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पाकिस्तान के नए सरताज इमरान खान, सियासी राह नहीं होगी आसान

दहशतगर्दी में उलझे और कर्ज में डूबे मुल्क की कुर्सी संभालने की तैयारी में इमरान खान क्या बेहद ताकतवर फौजी हुक्मरानों की निगहबानी में हालात बदल पाएंगे?

आमिर कुरैशी/एएफपी आमिर कुरैशी/एएफपी
मंजीत ठाकुर/संध्या द्विवेदी
  • पाकिस्तान,
  • 06 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 3:11 PM IST

उम्मीद है कि असद उमर पाकिस्तान के अगले वित्त मंत्री होंगे. उमर ऊंचे कद के मगर बेहद तौलकर बोलने वाले इनसान हैं. अपने चुटीले ट्वीट के लिए मशहूर, पाकिस्तान की सबसे बड़ी कंपनी के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी और इमरान की इनर सर्किल के मुख्य आर्थिक सलाहकार उमर ने पिछले हफ्ते चुनाव वाले दिन वोट खत्म होने से कुछ घंटे पहले एक छोटे-से ट्वीट से तहलका मचा दिया, "पाकिस्तानियों ने टॉस जीत लिया है और बैटिंग का फैसला किया है.''

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उमर का पूरे भरोसे से क्रिकेट के जिक्र वाला यह ट्वीट वायरल हो गया. जाहिर है, इशारों-इशारों में वे अपनी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के चुनाव चिह्न क्रिकेट का बल्ला और अपने देश के सबसे लोकप्रिय बल्लेबाज की जीत का ऐलान कर रहे थे.

प्रधानमंत्री बनने के इंतजार में इमरान अहमद खान नियाजी ने ठीक 26 साल चार महीने पहले 1992 के क्रिकेट विश्वकप फाइनल मुकाबले में मेलबोर्न क्रिकेट स्टेडियम में इंग्लैंड के खिलाफ बल्लेबाजी का फैसला किया था और कामयाब रहे थे.

वजीर-ए-आजम की भूमिका से पहले

पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की कप्तानी से लेकर तीन-तीन शादियां करने और मुल्क का वजीर-ए-आजम बनने तक के सफर में इमरान खान ने काफी जमीन नापी है.

वे एक बार फिर पिछले हफ्ते तमाम तरह की गड़बड़ियों वाले पाकिस्तान के दसवें आम चुनावों में (लोगों के जेहन से गड़बडिय़ों की बात कुछ ज्यादा ही तेजी से गायब होती जा रही है और इसका श्रेय बिखरे विपक्ष और चुनावों की निष्पक्षता को लेकर अंतरराष्ट्रीय/स्थानीय पर्यवेक्षकों की मोटे तौर पर सहमति को जाएगा) जीत के बाद उसी मुकाम पर खड़े हैं.

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पाकिस्तान के हालात ठीक नहीं हैं और इमरान खान को तो मुश्किल से ही रू-ब-रू होना है. ब्लूमबर्ग के अनुसार, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था 5.2 प्रतिशत की धीमी रफ्तार से डूबने के कगार पर है—बढ़ता आयात और कर्ज, चालू खाते के लगभग 50 फीसदी घाटे से भुगतान संतुलन का गहराता संकट, पिछले साल इसके शेयर बाजार का दुनिया में सबसे खराब प्रदर्शन, एशिया में सबसे ज्यादा तेजी से गिरता विदेशी मुद्रा भंडार (पिछले साढ़े तीन साल के सबसे कम स्तर पर है), मुद्रा का लगातार अवमूल्यन (दिसंबर से अब तक चार बार), प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बमुश्किल ही कोई हलचल (वित्त वर्ष 18 में महज 0.8 फीसदी यानी 2.77 अरब डॉलर जिसे शायद ही कोई वृद्धि मानना चाहेगा), पानी और बिजली का गहराता संकट, और तेजी से युवा होते देश में अशिक्षा और बढ़ती बेरोजगारी जैसी समस्याओं से निजात के लिए बुनियादी ढांचे में किसी चमत्कार की ही जरूरत होगी.

