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इंसान भावनाओं का बना होता है, यही इसकी खासियत भी है और शायद अभिशाप भी

इस नाटक को दिल्ली में खूब प्यार मिल रहा है. देश की कई और जगहों पर भी इसका सफल मंचन हो रहा है. जितनी बार मंचन हो रहा है हाउसफुल जा रहा है. ज़ाहिरन किसी नाटक का इस कदर लोकप्रिय होना रंगप्रेमियों के सीने को ठंडक देता है.

नाटक 'डैड्स गर्लफ्रेंड' का एक सीन नाटक 'डैड्स गर्लफ्रेंड' का एक सीन
रोहित
  • नई दिल्ली,
  • 11 अप्रैल 2018,
  • अपडेटेड 5:04 PM IST

इंसान दुनिया से लड़ता है, थकता है, टूट जाता है, मगर हौसला नहीं खोता. जीतने का दंभ भरता रहता है. झूठा या सच दुनिया के सामने मुस्कुराता रहता है. लेकिन मुस्कुराते रहना और खुश होने में बहुत अंतर होता है.

असल में इंसान भावनाओं का बना होता है. यही इसकी खासियत भी है और शायद अभिशाप भी. वह प्रेम और सम्मान का भूखा होता है, लेकिन समाज का दस्तूर कुछ यूं चल पड़ा है कि लोग यहां आपकी भावनाओं को फुटबॉल बनाकर खेल जाते हैं. आप करते रहिए नौकरी, आप बनाते रहिए समाज में प्रतिष्ठा. एक ग़लती, कि आपकी सारी मेहनत पर पानी. जितना आप दुनिया को समझते हैं उनता ही दूर इससे भागते हैं. बेतहाशा. पसीने में लथपथ. दौड़ते जाते हैं किसी ऐसी जगह, जहां सुकून हो शीतलता हो और मन पर कोई बोझ ना हो... आंख खुलती हैं, आप अपना सर प्रेमिका की गोद में पाते हैं. सीने पर रखे उसके कोमल हाथ के स्पर्श मात्र से आपके सारी समस्याएं ओझल हो जाती हैं. प्रेम यही है. इसकी ज़रूरत उस इंसान को सबसे ज़्यादा होती है जो इससे दूर भागता है.

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दिल्ली के नाटककारों में अतुल सत्य कौशिक का बड़ा नाम है. इन्होंने एक नाटक लिखा है 'डैड्स गर्लफ्रेंड'. नाटक मजेदार है और एकदम अलग. वैसे लोगों की पसंद अलग-अलग होती है लेकिन ये अलग है शायद इसीलिए लोग इसे पसंद कर रहे हैं. लेकिन लोग इसे पसंद करें ना करें, मुझे तो यही पसंद है. और इस नाटक का विषय भी यही है. हर इंसान की बनावट, रूप-रंग, पसंद अलग होती है. हो भी क्यों ना, यही तो उसके वजूद का सबसे बड़ा प्रमाण है. हर व्यक्ति अपने आप में अनोखा है. 'डैड्स गर्लफ्रेंड' इसी अनोखेपन की खूश्बू का नाम है.

कहानी

कहानी है एक मशहूर लेखक दिलीप वैद्य की जो अपनी बेटी से मिलने के लिए अमेरिका से दिल्ली आते हैं. बेटी का नाम दिया होता है. उसने अपने पसंद के एक लड़के कनक से शादी कर ली थी जो एक स्ट्रगलिंग थियटर ऐक्टर होता है और लम्बाई में दिया से छोटा होता है. वहीं दिलीप दिल्ली आते तो हैं बेटी से मिलने के लिए लेकिन एक अवनी नाम की लड़की के प्यार में पड़ जाते हैं. अवनी दिलीप से उम्र में बहुत छोटी होती है लेकिन दिलीप और उनकी लिखावट से बेहद मोहब्बत करती है. दोनों तरह के प्यार समाज के ढांचे में फिट नहीं बैठते हैं. इस मुद्दे को अतुल सत्य कौशिक ने बहुत ज़िम्मेदारी के साथ रेखांकित किया है.

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स्क्रिप्ट और डायरेक्शन

लेखक और डायरेक्टर एक हो तो कहानी की दिशा स्पष्ट हो जाती है. वहीं आपके पास अगर सुमन वैद्य जैसा ऐक्टर हो तो बात ही क्या. अतुल सत्य कौशिक का ने नाटक की पृष्ठभूमि समकालीन रखी है. मुद्दे ऐसे उठाए हैं जिनपर सीरियस प्ले तो बहुत आसानी से बनाया जा सकता है लेकिन एक अच्छा मनोरंजक नाटक तैयार करना बहुत मुश्किल है. नाटक में हास्य भरपूर है लेकिन इसे डायरेक्टर की चालाकी ही कहेंगे की इससे नाटक का वजन बिल्कुल कम नहीं होता है.

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ऐक्टिंग

जितनी अच्छी तरह से नाटक लिखा गया है उतनी ही खूबसूरती से ऐक्टर्स ने इसमें भाव भरे हैं. इस तरह का नाटक करते समय, नाटक के छिछले होने का डर बना रहता है लेकिन ऐक्टर्स की मेहनत का ही नतीजा है कि नाटक के किरदार आपको हम-ज़ेहन लगते हैं.  दिलीप वैद्य के किरदार में सुमन वैद्य हैं. हिंदी थियटर में अपनी ज़बरदस्त परफॉर्मेंस के लिए मशहूर सुमन वैद्य इस नाटक में भी आपको हैरान करते हैं. हंसाते हैं और भावुक भी करते हैं. कनक का रोल कर रहे सत्येंद्र मलिक की ऐक्टिंग भी प्रभावशाली है. वे डायलॉग के साथ खेलते हैं और अपने हाव-भाव से दर्शकों के चहेते बन जाते हैं. अनुमेहा जैन ने अवनी के किरदार को बहुत जीवंत बना दिया है. दिया के किरदार में करिश्मा सिंह ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है.

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ग़ज़लों का बेहतरीन प्रयोग

नाटक का संगीत बहुत ही सटीक है. लतिका जैन की आवाज़ में ग़ज़लें नाटक के मूड के साथ जाती हैं. लाइटिंग और सेट डिज़ाइनिंग बिल्कुल नाटक के विषय के अनुरूप है. कॉस्ट्यूम का प्रयोग नाटक में शानदार तरीके से किया गया है.

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नाटक को पसंद कर रहे हैं लोग

समकालीन विधा में जो महारत मुंबई वालों को हासिल है वहां तक पहुंचने में अभी दिल्ली के नाटककारों को थोड़ा समय लगेगा. हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि दिल्ली में खराब थियटर हो रहा है. नाटक यहां भी उम्दा हो रहे हैं लेकिन दिशाहीन. कभी अच्छे तो कभी बहुत खराब. अतुल सत्य कौशिक का ये प्रयास दिल्ली और मुंबई दोनों जगह के नाटककारों के लिए चुनौती है. नाटक में कमियां भी हैं लेकिन इतनी नहीं हैं कि उनकी चर्चा की जाय. इस नाटक को दिल्ली में खूब प्यार मिल रहा है. देश की कई और जगहों पर भी इसका सफल मंचन हो रहा है. जितनी बार मंचन हो रहा है हाउसफुल जा रहा है. ज़ाहिरन किसी नाटक का इस कदर लोकप्रिय होना रंगप्रेमियों के सीने को ठंडक देता है.

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