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पाकिस्तान चुनावों में मतदान के बाद वोटों की गिनती जारी है. ताजा रुझानों के लिहाज से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान की जनता ने कट्टरपंथी और प्रतिबंधित समूहों को उनके व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद नकार दिया है.
इस बार पाकिस्तान के आम चुनावों में चरमपंथी और प्रतिबंधित समूहों से जुड़े सैकड़ों उम्मीदवार खड़े हुए थे. जिसकी वजह से चुनावों में गड़बड़ी और हिंसा की आशंका जताई जा रही थी. लेकिन पाकिस्तानी मीडिया से मिल रहे ताजा चुनावी रुझानों से राहत भरी खबर है कि प्रतिबंधित संगठनों के ज्यादातर उम्मीदवारों की हार सुनिश्चित है.
2008 मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड हाफिज सईद के समर्थन वाले अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक का कोई भी उम्मीदवार फिर चाहे नेशनल असेंबली हो या प्रांतीय चुनाव में भारी मतों से पीछे चल रहे हैं. बता दें कि हाफिज सईद की पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग को पाकिस्तान चुनाव आयोग से मान्यता न मिलने की वजह से अपने 50 उम्मीदवारों को अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक से खड़ा करना पड़ा था. सईद ने खुद इन चुनावों में जमकर प्रचार किया था.
वहीं हाफिज सईद का बेटा हाफिज तल्हा सईद लाहौर से करीब 200 किलोमीटर दूर सरगोढा की एनए -91 सीट से खड़ा हुआ था जो जमात-उद-दावा के नेता का पैतृक शहर है. सईद का दामाद खालिद वलीद पीपी -167 सीट से खड़ा था.
क्या इमरान एमएमए से समर्थन लेंगे ?
सबसे बड़े धार्मिक समूह मुताहिद मजलिस- ए-अम्ल (एमएमए) के नेता मौलाना फजलुर रहमान ने व्यापक प्रचार अभियान चलाया था लेकिन इसके बावजूद वह नेशनल असेंबली की महज आठ सीटों पर आगे चल रही है. बता दें कि एमएमए राजनैतिक-कट्टरपंथी धार्मिक पार्टियों का गठबंधन है. इस गठबंधन में कई कट्टरपंथी, इस्लामिक और धर्मिक पार्टियां शामिल है. खास बात ये है कि इन्होंने 173 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे.
पाकिस्तान से आ रहे ताजा रुझानों के मुताबिक पूर्व क्रिकेटर इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) सबसे बड़े दल के तौर पर उभरती दिख रही है. लेकिन बहुमत के जादुई आंकड़े 137 से दूर है. ऐसे में इमरान खान को छोटे और निर्दलियों से समर्थन की जरूरत पड़ सकती है.
टीएलपी को भी मुंह की खानी पड़ी !
पाकिस्तान में दूसरे सबसे बड़े कट्टरपंथी समूह तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान (टीएलपी) की बात करें तो टीएलपी ने 100 से ज्यादा उम्मीदवार खड़े किए थे. लेकिन उनमें से कोई भी जीत के नजदीक नहीं पहुंच पाया.
टीएलपी की गठन 2015 में ही हुआ और ये नज़रों में तब आई जब इसके 2,000 से ज्यादा समर्थक और सदस्य 3 हफ्ते तक रावलपिंडी और इस्लामाबाद की सड़कों पर बैठे थे जिसने वहां के जीवन की गति ही रोक दी थी.
उन्हें एक और कट्टरपंथी संगठन ‘पाकिस्तान सुन्नी तहरीक’ का समर्थन हासिल था. और ये ज्वलंत विरोध था ‘खत्म-ए-नुबूमत’ डेक्लरेशन पर.ये दल एक छोटे से बदलाव का विरोध कर रहे थे, जिसे सरकार ने संसदीय उम्मीदवारों के शपथ ग्रहण में एक ‘क्लेरिकल’ गलती का नाम दिया था. जो बदलाव हुआ था वो यह था कि इस तथ्य- पैगंबर मुहम्मद ही असली पैगंबर थे, में ‘मैं शपथ लेता हूं’ कि जगह ‘मुझे विश्वास है’ कर दिया गया था.
वहीं एक और चरमपंथी नेता मौलाना मुहम्मद अहमद लुधियानवी समेत कुछेक उम्मीदवार ही ठीक - ठाक वोट हासिल कर सके हैं. लुधियानवी के संगठन अहले सुन्नत वल जमात का नाम हाल ही पाकिस्तान ने प्रतिबंधित सूची से हटा लिया था.
बहरहाल अगर यह रुझान नतीजों मे तब्दील होते हैं तो 272 सीटों वाली पाकिस्तान की ससंद में हाफिज सईद अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक, हो या फजलुर रहमान की एमएमए या फिर कट्टरपंथी तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान तीनों को ही मुंह की खानी पड़ेगी.