इतना ही क्यों, अमेरिका के साथ बढ़ती खटास, लगभग हर पड़ोसी के साथ खत्म होते रिश्ते, संकीर्ण पश्चिम एशिया नीति, पुराने दोस्त तथा नए फाइनेंसर चीन के साथ वित्तीय पारदर्शिता और संतुलन का अभाव और पश्चिमी प्रांतों में छिट-पुट आतंकी और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं, पश्चिमी सीमा पर पैठ जमाता आइएसआइएस का नेटवर्क, अफगान-तालिबान पर घटता असर और देश की हर संस्था पर पाकिस्तानी फौज का गहराता साया—पाकिस्तान में जिधर नजर डालें, मुश्किलों में घिरा नजर आता है.

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कोई आश्चर्य नहीं है कि इमरान की जीत का उत्साह ठंडा होने से पहले ही देश में चर्चा अब दो विषयों पर केंद्रित हो गई है—उनके नए पाकिस्तान को कौन और कैसे चलाएगा. ये बातें इमरान के काम को दुनिया में न सिर्फ सबसे मुश्किल बल्कि सबसे खराब बनाती हैं.

आर्थिक संकट

अपनी जैसी अन्य विकासशील अर्थ-व्यवस्थाओं की तरह पाकिस्तानी आंकड़ों को ज्यादा तरजीह नहीं देते. सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार में बिजनेस पर महज दो ही पन्ने हैं, तो प्रमुख उर्दू अखबार में एक पन्ना कारोबार के लिए रखा गया है; कोई साप्ताहिक या मासिक बिजनेस अखबार या मैग्जीन बहुत प्रचलन में नहीं है; ज्यादातर न्यूज चैनलों के आर्थिक डेस्क से कहीं ज्यादा स्टाफ तो मनोरंजन या फिर खेल डेस्क पर हैं; देश के दो बिजनेस चैनलों में से एक ने नए सिरे से अपनी ब्रांडिंग की और अब खुद को हेडलाइन न्यूज देने वाला चैनल बताता है, जबकि दूसरे चैनल पर कुकिंग और फैशन शो चलने लगे हैं.

यहां तक कि चुनावी साल में भी स्थानीय सुरक्षा और क्षुद्र स्वार्थों में उलझी यहां की राजनीति में, अर्थव्यवस्था को लेकर तब तक चर्चा नहीं हुई जब तक कि देश की मोटी आसामियों और उनके प्राइवेट जेट का जिक्र नहीं आया (या, फिर नवाज शरीफ के परिवार और लंदन में उनकी संपत्तियों पर चर्चा के दौरान ही आया).

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किसके हाथ बागडोर

पाकिस्तानी फौज के मुखिया कमर जावेद बाजवा. क्या इमरान फौजी हुक्मरानों का हनीमून पांच साल टिकेगा?

हालांकि, इमरान की जीत ने, और यहां तक कि जीत की तरफ उनके बढ़ते दिखने के दौरान भी, वित्तीय बाजारों और मीडिया को अभूतपूर्व तरीके से प्रभावित किया है.

सुप्रीम कोर्ट पिछले कुछ महीनों में रॉबिनहुड की तरह उद्धारकर्ता बनकर उभरा है, जिसने इमरान की जीत के लिए रास्ता बनाने और प्रतिद्वंद्वी नवाज शरीफ को ध्वस्त करने में अहम भूमिका निभाई है.

इसकी ऐक्टिविस्ट बेंच ने बांधों के लिए राष्ट्रीय निधि शुरू करने, चीनी और पेट्रोल की कीमतों पर अंकुश लगाने, हृदय में लगने वाले स्टेंट की गुणवत्ता नियंत्रण जैसे विषयों पर भी फैसले सुनाए—वैश्विक तेल और वस्तुओं की कीमतों को लेकर खरी-खोटी सुनाई.

बेशक, इमरान से भी आशा की जाएगी और उन्हें इसके लिए मजबूर भी किया जा सकता है कि वे लोकलुभावनवादी लहर की सवारी करें. याद रहे इमरान खान भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची और भाई-भतीजावाद के खिलाफ लगभग एक दशक तक आक्रामक रुख दिखाने वाले मुख्यधारा के एकमात्र नेता के रूप में खुद को पेश करके ही, सत्ता का सफर तय करने में कामयाब रहे हैं.

शरीफ परिवार के उलट वे अस्पतालों और लोगों के हालात सुधारने पर जोर देते हैं, हेलीपैड और हाइ-स्पीड ट्रेन पर नहीं. चुनाव से पहले, वही एकमात्र नेता थे जो एक प्रेरणादायक लेकिन बहस के लायक अमेरिकी-स्टाइल वाली ऐसी "100 दिनी योजना'' के साथ आए जिसका सबसे बड़ा आकर्षण था दो करोड़ नौकरियों के लिए बुनियादी माहौल तैयार करना.

