प्रधानमंत्री बनने के करीब छह महीने बाद नरेंद्र मोदी ने आखिरकार एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री की नियुक्ति कर ली है. गोवा के मुख्यमंत्री के तौर पर मनोहर पर्रीकर को अपने काम के प्रति समर्पण, तुरत फैसले करना और ईमानदारी के लिए जाना जाता रहा है. अब उन्हें अपने इन्हीं गुणों का इस्तेमाल सेना की तैयारी और उसके आधुनिकीकरण को गति देने के लिए करना होगा. पर्रीकर के एजेंडे में सबसे पहला काम उन गंभीर खामियों को दूर करना है, जिन्हें मार्च 2012 में जनरल वी.के. सिंह ने प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में रेखांकित किया था.
विभिन्न युद्ध सामग्रियों और जरूरी उपकरणों में बड़े स्तर पर कमियों के कारण युद्ध की तैयारी में गिरावट आई है और युद्ध की दशा में लंबे समय तक टिकने की क्षमता में कमी आई है. बताया जाता है कि सेना के पास गोला-बारूद की कुछ किस्में ऐसी हैं, जो लड़ाई की स्थिति में महज 10 दिन में चुक जाएंगी और इनका भंडार पूरा करने के लिए 19,000 करोड़ रु. का खर्च आएगा.
आधुनिक लड़ाइयां ज्यादातर रात के समय लड़ी जाती हैं, लेकिन ज्यादातर पैदल बटालियनों और बहुत से लड़ाकू वाहन—टैंक और हथियारबंद इन्फैंट्री वाहन—अब भी अंधेरे में लडऩे लायक नहीं हैं. लड़ाकू जहाज, पनडुब्बियां, लड़ाकू विमान, हल्के हेलिकॉप्टर, तोपें, जमीन से हवा में मार करने वाले हथियार, कमांड और कंट्रोल, निगरानी और टोही सिस्टम या तो नाकाफी हैं या पुराने हो जाने के कगार पर हैं.
तीनों सेनाओं की युद्ध संबंधी तैयारियों में कई खामियां हैं. उदाहरण के लिए सेना की कई कोरों के पास तोपों की स्वतंत्र ब्रिगेड भी नहीं है. सेना की युद्ध क्षमता बढ़ाने के लिए इन सब कमियों को जल्द-से-जल्द दूर करना होगा.
सदियों पहले सिसेरो ने कहा था, ''अगर तुरही एक अनिश्चित आवाज दे तो युद्ध के लिए किसे खुद को तैयार करना चाहिए. '' दूसरे बड़े लोकतांत्रिक देशों के विपरीत भारत के पास कोई स्पष्ट और सुविचारित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं है. रक्षा मंत्री को एक ठोस राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने के लिए पहल करनी चाहिए, ऐसी रणनीति, जिसमें आंतरिक सुरक्षा और गैर-पारंपरिक खतरे शामिल हैं, जैसे कि साइबर युद्ध. यह प्रयास विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के आपसी सहयोग पर आधारित होना चाहिए.
साथ ही विभिन्न एजेंसियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए. इसके लिए एक रणनीतिक रक्षा समीक्षा की जानी चाहिए जिसमें भविष्य के संभावित खतरों पर विचार किया जाना चाहिए और उससे निबटने के लिए सेना की क्षमताओं का आकलन किया जाना चाहिए.
लंबे समय से लटके चले आ रहे ढांचागत सुधारों पर मंत्री को तुरंत ध्यान देने की जरूरत है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रक्षा स्टाफ के प्रमुख की नियुक्ति का है. अगला कदम सेना के मौजूद अलग-अलग कमांड को तीनों सेनाओं के एकीकृत कमांड में पुनर्गठित करने का है.
तीसरे साल में चल रही 12वीं रक्षा योजना (2012-17) और पहले से चली आ रही लंबी अवधि की एकीकृत दृष्टिकोण योजना (एलटीआइपीपी 2007-22) को औपचारिक रूप से सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी की मंजूरी नहीं मिली है. इन जरूरी मंजूरियों के बिना रक्षा की जरूरतें तदर्थ वार्षिक आपूर्ति योजना के जरिए पूरी की जा रही हैं, न कि दीर्घकालिक योजना के आधार पर.
सैन्य बलों के आधुनिकीकरण का काम पैसों की कमी, कमजोर रक्षा तकनीकी बेस, रक्षा उपकरण बनाने वाली कंपनियों को काली सूची में डाले जाने और फैसले लेने में काहिली के कारण ठहरा हुआ है. डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसिजर और डिफेंस प्रोडक्शन पॉलिसी जैसी नई नियमावलियों के बावजूद रक्षा आपूर्ति में कई व्यवस्थागत खामियां हैं.
सरकार को रक्षा अनुसंधान और विकास पर अपना एकाधिकार छोड़ देना चाहिए और रक्षा उपकरणों के उत्पादन के लिए धीरे-धीरे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों पर अत्यधिक निर्भरता खत्म करनी चाहिए. हमारा लक्ष्य भारत को युद्धक हथियार व उपकरण बनाने वाला और उनका निर्यात करने वाला देश बनाने का होना चाहिए.
वित्तीय प्रबंधन में भी सुधार की जरूरत है. हमारा रक्षा बजट जीडीपी के 1.8 फीसदी से भी नीचे चला गया है. सेना के आधुनिकीकरण के लिए यह बहुत कम है. चीन और पाकिस्तान का रक्षा बजट उनके जीडीपी का क्रमश: 2.5 और 3.5 फीसदी है. भारत का रक्षा बजट बढ़ाकर 3 फीसदी किया जाना चाहिए. सरकार को आधुनिकीकरण के लिए 1 लाख करोड़ रु. का आवर्ती फंड बनाना चाहिए, जिसकी बची हुई रकम रद्द न होकर आगामी वर्षों की राशि में जुड़ती रहे.
यह सारे सीधे लेकिन बहुत ही दृढ़ निश्चय वाले फैसले होंगे. इसके लिए रक्षा मंत्री के ऊपर प्रधानमंत्री का पूरा भरोसा होना चाहिए और रक्षा मंत्री के पास ऐसी टीम भी होनी चाहिए जो तेजी से बदलाव का खाका खींच सके. पिछली यूपीए सरकार यह सब नहीं कर सकी क्योंकि घोटालों के आरोपों के दबाव में उसने फैसले लेने ही बंद कर दिए थे.
अंत में रक्षा की तैयारी और सेना के आधुनिकीकरण की समीक्षा के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग बनाया जाना चाहिए. यह हमारी युद्धक क्षमता बढ़ाने के लिए व्यावहारिक सुझव देगा—वरना देश को एक अन्य सैनिक शिकस्त का सामना करना पड़ सकता है.
लेखक सेंट्रल फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज़ के पूर्व निदेशक हैं.