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बर्दवान: पश्चिम बंगाल में शुरू हो गई ध्रुवीकरण की सियासत

बीजेपी पश्चिम बंगाल में तृणमूल-विरोधी भावनाओं का फायदा उठाने में क्या जुटी कि मुस्लिम तुष्टीकरण और इस्लामी आतंक सरीखे शब्द एक बार फिर हवा में गूंजने लगे हैं.

कौशिक डेका
  • कोलकत्ता,
  • 11 नवंबर 2014,
  • अपडेटेड 11:46 AM IST

इस साल फरवरी में केंद्रीय खुफिया एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो ने गृह मंत्रालय को एक नोट भेजा. इसमें दावा किया गया था कि खुद अपने देश से खदेड़ दिए गए बांग्लादेशी आतंकी धड़े पश्चिम बंगाल में पनाह ले रहे हैं और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के कई नेता यहां छिपने में उनकी मदद कर रहे हैं. ये लोकसभा चुनावों से पहले के दिन थे, लिहाजा इस नोट पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. ऐसे में सीपीएम की केंद्रीय समिति के सदस्य और पश्चिम बंगाल के पूर्व मंत्री गौतम देब ने मीडिया के जरिए तीखा हमला बोल दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि टीएमसी के राज्यसभा सदस्य अहमद हसन इमरान दबे-छिपे ढंग से जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) के लिए काम कर रहे हैं.

इससे पहले 2012 में राज्य की एक खुफिया रिपोर्ट में कहा गया था कि इमरान सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में शामिल रहे हैं. इसके बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने से हिचकिचाई नहीं.

यही वजह है कि आतंकियों से तृणमूल के कथित रिश्तों का एक बार फिर खुलासा हुआ तो इस पर किसी को ज्यादा ताज्जुब नहीं हुआ. तृणमूल के ये रिश्ते 2 अक्तूबर को उस वक्त चर्चा में आए जब बर्दवान जिले के खगरागढ़ मंो उसके नेता नूरुल हसन चैधरी के निवास पर एक बम विस्फोट में दो संदिग्ध जेएमबी आतंकी मारे गए.

लेकिन इस बार फर्क यह है कि बीजेपी केंद्र की सत्ता में है और लोकसभा चुनाव में शानदार कामयाबी के बाद उसकी राज्य इकाई जबरदस्त उत्साह से लबरेज है. यही वजह है कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के लिए इन आरोपों का जवाब दे पाना अब मुश्किल हो रहा है. खासकर ऐसे में जब बनर्जी पर पहले से ही एक के बाद एक कई कल्याणकारी कार्यक्रमों के जरिए मुसलमानों का तुष्टीकरण करने में कोई कसर नहीं छोडऩे के आरोप लगते रहे हैं.

पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह सब पश्चिम बंगाल में धार्मिक आधार पर राजनैतिक ध्रुवीकरण करने के मकसद से किया जा रहा है. इस ध्रुवीकरण का पहला स्वाद बनर्जी ने सितंबर में चखा जब शमिक भट्टाचार्य ने बशीरहाट उपचुनाव जीत लिया और 15 सालों में राज्य विधानसभा में दाखिल होने वाले बीजेपी के पहले नेता बन गए. राज्य के दूरदराज के इलाकों में बीजेपी के विकल्प के तौर पर उभरने की तीन वजहें बताई जा रही हैं—मुसलमानों के कल्याणकारी उपायों पर बनर्जी का खासा जोर, तृणमूल कार्यकर्ताओं की कथित “दबंगई और भ्रष्टाचार,” तथा दिल्ली में बीजेपी का सरकार बनाना.