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लक्ष्य मुश्किल तो है, लेकिन पाकिस्तान की बढ़ती युवा आबादी, अंधाधुंध शहरीकरण और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के साथ सेवा क्षेत्र के विकास की भरपूर संभावना को देखते हुए, यह नामुमकिन भी नहीं लगता.

कई शादियों का तमगा

इस साल फरवरी में रुहानी सलाहकार से बीवी बनीं बुशरा वट्टू के साथ निकाह के दौरानः जनवरी 2015 में बीवी रेहम के साथ

फिलहाल तो बाजार को भी इमरान पसंद आ रहे हैं. चुनाव के बाद उनके 29 मिनट के भाषण को पिछले कई दशकों में बेहतरीन भाषण माना गया जिसमें सरल और शानदार तरीके से बिना टेलीप्रॉम्प्टर का सहारा लिए उन्होंने सभी महत्वपूर्ण पक्षों पर सधी बात की.

इससे शेयर बाजार में छह फीसदी का इजाफा हुआ और वह 2,500 अंक चढ़ा तथा पहली बार डॉलर में गिरावट दर्ज की गई.

जे.एस. ग्लोबल के कॉर्पोरेट रिसर्च प्रमुख सैयद आतिफ जफर कहते हैं, "भाषण पर, बाजारों को इस तरह की प्रतिक्रिया देते हमने पहले कभी नहीं देखा था. इमरान के भाषण में कहीं टकराव वाली बात नहीं थी. उनकी बातों में पर्याप्त स्पष्टता थी, इसी कारण बाजार ने तेजी दिखाई.

भारत के साथ शांति और व्यापार, अमेरिका के साथ रिश्तों को सामान्य करने, ईरान के साथ स्थिरता, किफायतसारी की बात...उन्होंने लगभग हर मसले को छुआ और देश में आत्मविश्वास का माहौल बनाया.''

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पहला चुनाव प्रचार

2002 की चुनाव रैली में पहली बीवी जेमिमा के साथ (बाएं) 1987 में दुबई के शारजहां कप में

फिर भी, रुपये में सुधार का इंतजार है और चुनाव के पांच दिनों बाद केंद्र और पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रांत पंजाब, जहां शरीफ अब भी खतरा बने हुए हैं, के बीच गठबंधन कायम करने की इमरान की कोशिशों के कारण बाजार अब हिचकोले खा रहा है.

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इमरान इस्लामाबाद से शासन की बागडोर संभालेंगे और चार में से कम से कम दो प्रांतीय राजधानियों में भी उनका ही दबदबा होगा. इसके साथ बड़े ओहदों पर बैठे अपने रईस दोस्तों की मदद से वे पाकिस्तान को आखिरकार सही रास्ते पर लेकर आएंगे.

इस्लामाबाद स्थित वेंचर कैपिटलिस्ट फैसल आफताब कहते हैं, "सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, सभी उभरते बाजार दबाव में हैं, लेकिन चीन द्वारा समय पर मिले दो अरब डॉलर के कर्ज और इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक के साढ़े चार अरब डॉलर के तेल भुगतान भत्ते की बदौलत, अर्थव्यवस्था पर बना दबाव कुछ कम हो जाएगा और आइएमएफ से कर्ज मिल जाता है तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में बहुत सहूलियत हो जाएगी.''

सऊदी बादशाह से भी जल्द ही कुछ अरब डॉलर की मदद मिलने की उम्मीद है. इससे बाजार में अतिरिक्त नकदी आएगी. तीन दशक में बारहवीं बार आइएमएफ की सहायता मिलना भी लगभग तय ही दिखता है. ब्लूमबर्ग के मुताबिक, जून 2013 से बाहरी कर्ज और देनदारी 76 फीसदी बढ़कर 100.6 खरब रुपये (92 अरब डॉलर) हो गईं जिससे सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 31 प्रतिशत तक बढ़ गया जो पिछले पांच साल में सर्वाधिक है.

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आइएमएफ का अनुमान है कि पाकिस्तान के कर्ज में वृद्धि जारी रहेगी क्योंकि अगले दो वर्षों तक उभरते बाजारों में से इसे जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सबसे ज्यादा सहायता की जरूरत होगी. जाहिर है, इससे पाकिस्तान को आइएमएफ की शरण में अभी और जाने की जरूरत पड़ सकती है.

