Advertisement

आवरण कथाः चिंताग्रस्त पाकिस्तान

सियासी उथलपुथल के बीच आम चुनाव, आतंक से मुकाबले के लिए अमेरिकी पैमाने पर खरा उतरने का दबाव और चीन के साथ आर्थिक कॉरिडोर जैसे मामलों के लिहाज से साल 2018 पाकिस्तान के लिए परीक्षा का वर्ष होगा.

इलेस्ट्रशनः तन्मय चक्रव्रर्ती इलेस्ट्रशनः तन्मय चक्रव्रर्ती
मंजीत ठाकुर/संध्या द्विवेदी
  • नई दिल्ली,
  • 15 जनवरी 2018,
  • अपडेटेड 6:53 PM IST

पाकिस्तान में अतीत और वर्तमान अक्सर टकराते रहे हैं. पाकिस्तान की स्थापना के 70वें वर्ष में जनरल जियाउल हक के हाथों तख्तापलट की 40वीं वर्षगांठ और लाल मस्जिद के घेराव तथा उस पर धावा बोलने की 10वीं वर्षगांठ भी है. इन प्रभावशाली घटनाओं का साया पाकिस्तान को नया इतिहास गढऩे से रोक रहा है.

जब सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई को नवाज शरीफ को वजीरे-आजम के लिए आयोग्य घोषित कर दिया, तो पाकिस्तान में बहुत से लोगों को ऐसा लगा कि कुछ हद तक कहीं वे कोई पुरानी तस्वीर तो नहीं देख रहे. अदालत ने माना कि वजीरे-आजम का संविधान के उन अनुच्छेदों से टकराव था जो जनप्रतिनिधियों से 'सादिक' (सच्चा) और 'अमीन' (सदाचारी) होने की अपेक्षा करते हैं. ये प्रावधान जनरल जिया ने ही किए थे, क्योंकि वे पाकिस्तान के संविधान को अपनी इस्लामिक धार्मिकता के हिसाब से बनाना चाहते थे.

Advertisement

खुद को हटाने के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश में खुद शरीफ ने 1955 के मौलवी तमीजुद्दीन केस जैसी समानता का हवाला दिया. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 'राज्य की आवश्यकता के सिद्धांत' का इस्तेमाल किया था और उसने संविधान सभा को भंग करने की एक याचिका को खारिज कर दिया था. इस प्रकार वजीरे-आजम को पद से हटाने वाले साल 2017 के आदेश को अपरिहार्य रूप से पाकिस्तान के 1950, 1980, 1990 के दशक के इतिहास के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा, जब अदालती हस्तक्षेप ने संसदीय अधिकार को निलंबित कर दिया था.

हालांकि, कई इसके विपरीत तर्क देते हैं—पाकिस्तान में गहराई तक जड़ जमा चुका भ्रष्टाचार तभी साफ किया जा सकता है, जब बिल्कुल शीर्ष स्तर पर झाड़ू लगाई जाए. इन प्रतिस्पर्धी अफसानों और नारों के बीच पाकिस्तान की फौज की भूमिका यकीनन केंद्रीय हैः शरीफ की पूरी अवधि को सिविल-मिलिटरी टकराव के रूप में ही देखा जा सकता है. उनके हटने पर अगर फौज के साथ पाकिस्तान के जटिल इतिहास की याद ताजा हो गई, तो हकीकत यह भी है कि पाकिस्तान ने एक बड़ा मौका गंवा दिया है. शरीफ ने अगर अपना कार्यकाल पूरा किया होता तो यह पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार होता.

Advertisement

आतंकी हमले नियमित रूप से पूरे साल पाकिस्तान के राजनैतिक घटनाक्रम में अड़चन पैदा करते रहे हैं. वैसे तो साल 2015 से अब तक कुल मिलाकर आतंकी हमलों की घटनाओं और तीव्रता में कमी आई है, लेकिन उनका जड़ जमाए रहना यह बताता है कि पाकिस्तानी फौज के दावे के उलट शिद्दतपसंद जमातों और उनके आकाओं का नए सिरे से जमावड़ा हो रहा है. ऐसे ज्यादातर हमलों में लक्ष्य भी अनुमान के मुताबिक ही होते हैं: शिया, पुलिस और फौज और आसान निशाना मानी जाने वाली अवाम. हालांकि, सुन्नी मुसलमान भी इससे बच नहीं पातेरू सिंध में लाल शहबाज कलंदर की सूफी मजार पर हमला उस सिलसिले का ही हिस्सा था, जिसमें 2005 में इस्लामाबाद की बरी इमाम मजार और 2010 में लाहौर में दाता दरबार पर हमला शामिल है. यह तमाम आतंकी समूहों की लोकप्रिय इस्लामिक केंद्रों से लेकर धर्मपरायण बरेलवी तक से गहरी शत्रुता को भी दर्शाता हैं.

