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मोदी के दो सालः कैसा रहा जेटली का प्रदर्शन

वित्त और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री 63 वर्षीय अरुण जेटली वित्तीय सेहत के कुशल रखवाले साबित हुए हैं

श्वेता पुंज
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  • 27 मई 2016,
  • अपडेटेड 9:32 AM IST

अरुण जेटली की सेहत एकदम चुस्त-दुरुस्त दिखती है, बल्कि कह सकते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान वे इतने युवा और चुस्त कभी नहीं दिखे. रविवार की सुबह जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो आसमानी नीले रंग के कुर्ते और पाजामे में उन्हें देखकर ऐसा लगा कि पिछले दो वर्षों के दौरान देश के वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दाएं हाथ के बतौर निभाए अपने किरदार से वे बिल्कुल संतुष्ट हैं. बाहरी वातावरण अनुकूल न हो तो ऐसे में वित्त मंत्री का काम बहुत कठिन हो जाता है. जेटली एनडीए सरकार के केवल वित्त मंत्री ही नहीं हैं, वे इस सरकार के सबसे बड़े संकटमोचन भी हैं, विपक्ष के साथ सबसे अहम मध्यस्थ हैं और उन्हें ही मीडिया में इस सरकार की छवि बनाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है. उनके कुछ चाहने वाले और कई आलोचक कहते हैं कि यूपीए सरकार में जो हैसियत प्रणब मुखर्जी की थी, तकरीबन वही स्थिति जेटली की एनडीए सरकार के भीतर है. उनके आलोचक प्रणब मुखर्जी से तुलना इस बात की ओर इशारा करने के लिए करते हैं कि जेटली इतने व्यस्त हैं कि उनके पास वित्त मंत्रालय को चलाने या बढिय़ा बजट लाने का वक्त ही नहीं है. उनके प्रशंसकों का मानना है कि सरकार में कोई भी ऐसा शख्स नहीं है, जो जेटली की तरह कई जिम्मेदारियां एक साथ निभा सकता हो.

मोदी का कार्यकाल शुरू होने के शुरुआती कुछ महीनों के भीतर यह साफ  हो गया था कि जेटली इस सरकार में उनके सबसे विश्वस्त व्यक्ति हैं. वित्त मंत्रालय के अलावा सही व्यक्ति मिलने तक उन्हें रक्षा मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा जाना इस बात की ताकीद करता था.

समय-समय पर इस बात की अफवाहें उड़ती रही हैं कि जेटली के मोदी से संबंध खराब हो रहे हैं. हालिया साक्ष्य के तौर पर उनके आलोचक सुब्रह्मण्यम स्वामी का हवाला देते हैं, जिनके साथ जेटली के संबंध बहुत अच्छे कभी नहीं रहे जबकि आजकल राज्यसभा में अगस्तावेस्टलैंड पर सरकार की ओर से स्वामी ही बहसों की अगुवाई कर रहे हैं, जबकि सदन के नेता जेटली हैं.

वित्त मंत्री के रूप में जेटली का रिकॉर्ड मिश्रित कहा जा सकता है. उन्होंने जब कमान संभाली, उस वक्त तेल के दाम दुनिया भर में गिर चुके थे, जिससे सरकार को काफी राहत महसूस हुई थी. उसी दौरान दुनिया भर में जिंसों के दामों में गिरावट के चलते मुद्रास्फीति भी धीरे-धीरे नीचे आ रही थी. उस वक्त हालांकि वैश्विक अर्थव्यवस्था उथल-पुथल के दौर में थी, घरेलू वृद्धि की दर मद्धम पड़ गई थी और कॉर्पोरेट प्रदर्शन पतन की ओर अग्रसर था. इसके अलावा बीते दो साल के खराब मॉनसून और उसके कारण ग्रामीण हताशा से भी उन्हें निबटना था और सरकारी बैंकों का एनपीए उनके लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था.

इन तमाम बंदिशों के बावजूद जेटली सावधानी के साथ आगे बढऩे में कामयाब रहे हैं. उन्होंने व्यय पर लगाम कसी है और वित्तीय घाटे को काबू करने में कामयाब रहे हैं. तेल के कम दाम का इस्तेमाल उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर पर व्यय के रूप में किया है. एफडीआइ सात साल में इस वक्त सबसे ज्यादा है और भारत एक ऐसे वक्त में 7.5 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर दर्शा रहा है, जब बाकी दुनिया महज तीन फीसदी से कम की दरों पर घिसटने को मजबूर है. उन्होंने कोई बड़े आर्थिक सुधार भले न किए हों, पर कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि वैश्विक गतिरोध के मौजूदा हालात में सधे हुए हाथ की ही जरूरत है.

संसदीय मोर्चे पर जहां उन्हें जरूरी विधेयकों को आगे बढ़ाने और विपक्ष के साथ समझौते करने की जिम्मेदारी दी गई है, वे उतने कामयाब नहीं रहे हैं. भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन को वापस लेना पड़ा, जीएसटी विधेयक अटका पड़ा है और आधार कानून इसलिए पास हो सका क्योंकि उसे मनी बिल के तौर पर पेश किया गया, जिससे राज्यसभा में पास कराने की जरूरत खत्म हो गई. ज्यादातर लोग बैंकरप्सी कोड की सराहना कर रहे हैं, जो लोकसभा से पारित होकर अब राज्यसभा में जाएगा.

वित्त मंत्री के तौर पर जेटली का आखिरी नतीजा इस बात पर निर्भर करेगा कि वे दो अहम विधेयकों—जीएसटी विधेयक और बैंकरप्सी कोड—को राज्यसभा में पारित करवा पाते हैं या नहीं. उन्हें जुलाई में ऐसा होने की उम्मीद है, जब राज्यसभा की कुछ सीटें कांग्रेस की झोली से निकल जाएंगी.

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