उधार के आसरे रहने के खिलाफ विचार रखने के बावजूद असद उमर, जिन्हें संभावित विदेश मंत्री के रूप में भी देखा जाता है, ने अपनी पार्टी की जीत के तीन दिन बाद फिर से ट्वीट किया. उसमें उन्होंने साफ  संकेत दिया कि आइएमएफ को विकल्प के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता.

लेकिन अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पे ने सीएनबीसी को दिए हालिया इंटरव्यू में चेताया कि आइएमएफ द्वारा इस्लामाबाद को दी गई सहायता "तर्कसंगत'' नहीं होगी, अगर पाकिस्तान उस पैसे का इस्तेमाल अपने बाजार को मजबूती देने के प्रयासों के बदले बीजिंग का कर्ज चुकाने मं  करता है.

इमरान के सरकार की जवाबदेही तय करने और फिजूलखर्ची की जगह संयम अपनाने (उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री के लिए बने महल की जगह एक छोटे-से बंगले में ही रहेंगे) की घोषणा के बावजूद कैबिनेट का आकार, चीन, अमेरिका और भारत के साथ भविष्य के रिश्ते और निश्चित रूप से, रावलपिंडी के सेना मुक्चयालय में बैठे जनरलों के साथ तालमेल बिठाना, कुछ ऐसे प्रमुख प्रश्न हैं जिनसे उन्हें जूझना होगा.

खानों के खान

मंगोलिया में मूल, तुर्की में कान, फारसी में कागन, साइबेरियाई में कयान और हिंदुस्तान में खान साहब कहे जाने वाले खान को वोट देकर सत्ता में पहुंचा दें या फिर उन्हें सत्ता से बेदखल कर दें, इमरान के नाम के साथ लगा खान प्रेरित करने वाला है जिसका शाब्दिक अर्थ है, नेतृत्व करने वाले. लेकिन पाकिस्तान में सत्ता का खिताब और नाम के साथ ताल्लुक कम (शरीफ का मतलब अरबी में "सच्चा, ईमानदार'' है, और देखें उनका क्या हश्र हुआ) ताकत के साथ ताल्लुक ज्यादा रहता है. यहां ताकत का अर्थ पाकिस्तानी फौज समझें.

बात पाकिस्तान के आगामी प्रधानमंत्री के फौज के हुक्मरानों से रिश्तों की आती है, तो तीन तरह के विचार चर्चा में  हैं.

सबसे पहले आते हैं संघर्ष सिद्धांतवादी, जिनका मानना है कि इमरान खान अपनी फितरत के इनसान हैं, बेहद बेसब्र तथा अव्यावहारिक हैं और वास्तव में 2023 में जब तक उनका पांच साल का कार्यकाल पूरा होगा, उस बीच पाकिस्तान में तीन फौज प्रमुखों (एक सेना प्रमुख का कार्यकाल तीन साल मानकर चला जाए तो उनके कार्यकाल में तीन चीफ तो होंगे) के साथ काम करना होगा.

ऐसे में लगता नहीं कि वे इतना लंबा टिक भी पाएंगे. ऐसा विचार रखने वालों के तर्क व्यक्तित्व विश्लेषण पर आधारित हैं, लेकिन एक पूर्व राजदूत और वायु सेना में एयर वाइस मार्शल रहे शहजाद ए. चौधरी जैसे लोग ऐसे विचारों को वाहियात करार देते हैं. वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि खान उनके "अपने आदमी'' साबित होंगे.

आइएसआइ, विदेश कार्यालय, राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र, संसद—सबको एक आम सहमति के बिंदु तक रजामंद करने की काबिलियत उनमें है. वे पाकिस्तान का आदमी बनने जा रहे हैं, न कि किसी ग्रुप का आदमी. इसके अलावा, उनके पास बहुत ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं. हमारे हालात ऐसे हैं कि चाहे मुफ्ती हो या खाकी, हम सबको सहयोग करना ही होगा.''

फिर आते हैं कठपुतली अवधारणा वाले जो खान को रावलपिंडी का पिट्ठू भर मानते हैं. उनका मानना है कि खान की 1996 से लेकर पिछले सप्ताह तक की सारी कामयाबी की पृष्ठभूमि कहीं और तैयार हुई है इसलिए वे फौज की छावनियों से निकले आदेशों पर बिना किसी हीला-हवाली के अमल करते नजर जाएंगे. जाहिर है, इस ख्याल वाले लोगों की हालिया राजनैतिक इतिहास, खासतौर से उत्तर-पश्चिमी खैबर पख्तूनख्वा के बारे में जानकारी दुरुस्त नहीं है जहां फौज के साथ हितों के टकराव के बाद मनमुटाव हुआ.

