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बिरसा की धरती पर 10 हजार लोगों पर देशद्रोह का केस, आज यहां है PM मोदी की रैली

पत्थलगड़ी परंपरा यहां तक तो ठीक थी. झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के लगभग 200 गांवों में पिछले तीन चार सालों से इसका पालन किया जा रहा था.  लेकिन दिक्कत तब पैदा हुई जब इस परंपरा का राजनीतिक स्वरूप सामने आया. दरअसल खूंटी में कुछ सजग आदिवासियों ने इस आंदोलन के तहत  बड़े-बड़े पत्थरों पर संविधान के तहत आदिवासियों को मिले अधिकारों को लिख-लिख कर जगह जगह जमीन पर गाड़ दिया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास (फोटो-पीटीआई) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास (फोटो-पीटीआई)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 03 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 10:17 AM IST

  • बिरसा और जयपाल मुंडा की धरती पर पीएम की रैली
  • 10 हजार लोगों के खिलाफ राजद्रोह का आरोप
  • पत्थलगड़ी आंदोलन से खूंटी में आदिवासी हलकान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज झारखंड के खूंटी में चुनावी सभा को संबोधित करने जा रहे हैं. खूंटी झारखंड की वह जमीन है जहां पर भारत के दो नायकों ने जन्म लिया था. ठेठ देहाती पृष्ठभूमि से निकले ये दो नायक अपनी संघर्ष क्षमता और जीवटता के बल पर अलग-अलग क्षेत्रों में सितारा बनकर चमके. हम बात कर रहे हैं बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा की. खूंटी के उलीहातू गांव में जन्मे बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के आदि नायकों में हैं. मात्र 25 साल में शहीद होने वाले बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ उलगुलान यानी क्रांति का आह्वान किया था. छोटी सी अवधि में उन्होंने अंग्रेजों को झारखंड के जंगलों से कई बार खदेड़ा. मुंडा जनजाति के इस नौजवान ने अपनी ऊर्जा और संगठन क्षमता से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए.

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खूंटी की ही धरती पर पैदा हुए जयपाल सिंह मुंडा हॉकी के धुरंधर खिलाड़ी रहे. इनकी अगुवाई में ब्रिटिश भारत ने ओलंपिक में हॉकी गोल्ड मेडल जीता था. जयपाल सिंह मुंडा बाद में झारखंड में राजनीति करने लगे. जयपाल सिंह मुंडा उन चुनिंदा नेताओं में से थे जिन्होंने आजादी से पहले ही अलग झारखंड का सपना देखा था. मुंडा ने आदिवासी महासभा नाम की संस्था का गठन किया था. जब देश का संविधान लिखने की बारी आई तो ऑक्सफोर्ड में पढ़े जयपाल सिंह मुंडा संविधान सभा के योग्य सदस्य बने.

बिरसा-जयपाल की परंपरा के आदिवासियों को देशद्रोह का खौफ

बड़ी हैरानी की बात है कि बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा की परंपरा के आदिवासियों को आज राजद्रोह जैसे औपनिवेशिक कानून के खौफ का सामना करना पड़ रहा है. बुधवार (3 दिसंबर) को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस इलाके में जनता से वोट मांगने के लिए आएंगे तो ये सवाल उनके सामने खड़ा होगा. दरअसल इस खूंटी के आस-पास के गांवों के सैकड़ों-हजारों आदिवासी युवा भारतीय दंड संहिता की धारा-124 A के तहत आरोपी हैं. सवाल उठता है कि आखिर इन आदिवासियों का कसूर क्या है जो पुलिस ने इन्हें इस गंभीर 'अपराध' का आरोपी बनाया है. खूंटी पुलिस पर आरोप है कि उसने बड़े पैमाने पर ग्रामीणों और आदिवासियों पर राजद्रोह के मामले दर्ज किए हैं. स्क्रॉल डॉट इन की एक रिपोर्ट के अनुसार खूंटी में 11,200 लोगों के खिलाफ केस दर्ज हुए . जिसमें लगभग 10,000 लोगों पर देशद्रोह का आरोप है.

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समझें पत्थलगड़ी आंदोलन

पत्थलगड़ी आदिवासी समाज का एक रिवाज है, जो सालों से चल रहा है. छोटानागपुर में मुंडा, उरांव और संथाल जनजातियां इस प्रथा का पालन करती है. इसके तहत आदिवासी अपने मृतक पुरखों की याद में अपने गांव, आंगन या किसी पवित्र जगह पर एक पत्थर गाड़ते हैं. इस प्रक्रिया को पत्थलगड़ी कहा जाता है. इस प्रक्रिया का तरीका अलग है, लेकिन इसका मकसद है मृत्यु प्राप्त कर चुके अपने प्रियजनों को याद करना. झारखंड के हजारीबाग स्थित विनोबा भावे विश्वविद्यालय की शिक्षिका डॉ शांति खलखो कहती हैं कि विवाह, मृत्यु की तरह पत्थलगड़ी भी आदिवासी समाज का संस्कार है.