हालांकि, बरेलवी सिर्फ इसलिए खबर में नहीं हैं कि उन पर बार-बार आतंकी हमले होते हैं. नवंबर महीने में इस्लामाबाद में एक धरने ने सड़क पर उनकी ताकत को प्रदर्शित किया. उन्होंने राजधानी के जनजीवन को दरहमबरहम कर दिया और सरकार को बातचीत करने और अंत में समर्पण के लिए मजबूर कर दिया. इसका नेतृत्व 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह' ने किया था. यह संगठन 2011 में पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या करने वाले मुमताज कादरी के कट्टर अनुयायियों से तैयार हुआ है. संख्या के लिहाज से पाकिस्तान में बरेलवी काफी मजबूत हैं, लेकिन उनका इतना राजनैतिक असर नहीं है, जितना वहाबियों, देवबंदियों और अहल-ए-हदीस जैसी जमातों का. इन सभी जमातों को 1980 के अफगान जेहाद के जमाने से ही फौज की सरपरस्ती हासिल रही है और इसके बाद उन्होंने जम्मू-कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद में भागीदारी कर अपनी स्थिति और मजबूत की है. हो सकता है कि बरेलवी अब लगातार अपने को हाशिए पर जाते और ताकत कम होते महसूस कर रहे हों. ऐसे में, हाल में सड़क पर अपनी ताकत दिखाकर उन्होंने बड़े राजनैतिक परिदृश्य में अपनी धमक की घोषणा कर दी है. मुख्यधारा की राजनीति में इस्लामी तत्वों के एकाधिकार—जो पहले जमात-ए-इस्लामी और जमीयत उलेमा-ए-पाकिस्तान के पास थे—को अब बरेलवी चुनौती देंगे.

Advertisement

अपरिहार्य रूप से इस नई राजनैतिक ताकत के उभार ने पाकिस्तानी फौज की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं. संभव है कि वहां किसी ऐसे चाणक्य की भूमिका हो जिसका लक्ष्य अगले चुनाव तक शरीफ और उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा कमजोर करना हो. हालांकि पाकिस्तान में जिस तरह से वहाबी या देवबंदी संगठनों की आतंकी हिंसा जारी है, उसकी वजह से खुद पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान ने इनके विकल्प पर विचार करना शुरू किया है और बरेलवियों के उभार को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है. किसी भी सूरते-हाल में बरेलवी का उभरना 2017 में पाकिस्तान के इतिहास को मिलने वाली दीर्घकालिक वसीयत हो सकती है.

साल 2017 की एक गैर राजनैतिक घटना को भी याद करना जरूरी है, जिसके व्यापक निहितार्थ हो सकते हैं. पाकिस्तान इस साल में फिर से जनगणना के इतिहास में शामिल हुआ है और करीब दो दशक के बाद देश भर में जनगणना हुई है. 2007-2015 के दौरान पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा की हालत में गिरावट को देखते हुए यह एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक और राजनैतिक उपलब्धि है. हालांकि जनगणना का नतीजा आश्चर्यजनक रहा. 1998 और 2017 के बीच जनसंख्या में सालाना औसतन 2.4 फीसदी की बढ़त हुई. संक्षेप में कहें तो जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश के उपाय काफी कारगर रहे हैं. हालांकि 20.7 करोड़ की विशाल जनसंख्या के इस देश और पूरे क्षेत्र के लिए मजबूत निहितार्थ हैं. पाकिस्तान अब दुनिया का पांचवां बड़ा देश है, लेकिन अर्थव्यवस्था के लिहाज से यह दुनिया का 40वां बड़ा देश ही है. ऐतिहासिक रूप से देखें तो यह तुलना काफी दिलचस्प नतीजे देती है. 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की जनसंख्या पश्चिमी पाकिस्तान से ज्यादा थी. आज बांग्लादेश की जनसंख्या पाकिस्तान से 3 करोड़ कम है.