आखिरकार खान के प्रांतीय प्रशासन ने ही इस स्थिति को बेहतर तरीके से संभाला. न ही इन लोगों को मुशर्रफ की हुकूमत के दौर में भी तनातनी के बीच खानों के अडिय़ल मिजाज के इतिहास की कोई जानकारी है.

और अंत में आते हैं व्यावहारिक सोच वाले. उनका मानना है कि खान और फौज मुख्यालय के बीच वास्तविक और मौलिक तालमेल है. दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक रहे हैं और इससे पाकिस्तान में फौज और अवाम के बीच की खाई को पाटने में सहूलियत होगी.

वी सी मैक्रो विश्लेषक फैसल आफताब कहते हैं, "आप इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो पाकिस्तान की प्रमुख सियासी शख्सियतें—भुट्टो, शरीफ, वगैरह—कभी न कभी फौज की आंखों के तारे रहे हैं. अब आपको 10 वर्षों में पहली बार फौज और राजनैतिक सरकार के बीच तालमेल नजर आएगा. इससे अहम फैसलों पर आपसी रजामंदी कायम करने में सहूलियत होगी और सियासी स्थिरता आएगी, जिसका फायदा यह होगा कि मुल्क की माली हालत दुरुस्त होगी और मुल्क बेहतरी की ओर जाएगा.''

खान के फौज के जनरलों के बेहद करीब होने की छवि की परेशानी को लेकर सेना के एक उच्च पदस्थ अधिकारी भी बहुत स्पष्ट और आशावादी दिखते हैं. नाम जाहिर न करने की शर्त पर वे कहते हैं, "चुनाव के दरम्यान खान को सेना की सरपरस्ती के विवाद का मकसद था खान की नैतिकता पर सवाल खड़े करके उन्हें घुमाने वाला एक लीवर तैयार करना जिसका इस्तेमाल चुनावों के बाद किया जा सकता था.

बहरहाल, खान अपने तरीके से काम करते हुए धारणाओं के इस दलदल से खुद को आसानी से बाहर निकाल लेंगे. हरेक नए राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक नेता को शुरुआत में इन बातों का सामना करना ही पड़ता है इसलिए इसमें परेशानी की खास बात नहीं है. उनकी शुरुआती कामयाबी और अवाम का उन पर भरोसा खुद-ब-खुद ऐसे सभी एजेंडे को खारिज कर देगा.''

थोड़ा पीछे लौटें और दिमाग पर जोर दें तो आपको खान और सेना के ताल्लुकात का अंदाजा हो जाएगा. मुशर्रफ-बुश के जमाने में अमेरिका विरोध के एक छोटे-से दौर में (जब उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था) खान ने कभी भी फौज की मुखालफत नहीं की है या मुल्क से जुड़े किसी भी अहम मसले पर फौज के साथ टकराव का रास्ता अख्तियार नहीं किया है.

इस देश के इतिहास से जुड़े गंभीर मसलों पर लोगों का ध्यान खींचने में जाने-अनजाने जो भी हो, पर वे औरों से दो कदम आगे सोचते रहे हैं. जिस दौर में कोई भी ड्रोन को बुरा नहीं मानता था, उस जमाने में वे ड्रोन की मुखालफत करते थे (सेना ने जिस तरह इसका इस्तेमाल किया है उसे देखते हुए आज हर कोई ड्रोन से नफरत करता है).

जब कोई तालिबान का नाम नहीं सुनना चाहता था तब वे तालिबान के साथ बातचीत शुरू करने के पक्ष में खड़े थे (आज हर कोई तालिबान के साथ बातचीत का पक्षधर है कम से कम अफगान विंग तो जरूर है).

और भावी प्रधानमंत्री के रूप में अपने नए अवतार में, उन्होंने भारत के बारे में वही कहा जो पाकिस्तान का कोई बड़ा हुक्मरान अपने दरबार से कहता हैः हम कश्मीर मुद्दे को लेकर गंभीर हैं, बातचीत से इस मसले को सुलझाने की कोशिश होनी चाहिए, हमें भी बराबरी और इज्जत के साथ उस मुद्दे में साझीदार मानें, और आपको अमन का रास्ता दिखने लगेगा.