राज्य की आबादी में मुसलमान तकरीबन 30 फीसदी हैं. 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल की भारी जीत का श्रेय मुसलमान वोटों के बड़ी तादाद में उनके पक्ष में लामबंद होने को दिया जाता है. तब कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने खुलेआम बनर्जी का समर्थन किया था. सत्ता में आने के बाद उन्होंने इमामों को 2,500 रु. महीना भत्ता देने का और इसके बाद मुअज्जिनों को भी 1,500 रु. के मासिक भुगतान का ऐलान कर दिया. इनसे राज्य के खजाने पर हर साल 84 करोड़ रु. का बोझ पड़ता, लेकिन उससे पहले ही कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इन्हें असंवैधानिक करार दे दिया. शमिक भट्टाचार्य कहते हैं, “पश्चिम बंगाल की जनता ने कभी भी धार्मिक आधार पर वोट नहीं दिया. ममता बनर्जी ने ही मुसलमानों को रिझाने के अपने आक्रामक तौर-तरीकों से लोगों को बांटने की राजनीति शुरू की. लेकिन ममता का मंसबूा अब लोग समझने लगे हैं, यहां तक कि अब मुस्लिम भी उनका साथ छोड़ रहे हैं.” राज्य बीजेपी अध्यक्ष राहुल सिन्हा दावा करते हैं कि बंगाल के गांवों में ढेरों मुसलमान बीजेपी से जुड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें समझ में आ गया है कि बनर्जी महज वोटों की खातिर उन्हें खैरात बांट रही हैं.

बांग्लादेशी सीमा पर बशीरहाट के बंशाझारी गांव की 20 वर्षीय नरगिस सुल्ताना बांग्ला साहित्य की पोस्ट ग्रेजुएट छात्रा हैं. उनकी कहानी पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में बदलते सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने की अनूठी और सटीक मिसाल है. सुल्ताना कहती हैं कि उन्होंने बनर्जी के समर्थन से इसलिए हाथ खींच लिए क्योंकि “वे वादे तो खूब करतीं हैं लेकिन उनमें से पूरा एक भी नहीं किया. मुसलमान तो उनके लिए महज वोट बैंक थे.” साहित्य के साथ कानून की भी पढ़ाई करने वाली सुल्ताना सवाल करती हैं, “इमामों को पैसा देने का क्या मतलब है? ममता मानकर चलती हैं कि इमाम मुसलमानों के वोट उन्हें दिला देंगे. थोड़े से रुपए-पैसे की खैरात, वह भी सिर्फ कागजों पर बांटने के अलावा उन्होंने हमारे लिए किया ही क्या है?”

सुल्ताना ने 2011 में तृणमूल को वोट दिया था, लेकिन छह महीने पहले वे बीजेपी में शामिल हो गईं. अब वे पार्टी की अल्पसंख्यक शाखा की महासचिव हैं. उन्हें उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए कड़े कदम उठाएंगे.

हालांकि कोलकाता के बंगबासी कॉलेज में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर उदयन बंद्योपाध्याय नहीं मानते कि बीजेपी के मुस्लिम समर्थन में अचानक कोई उछाल आ गया है. वे कहते हैं, “यह कहना सही नहीं होगा कि अल्पसंख्यक वोट तृणमूल से दूर जा रहे हैं. ऐसा भी हुआ है कि सत्ताधारी जमावड़े के खिलाफ राजनैतिक प्रतिरोध खड़ा करने के लिए मुसलमान बीजेपी के पाले में चले गए. आखिरकार यह उनके लिए खुद के बचाव का सवाल है.”

तो भी राजनैतिक दलों के बीच बढ़ता ध्रुवीकरण हिंसक शक्ल अख्तियार करता जा रहा है. 27 अक्तूबर को हुए बर्दवान धमाके के तीन सप्ताह बाद बीरभूम जिले के माखरा गांव में तृणमूल और बीजेपी समर्थकों के बीच झड़पों में तीन लोग मारे गए. एक पुलिस अफसर के ऊपर देसी बम फेंका गया, जिसमें वह घायल हो गया. एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से बम बनाने के सामान से भरी 16 बाल्टियां बरामद हुईं. गांव वाले और पुलिस हालांकि कह रहे हैं कि इन बमों का बर्दवान की घटना से कोई संबंध नहीं; ये बम तो पश्चिम बंगाल की हिंसक राजनैतिक संस्कृति का ही एक हिस्सा हैं.