Advertisement

पाकिस्तान का बाहरी वातावरण प्रतिकूल ही है, भारत और अफगानिस्तान के साथ उसके रिश्तों में उथल-पुथल जगजाहिर है. सऊदी अरब और ईरान के बीच और गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल के देशों के बीच खींचतान एक और अनिश्चितता का धु्रव बना रही है. लेकिन सबसे नाटकीय बदलाव तो अमेरिका के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में आया है. राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में पाकिस्तान की अफगान और भारत नीतियों तथा आतंकवादी संगठनों को उसकी ओर से दिए जाने वाले संरक्षण को अमेरिका ने सख्ती से नामंजूर कर दिया है और उस पर दबाव भी बढ़ाया है. राष्ट्रपति ने 2018 के अपने पहले ट्वीट से न केवल 2017 का सार पेश किया, बल्कि यह खाका भी पेश किया कि आगे क्या होने जा रहा है. 2017 में पाकिस्तान की प्रतिक्रिया यह रही कि सार्वजनिक तौर पर अक्खड़पन दिखाते हुए खामोश राजनयिक प्रयासों से अफगानिस्तान में अमेरिकी अपेक्षा कम से कम आधी ही पूरी हो जाए. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के नवीनतम आक्षेप से तो ऐसा लगता है कि यह रवैया भी कारगर नहीं हुआ.

दूसरी तरफ, अमेरिका के खिलाफ अवज्ञा के तेवर अपनाने के लिए घरेलू स्तर पर बन रहे दबाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. 2017 निश्चित रूप से ऐसा साल था, जब पाकिस्तान ने करीब डेढ़ दशक के बाद सबसे ज्यादा दबाव महसूस किया, लेकिन 2011 की घटनाओं को याद करना महत्वपूर्ण है—पाकिस्तान-अमेरिका संबंधों में एक और भयावह वर्ष—जब रेमंड डेविस का प्रकरण हुआ, ओसामा बिन लादेन को मारा गया और नाटो के हमले में 20 पाकिस्तानी फौजी मारे गए. इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने लंबे समय तक अफगानिस्तान में नाटो के सप्लाई रूट को बंद रखा. इससे यह बात रेखांकित हो गई कि ऐसे देश से निपटना कितना मुश्किल है, जिसकी जनसंख्या 20 करोड़ है, जो न्यूक्लियर पावर है और जिसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे अलग-थलग नहीं किया जा सकता.

Advertisement

अमेरिकी दबाव बढ़ रहा है और भारी साबित हो रहा है, जिसके बाद पाकिस्तान अपने को बचाए रखने के लिए रूस और चीन के खेमे में शामिल हो सकता है और उसी के मुताबिक अपना कार्ड खेल सकता है. हालांकि उसकी घरेलू परिस्थितियां भी न सिर्फ भारत और अमेरिका बल्कि चीन के साथ बाहरी रिश्ते को प्रभावित करेंगी. यह मानना मुनासिब है कि 2018 चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के लिए परीक्षा का साल होगा. यह हकीकत है कि पाकिस्तानी फौज से मिल सकने वाले सहयोग के बावजूद, ऐसे बड़े प्रोजेक्ट को लागू करने में स्थिर सियासी माहौल की जरूरत होती है.

पाकिस्तान में संभवतः ज्यादातर लोग यह मान रहे हैं कि अमेरिका और भारत अब मिलकर काम कर रहे हैं. कश्मीर केंद्रित आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन को अगस्त 2017 में वैश्विक आतंकी संगठन घोषित करने के बाद इस तरह की धारणा और मजबूत हुई है. भारत के साथ भी पाकिस्तान के रिश्ते ठंडे हैं, नियंत्रण रेखा पर नियमित टकराव, वीजा की संख्या में कटौती और जहर भरी बयानबाजी की वजह से इसमें और गिरावट ही आई है.

