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हलफनामाः चुनावी गठबंधनों पर कानून बनना बहुत मुश्किल

गठबंधन में जाने और निकलने की प्रक्रिया को दरअसल संहिताबद्ध नहीं किया गया है यानी इस विषय पर कानून नहीं बनाए गए हैं. शायद इसीलिए महाराष्ट्र के नए गठबंधन का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वाले याचिकाकर्ता को कुछ हासिल नहीं हो पाया.

फोटो साभारः इंडिया टुडे फोटो साभारः इंडिया टुडे
मनीष दीक्षित
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  • 29 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 3:49 PM IST

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद बने  शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन के जरिये गठबंधन की राजनीति पर नए सवाल खड़े हुए हैं. शुचिता और राजनीतिक ईमानदारी को बहुत पहले तिलांजलि दे चुकी राजनीतिक पार्टियां फायदे के लिए मनमाने ढंग से गठबंधन बनाती-बिगाड़ती रहती हैं जैसा कि शिवसेना के मामले से भी स्पष्ट है. सवाल इसलिए उठा है क्योंकि इससे जनता ठगी जाती है. भाजपा-शिवसेना के चुनावी गठबंधन को सरकार बनाने का जनादेश मिला लेकिन शिवसेना इससे बाहर निकल गई और उसने नए सहयोगी दलों के साथ सरकार बना ली.

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गठबंधन में जाने और निकलने की प्रक्रिया को दरअसल संहिताबद्ध नहीं किया गया है यानी इस विषय पर कानून नहीं बनाए गए हैं. शायद इसीलिए महाराष्ट्र के नए गठबंधन का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वाले याचिकाकर्ता को कुछ हासिल नहीं हो पाया. हिंदू महासभा के प्रमोद पंडित जोशी की तरफ से दाखिल याचिका को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना, जस्टिस अशोक भूषण और संजीव खन्ना की पीठ ने खारिज कर दिया. अदालत का कहना था कि हम इस मामले में नहीं पड़ना चाहते. जस्टिस रमन्ना ने कहा कि राजनीतिक नैतिकता, संवैधानिक नैतिकता से एकदम अलग है. लोकतंत्र में हम गठबंधन बनाने के अधिकार से राजनीतिक पार्टियों को वंचित नहीं कर सकते हैं.

राजनीतिक पार्टियों की रणनीति दो तरह की होती हैं, एक चुनाव पहले की और दूसरी नतीजों के बाद की. चुनाव के पहले पूरा जोर मतदाता को अपनी ओर खींचने पर होता है और नतीजों से हासिल राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल जो निवेश चुनाव में किया है उसकी वसूली के रूप में किया जाता है. इसके लिए गठबंधन को तिलांजलि कानूनी तौर पर गलत नहीं है. दलबदल कानून बनने से पहले के दौर में विधायक या सांसद बेरोकटोक फायदे वाले दल के पाले में चले जाते थे. 1985 में राजीव गांधी की सरकार इसके समाधान के तौर पर दलबदल कानून लेकर आई. दलबदल कानून गठबंधनों पर लागू होता नहीं है इसलिए अदालत भी इस पर कुछ नहीं कर सकती.

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सितंबर 2015 में भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ऐसी ही याचिका आई थी जिसमें चुनाव बाद राजनीतिक गठबंधन को जनता के साथ धोखा बताते हुए अदालत से इसे असंवैधानिक करार देने की मांग की गई थी. ये याचिका भी खारिज हो गई थी और कोर्ट ने मामले में दखल देने से इनकार कर दिया था. तब याचिका की सुनवाई करने वाली पीठ में शामिल प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एच.एल. दत्तू ने याचिकाकर्ता से पूछा था कि अगर अदालत इस मामले में दखल दे भी दो गठबंधन करने वाले दल ये कह देंगे कि अब हम मित्र बन गए हैं इसलिए तालमेल कर रहे हैं. या राजनीतिक दल ये भी कह सकते हैं कि दोबारा चुनाव का खर्च बचाने के लिए हमने गठबंधन किया है. इसी पीठ के जस्टिस अमिताभ राय ने याचिकाकर्ता से पूछा था कि कौन सा कानून है जो राजनीतिक पार्टियों को चुनाव के दौरान किये वायदे पूरे करने के लिए बाध्य करता है.

गठबंधनों की राजनीति को संहिताबद्ध करना बहुत मुश्किल काम है. इसमें सांसदों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आड़े आती है. विचारधारा असीमित समय के लिए बाध्यकारी नहीं है. विचारधारा में बदलाव मुमकिन है. शिवसेना अगर कल तक कट्टर हिंदुत्व की समर्थक थी तो उसके नेताओं और उस दल को अपनी विचारधारा बदलने का अधिकार है. ये बात अन्य सभी दलों पर लागू होती है. इसलिए चुनाव पूर्व हुए गठबंधनों को जारी रखवाना और चुनाव बाद के गठबंधनों पर लगाम कसना बेहद मुश्किल काम है. बहुत जोखिम लेने वाली या बहुत ताकतवर और भविष्य को लेकर आश्वस्त सरकार ही गठबंधनों पर कानून बना सकती है. लेकिन मतदाता के पास रास्ते खुले हुए हैं कि वह स्वार्थी गठबंधनों के दलों को अपने हिसाब से चुनाव में मजा चखाते रहें.

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