लाहौर की ऐतिहासिक अप्रैल रैली, जिसने पंजाब को आंदोलित कर दिया था, से कुछ दिन पहले मैंने उनसे सेना के साथ करीबी ताल्लुकात को लेकर सवाल पूछा था.

खान ने मुझे अपने इस आखिरी साक्षात्कार में कहा, "आप इसे सही मायने में नहीं समझ पाए हैं.

सीआइए और पेंटागन अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ खड़ा रहता है. रक्षा मंत्रालय और एमआइ6 ब्रिटिश पीएम का साथ देते हैं. अगर पाकिस्तान का सेना मुख्यालय मेरे या इस्लामाबाद की कुर्सी पर बैठे किसी के साथ खड़ा होता है तो इसमें गलत क्या है?''

लेकिन जब उन्हें यह महसूस हुआ कि मैं उनकी बात से इत्तेफाक नहीं रखता तो उन्होंने बात का रुख बदलते हुए इसे कामकाज के तौर-तरीकों के साथ जोड़ा. "जाहिर है कई बार वे ऐसे दायरे में आ गए, जहां उनके होने की उम्मीद नहीं की जाती.

ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि सियासत ने ही ऐसी सूरते-हाल पैदा की थी और दूसरी हुकूमतों ने भी ऐसे ही हालात बना दिए. आप एक अच्छी हुकूमत दें तो न कोई जगह खाली रहेगी और न कोई खाली जगह भरने की कोशिश करेगा.''

नई पारी

2008 में जब मैंने पहली बार उनका इंटरव्यू लिया था, तब से लेकर अब तक वे पक्चतूनों के बदनाम लेकिन कबायली जिरगा (जूरी) व्यवस्था के साथ खड़े रहे हैं और पाकिस्तान के कबायली इलाकों में अमेरिका की शह पर सैन्य तैनाती की मुखालफत करते रहे हैं.

तब से अब तक हम जितनी बार मिले हैं, आतंकवाद और उससे लड़ाई पर उनके पक्ष में मामूली बदलाव आया है. इस मामले में उनका नजरिया लगातार विकसित हुआ है-काफी हद तक जैसे बॉल फेंकने से पहले उनकी मशहूर रन-अप और लीप धीरे-धीरे विकसित हुई थी, ज्यादा पैनी, ज्यादा आकर्षक और ज्यादा प्रभावी.

फिर भी उदारवादी और अंतरराष्ट्रीय जगत में तालिबान समर्थक कहकर उनकी आलोचना की जाती है. "तालिबान खान'' की चर्चा अब भी होती है, लेकिन अब यह सिर्फ  अमेरिकी संपादकीयों, लाहौर के ड्रॉइंग रूम और कराची के ब्लॉग तक सीमित है.

खैबर पख्तूनख्वा की अपराध और आतंक रोकने में नाकाम पुलिस उनकी राह में और रोड़े डालती है, लेकिन खान को इसे लेकर कोई ग्लानि नहीं है. अब वे चरमपंथ से निपटने पर बहस के दौरान श्रीलंका से लेकर सीरिया तक की कई केस स्टडी का हवाला दे सकते हैं.

वे इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी प्रयास को गति देने के लिए साथ-साथ कानून-व्यवस्था, बुनियादी ढांचा और क्षमता निर्माण जरूरी है. स्थानीय समर्थन रखने वाले चरमपंथी संगठनों के हथियारों का खात्मा और उनके साथ संवाद, और आइएसआइएस जैसे अतिवादी आतंकी संगठनों के साथ कोई रियायत न करने जैसे प्रस्ताव रखकर वे वास्तव में अपने समय से काफी आगे हैं. दिलचस्प यह है कि कश्मीर केंद्रित संगठनों के बारे में गहन और रणनीतिक चुप्पी कायम रखते हुए उन्होंने कभी कोई सुर्खियों लायक बयान नहीं दिया है.

रिटायर्ड एयर वाइस मार्शल शहजाद ए. चैधरी कहते हैं, "उनके बारे में गलत धारणा है. वे अब बदल चुके हैं. एक आजाद सियासतदां के तौर पर वे कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र थे. लेकिन अब वे उन सभी चीजों से दूर रह सकते हैं जो विपक्ष में रहते हुए उन्होंने किया था.''