2008 के मुंबई आतंकी हमलों की वर्षगांठ से कुछ दिनों पहले ही जमात-उद-दावा (जेयूडी) प्रमुख हाफिज सईद की रिहाई इस बात का प्रतीक थी कि भारत के साथ उसके रिश्तों की दुविधा हल नहीं हो पाई है. यह सब बार-बार दोहराया जाने वाला एक परिचित पैटर्न ही है, लेकिन जैसा कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों में होता रहा है, उसमें हमेशा कुछ नया होता है. पाकिस्तान की जेल में आतंकवाद के आरोप में बंद किए गए कुलभूषण जाधव को सैन्य अदालत ने मौत की सजा सुनाई. उसके बाद भारत का अंतरराष्ट्रीय अदालत पहुंचना इसी तरह का एक नया घटनाक्रम है. ज्यादातर पाकिस्तानियों के लिए जाधव केस का महत्व इस मायने में है कि इससे पाकिस्तान भी उसी तरह से भारत पर आतंकवाद को शह देने का आरोप लगा पाया है, जिस तरह से भारत अब तक पाक पर लगाता रहा है. इस मसले पर भारत और पाकिस्तान, दोनों जगहों की बहस इस बात के इर्दगिर्द है कि दशकों से भारत जिस द्विपक्षीय रिश्ते से बंधना पसंद करता रहा है, अब उससे दूर जा रहा है. भारत आज दुनिया से संपर्क रखने के मामले में किस तरह का आत्मविश्वास दिखा रहा है, जबकि पाकिस्तान के रवैए से लगता है कि वह संदेह और बंद मानसिकता का शिकार है.

Advertisement

साल का आखिर चिंताग्रस्त पाकिस्तान के 70 साल पूरे करने के साथ हुआ. आम चुनाव करीब है, लेकिन सिविल-मिलिटरी का पेच उलझा ही है. राजनैतिक मारकाट ने मुख्यधारा के किसी भी राजनैतिक दल या नेता को नहीं बख्शा है. उनकी घटती विश्वसनीयता ने विभिन्न जमात के इस्लामी संगठनों—देवबंदी, बरेलवी और कई तरह के चरमपंथी संगठनों जैसे जेयूडी आदि को ज्यादा जगह मुहैया कराई है कि वे खुद को मुख्यधारा में स्थापित कर सकें. चुनाव ऐसे माहौल में होगा जब पाकिस्तान की फौज सियासत के केंद्र में लौट रही है. घरेलू मोर्चे पर जवाबदेही बनाम नागरिक सर्वोच्चता एक दूसरे से टकराएंगी, जिसे क्रमशः इमरान खान और शरीफ परिवार ने प्रचलित किया है. इन सबके बावजूद, 2018 के मध्य में होने वाले चुनाव महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इससे जो ढांचा तैयार होगा, उससे खुलासा होगा कि आगे भारत के लिए क्या चीजें आकार ले सकती हैं.

भारत के लिए 2018 नेपाल में हुए 2017 के चुनाव और 2019 में उसके अपने आम चुनाव के बीच का साल है. इस साल पाकिस्तान, भूटान और संभवतः मालदीव में चुनाव होंगे. बांग्लादेश में जनवरी 2019 में और अफगानिस्तान में भी संसदीय चुनाव होंगे. इन सभी देशों में अपनी तरह के मसले और चुनौतियां हैं. ये सभी देश हम पर नजर रखेंगे और उस इबारत को पढऩे की कोशिश करेंगे जिस पर हम चल रहे हैं. भारत के लिए विकल्प, खासकर पाकिस्तान के साथ, कठिन ही बने रहेंगे और उसे कई खराब विकल्पों में से ही चुनाव करना पड़ेगा. लेकिन मई 2014 को याद करना उपयोगी होगा, जब कई तरह के चुनावी बदलावों ने राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में नई सरकार के शपथग्रहण के समय दक्षिण एशिया की एकजुटता को प्रदर्शित किया था. इतिहास में वापस लौटना निश्चित रूप से कोई विकल्प नहीं है. लेकिन किसी नई इबारत को लिखने की कोशिश में पीछे मुड़ के देखने में कोई बुराई नहीं है.

Advertisement

कुछ भी हो, साल 2017 के अंत में बैंकॉक में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की 'गोपनीय' मुलाकात इस बात को रेखांकित करती है कि दक्षिण एशिया की पुरानी इबारतों को अस्थायी रूप से तो आप एक किनारे रख सकते हैं, लेकिन हमेशा के लिए दफन नहीं कर सकते.

टी.सी.ए. राघवन पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रह चुके हैं

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement