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अगर अच्छी मंशा के लिए कोई पुरस्कार होता तो यह रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर को ही मिलता. अठारह माह पहले उन्हें भारत के विशाल सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान और सैन्य बलों को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. उन्होंने ईमानदारी से काम किया-हथियारों के आयात पर निर्भरता कम करने के लिए, स्थानीय स्तर पर हथियार बनाने और सेना को आधुनिक बनाने के लिए उन्होंने सिलसिलेवार कई कमेटियों का गठन कर डाला. अपने पूर्ववर्ती ए.के. एंटनी के मुकाबले ये कदम एक शुभ बदलाव का संकेत थे. समस्या यह है कि डेढ़ साल बीत जाने और तमाम वादों के बावजूद पर्रीकर के हाथ में उपलब्धि के नाम खास कुछ नहीं है. केवल एक अहम सौदा हुआ है-3 अरब डॉलर में अमेरिका से हेलिकॉप्टर गनशिप और मालवाहक हेलिकॉप्टरों की खरीद का. मेक इन इंडिया परियोजना के तहत 7,000 करोड़ रु. की लागत वाली आकाश विमानरोधी मिसाइलों और 3,500 करोड़ रु. की लागत वाली पिनाक मल्टी बैरल रॉकेटों की योजना अब भी अधर में है. वे अपनी अफसरशाही को तेजी से फैसले लेने के लिए अब तक राजी नहीं कर सके हैं. पिछले साल के वन रैंक वन पेंशन के मसले को कामयाबी से अंजाम तक पहुंचाने में उन्हें दिक्कत आने वाली है क्योंकि लंबित सौदों और नीतियों की फाइलों का उनके पास ढेर लग चुका है. वन रैंक वन पेंशन के तहत करीब 8,000 करोड़ रु. की राशि के भुगतान को सबसे पहले पहचानने वाले वे ही थे लेकिन वित्त मंत्रालय और पीएमओ से उन्होंने रार नहीं ठानी, जो कम राशि पर सौदे को निबटाना चाहते थे.
पर्रीकर ने रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने और पारदर्शिता लाने का मन बनाया है. हाल ही में अगस्तावेस्टलैंड विवाद में कांग्रेस पर उनका निशाना साधना प्रधानमंत्री को काफी पसंद आया है, लेकिन अपनी मंशा और उसके क्रियान्चयन के बीच का फर्क खत्म करने पर भी उन्हें ध्यान देने की जरूरत है.