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27 फीसदी आरक्षण देकर भी हार गए थे वीपी सिंह, क्या चलेगा मोदी का ये दांव?

Modi upper caste reservation सवर्णों को आरक्षण पर मोदी सरकार के फैसले का हर दल समर्थन कर रहा है. 1990 में वीपी सरकार ने जब अन्य पिछड़ा जातियों को आरक्षण देने का फैसला किया था तो कांग्रेस समेत कई प्रमुख दलों ने उस निर्णय का पुरजोर विरोध किया था.

पीएम मोदी के साथ विपक्षी दलों के नेता (फाइल फोटो) पीएम मोदी के साथ विपक्षी दलों के नेता (फाइल फोटो)
जावेद अख़्तर
  • नई दिल्ली,
  • 08 जनवरी 2019,
  • अपडेटेड 8:00 AM IST

2019 लोकसभा चुनाव के लिए मोदी सरकार ने एक बड़ा दांव खेला है. भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है. मोदी सरकार के इस कदम को विरोधी दल चुनावी स्टंट तो बता रहे हैं, लेकिन विरोध में कोई नहीं है. मगर, 29 साल पहले जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने गरीब पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण वाली सिफारिशों को लागू किया तो उनका व्यापक विरोध किया गया. यानी तीन दशक की राजनीति में इतना बदलाव आ गया है कि दलितों की राजनीति करने वाले दल भी सवर्णों को आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं. लेकिन सवाल फिर भी ये बना रहेगा कि 27 फीसदी आरक्षण देकर भी वीपी सिंह हार गए तो क्या पीएम मोदी का दांव सफल होगा?

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पार्टियों में इस परिवर्तन के पीछे क्या मजबूरी है, यह समझने के लिए उस दौर में ही जाना पड़ेगा, जिस वक्त वीपी सरकार ने उस क्रांतिकारी फैसले को लागू किया. दरअसल, मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने 20 दिसंबर, 1978 को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में एक आयोग बनाया, जिसे मंडल आयोग कहा गया. इस आयोग ने 12 दिसंबर,1980 को अपनी रिपोर्ट पूरी की, लेकिन उस वक्त तक मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी और आपातकाल के बाद सत्ता से बाहर होने के बाद इंदिरा गांधी फिर से वापसी कर चुकी थीं. मंडल कमीशन ने सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को शासन चलाने का अवसर मिला, लेकिन उन्होंने भी कमीशन की सिफारिशें लागू नहीं की. इसके बाद जब एक बार फिर जनता दल को सरकार में आने का मौका मिला और विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया. कहा तो जाता है कि देवीलाल के बढ़ते कद को रोकने के लिए उन्होंने यह दांव चला लेकिन वीपी सिंह को मंडल का मसीहा कहा गया. वीपी सिंह के इस फैसले ने देश की सियासत बदल दी. सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए. आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया. कांग्रेस ने खुलकर विरोध किया तो भारतीय जनता पार्टी ने नए पैंतरे के साथ खुद को किनारे कर लिया. वीपी सिंह के अपने ही उनके पराये बन गए.

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अपनों ने ही किया वीपी के फैसले का विरोध

वीपी सरकार के विरोध में जब ओडिशा में प्रदर्शनकारी पुलिस फायरिंग की जद में आए तो तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के विरोधी स्वर सबसे पहले बाहर आए. बीजू पटनायक जनता दल की ही सरकार चला रहे थे और उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के फैसले का विरोध करते हुए उन पर जातीय हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप मढ़ दिया. बीजू पटनायक के अलावा वीपी सिंह के करीबियों में यशवंत सिन्हा और हरमोहन धवन ने भी उनके फैसले की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की. वीपी सिंह से खार खाए बैठे चंद्रशेखर ने कहा था कि सरकार का इसे लागू करने का तरीका गलत है. वीपी सरकार के मंत्री अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खां भी असंतुष्ट नेताओं की कतार में खड़े नजर आए.