उन्होंने कहा, "एक बार सरकार में आने के बाद आपके पास चीजों को आगे ले जाने की बेहतर जिम्मेदारी होती है. उनके पहले भाषण से इसका संकेत भी मिला है. उनका यह भाषण अलग सुर, अलग धारा का था, जिसमें बहुत ज्यादा जिम्मेदारी की भावना थी. साफ  है कि यह व्यक्ति मेल-मिलाप के लिए तैयार है.''

नाम न जाहिर करने की शर्त पर इस अधिकारी ने कहा, "साफ  कहें, तो खान ने कभी भी दहशतगर्दी का समर्थन नहीं किया है, लेकिन चालाकी से इमरान खान ने उनमें यह उम्मीद जगाई है कि वे मुख्यधारा में आ सकते हैं.''

उन्होंने कहा, "हां, उनकी हंसी उड़ाई गई, लेकिन खैबर पख्तूनख्वा (आतंकवाद से ग्रस्त उत्तर-पश्चिमी इलाका जिस पर खान की पार्टी का शासन है) और फाटा (एफएटीए-अशांत कबाइली इलाका) के चुनाव नतीजे उनकी इस बात की सफलता का प्रमाण हैं कि आतंकवाद के विरुद्ध जंग के कठिन मसले पर वे सियासी तौर पर आगे बढ़ रहे हैं.''

दो कदम, ताओ और ट्रंप

जिस समय यह लेख छपने के लिए जाएगा, तब तक शायद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने फोन कर इमरान को जीत की बधाई नहीं दी होगी. इससे यह अटकलें बढ़ जाती हैं कि नए साल पर डोनल्ड जे. ट्रंप द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ विवादास्पद ट्वीट पर खान की कठोर टिप्पणी को अमेरिका अभी तक भूला नहीं है.

इमरान ने इस ट्वीट को इस बात का "हानिकारक'' और "अपमानजनक'' उदाहरण बताया था कि किस तरह से अफगानिस्तान में "अमेरिकी विफलता'' के लिए पाकिस्तान को "बलि का बकरा'' बनाया जा रहा है.

वैसे तो इमरान खान के मैनिफेस्टो में और चुनाव प्रचार अभियान के दौरान विदेश नीति पर काफी हद तक चुप्पी थी, लेकिन पिछले हफ्ते के उनके विजय भाषण में कूटनीतिक बिंदुओं पर सामरिक और सैन्य हलकों से जबरदस्त तारीफ मिली है.

अभी तक तो यही उम्मीद है कि वे वाशिंगटन में जोशीले युवा राजदूत अली जे. सिद्दीकी को बनाए रखेंगे, जिनकी नियुक्ति पिछली पीएमएल-एन सरकार ने की थी, ताकि अमेरिका के कभी सख्ती, कभी नरमी वाले शासन से निपटा जा सके.

और जहां तक "भारत और अमेरिका की 100 साल तक साझेदारी'' की बात है, इमरान खान इसके लिए अपनी फील्ड कैसे सजाएंगे? नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक सैन्य अधिकारी ने कहा, "भारत आगे आएगा और 2019 के बाद पाकिस्तान के प्रति मोदी का रवैया नरम हो सकता है.

तब तक खान बस भारतीय मीडिया और समाज के विभिन्न वर्गों तक करिश्माई आसक्ति ही बनाए रख सकते हैं और वे भारत को दिए इस संदेश के आधार पर ही आगे बढ़ेंगे, "आप एक कदम आगे बढ़ाएं, हम दो बढ़ाएंगे.''

जहां तक चीन का संबंध है, "ऐसा लगता है कि इमरान खान खुद गरीबी हटाने, अच्छे शासन और भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे के साथ राष्ट्रपति शी की तरह बात कर रहे हैं. क्या यह गलत है?'' सैन्य अधिकारी पूछते हैं.

इसके बावजूद पाकिस्तान ने खेलने और बैटिंग करने का निर्णय लिया. इमरान खान ने अपने को मिडल ऑर्डर से आगे बढ़ाया है और अब वे ओपनिंग करने जा रहे हैं. बेशक, देखना होगा कि वे कितना कामयाब होते हैं.

वजाहत खान एनबीसी न्यूज और द टाइम्स के लिए एमी नॉमिनेटेड कॉरेस्पॉन्डेंट और लाहौर के चैनल दुनिया न्यूज के ऐंकर हैं.

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