संस्कार से सरकार को दिक्कत क्यों?

पत्थलगड़ी परंपरा यहां तक तो ठीक थी. झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के लगभग 200 गांवों में पिछले तीन चार सालों से इसका पालन किया जा रहा था.  लेकिन दिक्कत तब पैदा हुई जब इस परंपरा का राजनीतिक स्वरुप सामने आया. दरअसल खूंटी में कुछ सजग आदिवासियों ने इस आंदोलन के तहत  बड़े-बड़े पत्थरों पर संविधान के तहत आदिवासियों को मिले अधिकारों को लिख-लिख कर जगह जगह जमीन पर गाड़ दिया. विवाद की जड़ इन पत्थरों पर लिखे कथन हैं.

पत्थलगड़ी के तहत गाड़े गए पत्थर (फाइल फोटो-आजतक)

दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और उरांव जनजाति से ताल्लुक रखने वाली नितिशा खलखो कहती हैं कि जो इलाके संविधान की पांचवीं अनुसूचि के तहत चिन्हित है वहां बाहरी बसावट को परमिशन लेकर अंदर लेकर आना होगा.  दीकू यानी कि गैर रुढ़ि प्रथा के व्यक्तियों का इस क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घुमना-फिरना और निवास करना वर्जित है.  प्रोफेसर नितिशा कहती हैं कि पत्थलगड़ी में बताया गया है कि संविधान में आदिवासियों को क्या अधिकार दिया गया है. हालांकि उनका कहना है कि ये काम सरकार को करना चाहिए था, लेकिन सरकार अलग अलग तरीके से आदिवासियों की जिंदगी में हस्तक्षेप करने लगी. इसके बाद आदिवासी पत्थलगड़ी करने पर मजबूर हुए. उन्होंने कहा कि संविधान में आदिवासियों की मर्जी पर छोड़ दिया गया था, कि वो कैसे मेनस्ट्रीम होता है, लेकिन आजादी के बाद की उत्तरोत्तर सरकारों ने इसे भूला दिया.

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न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा

पत्थलगड़ी आंदोलन का नारा है. न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा. पत्थलगड़ी के तहत गाड़े गए पत्थरों पर लिखा रहता है कि पांचवीं अनुसूचि जिलों या क्षेत्रों में भारत का संविधान अनुच्छेद 244 (1) भाग (स) पारा (5) (1) के तहत संसद या विधानसभा का कोई भी सामान्य कानून लागू नहीं है. यानी कि इस इलाकों में ग्रामसभा सर्वोपरि है और यहां ग्रामसभा के द्वारा बनाए गए नियम ही लागू होंगे.  विनोबा भावे विश्वविद्यालय की शिक्षिका डॉ शांति खलखो कहती हैं कि पांचवीं अनुसूचि में जो इलाके आते हैं वहां का शासन का मॉडल तैयार करने की जिम्मेदारी ग्रामसभा के पास थी. लेकिन ग्रामसभा जब अपना काम करने लगी तो सरकार को परेशानी होने लगी. उनका कहना है कि शहरों में भी सोसायटी बन रही है वहां आम लोगों का प्रवेश निषेध है, लेकिन तब किसी को आपत्ति नहीं होती है. डॉ शांति के मुताबिक पांचवीं अनुसूचि के तहत आने वाले क्षेत्रों में पंचायच चुनाव और नगर निगम चुनाव कराने का नियम नहीं था. लेकिन इन क्षेत्रों में ये चुनाव भी कराए जा रहे हैं.  उन्होंने कहा कि जब संविधान बना था तो नेहरू चाहते थे कि आदिवासी समाज का बाहरी दुनिया से संपर्क कम रहे.

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राजद्रोह का आरोप झूठा

आदिवासी अपने ऊपर लगे राजद्रोह के आरोप को गलत बताते हैं. प्रोफेसर नितिशा कहती हैं कि आरोपों की वजह से डर से लोग गांव में रहना नहीं चाहते हैं. वो कहती हैं कि मौजूदा सरकार विविधता का जश्न मनाना चाहती है वो एकरूपता चाहती है, लेकिन आदिवासियों की संस्कृति अलग है. उनका कहना है कि पत्थलगड़ी आंदोलन सामान्य, सजग आदिवासी दिशा दे रहे हैं, जो दसवीं पास हैं ग्रेजुएट हैं. आदिवासियों ने पीएम नरेंद्र मोदी से अपील की है कि उनके साथ साथ न्याय किया जाए. डॉ शांति खलखो कहती हैं कि आदिवासियों को बहुत ज्यादा नहीं चाहिए, लेकिन अगर उनके पास जीने लायक भी नहीं रहने दिया जाएगा , तो लोग उद्वेलित होंगे ही.

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