(कोलकाता में इफ्तार में शामिल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी)
बीजेपी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की योजना बना रही है. वहीं बनर्जी ने इस मामले में जान-बूझकर चुप्पी ओढ़ रखी है. विरोधी कहते हैं कि यह उनकी और ज्यादा मुस्लिम वोट हथियाने की रणनीति है. इस तरह बनर्जी ने अपना रुख बिल्कुल पलट लिया हैः 2005 में उन्होंने लोकसभा में “गैरकानूनी बांग्लादेशी घुसपैठियों” का विषय उठाने से रोके जाने पर स्पीकर की कुर्सी पर कागज फेंककर अपना विरोध जताया था.

ममता बनर्जी ने 3 नवंबर को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को तृणमूल के खिलाफ “दुर्भावनापूर्ण प्रचार अभियान्य का मुकाबला करने के लिए घर-घर जाने की नसीहत दी थी. उन्होंने शारदा चिटफंड घोटाले और साथ ही आतंकी समूहों के साथ कथित रिश्तों पर पार्टी के रुख को समझाने के लिए एक पुस्तिका छापने का भी हुक्म दिया है.

शांति निकेतन स्थित विश्वभारती यूनिवर्सिटी के छात्र राहुल बनर्जी कहते हैं, “ममता ने हमें नाउम्मीद किया है. लगातार घुसपैठ की वजह से पश्चिम बंगाल की आबादी में गुपचुप बदलाव आ रहा है. लेकिन हमारी मुख्यमंत्री उस वोट बैंक को खुश करने में लगी हैं जिसे विदेशियों ने बनाया था. हालांकि मैं उम्मीद करता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने के अपने वादे को पूरा करेंगे.”

चारों तरफ से घिर चुकी बनर्जी का सारा ध्यान अब अपनी पार्टी को एकजुट करने पर है. 3 नवंबर को एक बैठक में उन्होंने दिलचस्प पलटी खाई और तृणमूल के पूर्व राष्ट्रीय सचिव और प्रमुख चुनाव प्रबंधक मुकुल रॉय तथा अपने अघोषित नंबर टू मदन मित्रा के साथ एकजुटता का इजहार किया. इन दोनों दिग्गज नेताओं के नाम शारदा चिटफंड घोटाले की जांच में सामने आए थे और इसलिए ममता बनर्जी ने उन्हें किनारे कर दिया था. लेकिन पर्यवेक्षक कहते हैं कि उन्हें दरकिनार करने की एक वजह पार्टी में ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी का बढ़ता प्रभाव भी था.

टीएमसी सुप्रीमो के आलोचक कहते हैं कि उन्होंने वाम मोर्चे के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी थी और राज्य में परिवर्तन लाने का वादा किया था. लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद एकमात्र परिवर्तन लोगों को रंग में दिखाई दिया है—जो लाल से अब हरा हो गया है. बंद्योपाध्याय कहते हैं, “तृणमूल सरकार न तो विकास का नक्शा तैयार कर सकी और न ही वह शिक्षा में सुधार, ठोस औद्योगिक नीति और कृषि क्षेत्र पर ध्यान दे सकी है. सरकार को अब चाहिए कि वह छोटे-मोटे विवादों से पल्ला झड़कर बड़ी बातों पर जोर दे.”

केवल यही नहीं, ममता बनर्जी को अब एक और लड़ाई लडऩी होगी—पश्चिम बंगाल में भगवा ब्रिगेड की आक्रामक चढ़ाई को रोकने के लिए उसे कमर कसनी होगी.    
    —साथ में सौध्रिति भवानी

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