस्टिनी जैसे एक-दूसरे से एकदम अलग होकर भी एक-दूसरे के लिए हैं वो इस फ़िल्म का सबसे मजबूत हिस्सा है.
फ़िल्म के साउंड-ट्रैक चाहे वो ब्रिटनी-स्पीयर्स हो या जेनेट जैक्सन के गाने, सब फ़िल्म को आगे बढ़ाने का काम करती है. आइ ऐम अ बैड, बैड गर्ल वाले साउंड ट्रैक पर रमोना की इंट्री से ही फ़िल्म की दिशा तय हो जाती है. जेनिफ़र लोपेज़ ने जिस तरह से रमोना के किरदार को जिया है, इसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है. हस्लर्स उनके कैरियर की बेस्ट फ़िल्म है.
लेकिन अमेरिकन नहीं होना उनके अभिनय पर भारी पड़ रहा है.
एक बार फिर से ऑस्कर अवॉर्ड विवादों में घिरता हुआ दिख रहा है. जेनिफ़र को नहीं नामित करने की वजह उनका लैटिन अमेरिकन होना बताया जा रहा है. वैनिटी-फ़ेयर मैगजिन से लेकर ट्विटर पर तक लोग इस बात का विरोध दर्ज करवा रहे. ऑस्कर किस तरह से श्वेत श्रेष्ठता को प्रमोट करता है वो इस साल की भी फ़िल्मों की सूची पढ़ने से पता चल रहा है.
ख़ैर, हम दर्शक हैं और अवॉर्ड देना हमारे बस की बात नहीं है. लेकिन हम बेहतरीन फ़िल्म को देख कर उसे सराह तो सकते ही है. अवॉर्ड का सीज़न शुरू हो चुका है. वैसे, यह फिल्म महिला शक्ति को पारिभाषित करती है. ऐसे में ऑस्कर नामांकनों से इसका बाहर होना समझ से परे है.
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