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आखिर लोकतंत्र पर क्यों हावी लाठीतंत्र?

पुलिस और लाठी का साथ चोली दामन जैसा लगता है. लेकिन भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) या क्रिमिनल प्रॉसिजर कोड (सीआरपीसी) में ‘लाठी’ शब्द कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया. तो क्या पुलिस को लाठीचार्ज करने का अधिकार कानून देते है?

शुल्क वृद्धि का विरोध करने पर जेएनयू छात्रों पर बरसीं लाठियां शुल्क वृद्धि का विरोध करने पर जेएनयू छात्रों पर बरसीं लाठियां
संध्या द्विवेदी
  • नई दिल्ली,
  • 23 जनवरी 2020,
  • अपडेटेड 7:43 PM IST

जेएनयू में शुल्क वृद्धि के खिलाफ विरोध हो या फिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ इकट्ठा हुए छात्र-छात्राएं हों और तो और जेएनयू के समर्थन में आए जादवपुर यूनिवर्सिटी के छात्रों के प्रदर्शन तक हर बार पुलिस ने भीड़ पर लाठियां बरसाईं. यह हालिया कुछ उदाहरण हैं लेकिन आंगनबाड़ी, आशाकर्मियों के आंदोलनों से लेकर शिक्षाकर्मियों के प्रदर्शन तक पुलिस ने जहां-तहां लाठी बरसाकर भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश की.

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सवाल उठता है कि क्या पुलिस को लाठीचार्ज का अधिकार संविधान देता है? भले ही पुलिस और लाठी का साथ चोली दामन जैसा हो लेकिन भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) या क्रिमिनल प्रॉसिजर कोड (सीआरपीसी) में ‘लाठी’ शब्द कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया. सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट और संवैधानिक मामलों के जानकार विराग गुप्ता कहते हैं, ‘‘ब्रिटिश काल में भीड़ नियंत्रित करने के लिए ‘लाठीचार्ज’ का इस्तेमाल किया जाता था.

आजाद भारत में इसका इस्तेमाल पुलिस केवल हिंसात्मक भीड़ या फिर दंगों पर काबू पाने के लिए कर सकती है. आत्मनियंत्रण के लिए भी पुलिस लाठी का इस्तेमाल कर सकती है. लेकिन इसमें सबसे बड़ा पेंच है कि यह कौन साबित करेगा कि पुलिस ने लाठी आत्मनियंत्रण में नहीं चलाई या फिर भीड़ हिंसा पर आमादा थी या नहीं.’’

दंगों के हालात और भीड़ के हिंसाग्रस्त होने पर पुलिस को मजिस्ट्रेट और एसडीएम से आदेश लेना पड़ता है. लेकिन नोएडा और लखनऊ में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू होने के बाद इन दोनों जिलों में लाठीचार्ज का आदेश देने का अधिकार अब पुलिस कमिश्नर के हाथ में होगा.

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यानी अब इन दो जिलों की पुलिस पर और किसी महकमें की लगाम नहीं होगी. 

भीड़ पर लाठियां किस तरह बेलगाम होकर बरस रहीं इसका अंदाजा 2014 से 2016 में आई राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्टों में दर्ज आंकड़ों से लगता है. 2014 में देशभर में महज 382 मामले लाठीचार्ज के थे लेकिन 2016 की रिपोर्ट में यही मामले बढ़कर 2,184 हो गए. 2016 में जम्मू-कश्मीर के बाद उत्तर प्रदेश लाठीचार्ज के मामले में सबसे आगे था.

इसके बाद 2018 की रिपोर्ट में लाठीचार्ज में घायल हुई पुलिस और नागरिकों की संख्या तो दर्ज की गई लेकिन पुलिस ने कितनी बार लाठियां बरसाईं यह दर्ज नहीं किया गया. यह वह आंकड़े हैं जिन्हें खुद पुलिस ने दर्ज किए हैं. ऐसे में असल आंकड़ों कितने होंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. हालांकि 2019 में आई ‘Status of Policing in India Report’ रिपोर्ट कमियों से जूझती पुलिस की व्यथा भी कहती है.

पुलिस सुधारों की जरूरत के मुद्दे को उठाने वाले विशेषज्ञों के मुताबिक ‘‘तनाव भरा माहौल और उस पर बुनियादी जरूरतों का टोटा, और बदलती परिस्थितियों में नागरिक अधिकारों को लेकर लगातार बढ़ रहे आंदोलनों के अनुरूप प्रशिक्षण न देना पुलिस के गुस्से को बढ़ाने का ही काम करता है.’’ 

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यह सच भी है क्योंकि रिपोर्ट भी इस ओर इशारा करती है तनाव भरे माहौल में काम करने और परिवार के साथ समय न बिता पाने की वजह से पुलिसकर्मी ने केवल शारीरिक बल्कि मानसिक बीमारियों से लगातार जूझ रहे हैं. पुलिस को मानवाधिकार, जातियों के प्रति संवेदनशील करने और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षण का प्रावधान भी है.

लेकिन रिपोर्ट में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि इस तरह के प्रशिक्षणों को लेकर हमारी पुलिस व्यवस्था कितनी गंभीर है. कुल मिलाकर यह रिपोर्ट ‘लॉ ऐंड आर्डर’ के लिए सबसे जरूरी पुलिस व्यवस्था में व्याप्त ‘अव्यवस्था’ की तस्वीर पेश करती है.

ऐसे में लोकतंत्र पर हावी ‘लाठीतंत्र’ को अगर खत्म करना है तो उन कमियों को सुधारना होगा जिनसे लगातार पुलिस जूझ रही है. साथ ही उन्हें समय-समय पर तय प्रशिक्षण भी देने होंगे ताकि हर बार भीड़ को लाठीतंत्र का शिकार न होना पड़े, फायरिंग का सामना न करना पड़े.

-हर पुलिस वाले को रोजाना औसतन 14-16 घंटे काम करना पड़ रहा. हर दो में से एक पुलिस वाले को नहीं मिलती साप्ताहिक छुट्टी.

-पुलिस के लिए जरूरी मैन पॉवर का सिर्फ 77 फीसद मौजूद है. जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 46.2 फीसद, गुजरात में 67.4 फीसद और हरियाणा में 67.6 फीसद ही है.

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-राष्ट्रीय स्तर पर 7.3 फीसद महिला पुलिस मौजूद हैं. जबकि मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स के मुताबिक कुल पुलिस बल के 33 फीसद पर महिला पुलिस की नियुक्ति होनी चाहिए. गुजरात में यह आंकड़ा महज 4.36 फीसद है जबकि छत्तीसगढ़ में 4.62 फीसद है जबकि मध्य प्रदेश में 4.85 फीसद है.

-5 में से 1 पुलिस कर्मी ने बताया थाने में शौचालय नहीं है.

- 10 में से एक पुलिस कर्मी के मुताबिक पुलिस स्टेशन में पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है.

- 41 फीसद पुलिस कर्मचारियों सरकारी वाहन की अनुपलब्धता की वजह से पुलिस क्राइम स्पॉट पर नहीं पहुंच पाई.

-53 फीसद पुलिस वालों ने बताया कि उन्हें अपनी जेब से स्टेशनरी का पैसा खर्च करना पड़ता है.

स्रोत-लाठीचार्ज के सभी आंकड़े एनसीआरबी 2014, 2015, 2016 और बाकी आंकड़े 2019 में आई ‘स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया’ रिपोर्ट से हैं. 

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