विरोध में राजीव गांधी लाए प्रस्ताव

कांग्रेस पार्टी ने भी वीपी सरकार के फैसले की पुरजोर मुखालफत की. राजीव गांधी मणिशंकर अय्यर द्वारा तैयार प्रस्ताव लेकर आए, जिसमें मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज किया गया. जिस वक्त यह फैसला आया तब वीपी सिंह की सरकार को बीजेपी बाहर से सशर्त समर्थन दे रही थी. लेकिन राजीव गोस्वामी से मिलने जब तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी एम्स अस्पताल पहुंचे तो उन्हें अगड़ी जाति के नौजवानों के तीखे विरोध का सामना करना पड़ा. आडवाणी ने वक्त की नजाकत को भांपा और उसके बाद मंडल के जवाब में कमंडल की राजनीति तेज कर दी. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने वीपी सरकार को फैसले पर पुनर्विचार नहीं करने पर समर्थन वापसी का भी दबाव बनाया, लेकिन बीजेपी इस मसले पर कोई स्पष्ट स्टैंड नहीं ले पाई.

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लेफ्ट पार्टियों की स्थिति भी बीजेपी जैसी ही रही. सीपीआई ने आरक्षण का समर्थन किया लेकिन सीपीएम को इस मसले पर स्टैंड लेते-लेते काफी वक्त लग गया.

इन नेताओं ने किया खुलकर समर्थन

वीपी सरकार को भले ही चारों तरफ से विरोध का सामना करना पड़ा हो, लेकिन कई नेताओं ने उनके फैसले को ऐतिहासिक बताया और वे वीपी सिंह के साथ खड़े नजर आए. भारतीय राजनीति के ये वो नेता थे, जिन्होंने आगे चलकर ओबीसी वोट के सहारे सिंहासन हासिल किया. इनमें दो सबसे बड़े नाम लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव हैं. दोनों नेता ओबीसी समाज से आते हैं. जनता दल के बड़े नेता चंद्रशेखर के नजदीकियों में होने के बावजूद मुलायम सिंह ने वीपी सरकार के फैसले का समर्थन किया. हालांकि, बाद में वह चंद्रशेखर के साथ ही जनता दल समाजवादी का हिस्सा रहे, लेकिन 1992 में समाजवादी पार्टी बनाकर उन्होंने अपनी राजनीति को नया स्वरूप दे दिया.

मुलायम सिंह की तरह ही लालू प्रसाद यादव भी वीपी सरकार के समर्थन में खड़े रहे और लालकृष्ण आडवाणी ने जब मंडल पर कमंडल की राजनीति तेज की और वह रथयात्रा लेकर बिहार की सीमा में पहुंचे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया.

वीपी सरकार के फैसले का समर्थन करने वाले नेताओं में रामविलास पासवान और शरद यादव का नाम भी शामिल है. रामविलास पासवान आज एनडीए की सत्ता में अहम भागीदारी निभा रहे हैं. जबकि शरद यादव न सिर्फ जनता दल सेकुलर के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं, बल्कि एनडीए के संयोजक भी रह चुके हैं.

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आरक्षण पर फिलहाल पार्टियों का रुख

दलितों और पिछड़े वर्गों के नेताओं में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को छोड़ दें तो अधिकांश नेता गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के पक्षधर रहे हैं. कांग्रेस ने 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण की मांग उठाई थी तो सपा, बसपा, एलजेपी और आरपीआई जैसे दल 10 से 25 फीसदी आरक्षण देने की वकालत करते रहे हैं. अब जबकि मोदी सरकार ने यह फैसला लिया तो कांग्रेस, एलजेपी, सपा, बसपा, आरपीआई और लेफ्ट इसके समर्थन में हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी भी गरीब सवर्णों को आरक्षण के पक्ष में है. सिर्फ लालू यादव की पार्टी ने आर्थिक आधार पर दिए जा रहे इस आरक्षण का खुलकर विरोध किया है.

दरअसल, इसकी बड़ी एक वजह सवर्ण वोट बैंक भी माना जा रहा है, जो अब तक मुख्य रूप से बीजेपी और कांग्रेस के हिस्से में जाता रहा है. 2007 में सांख्यिकी मंत्रालय के एक सर्वे में कहा गया था कि देश में 31 फीसदी आबादी सवर्णों की है. इस 31 फीसदी के लगभग आधे पर 2014 में बीजेपी का कब्जा था. जबकि इतना ही हिस्सा कांग्रेस के खाते में गया था. हालांकि, 2004 के चुनाव में सामान्य वर्ग के वोटरों का बड़ा समर्थन बीजेपी को मिला था, जो 2014 में घटकर कांग्रेस के बराबर आ गया था. इस आंकड़े ने जहां बीजेपी को नया कार्ड खेलने पर मजबूर किया है, तो वहीं दूसरे दल भी इस बड़े वोट बैंक का क्रेडिट अकेले बीजेपी या मोदी सरकार के पक्ष में नहीं जाने देना चाहते.

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