
बात कुछ दिन पहले की है. सुबह के आठ बज रहे थे. नवादा जिले के बेलदारी टोला गांव में हर ओर सन्नाटा पसरा था, लेकिन खेतों की ओर चहल-पहल थी. हमने पास ही खड़ी एक छोटी-सी बच्ची से यहां के स्कूल का रास्ता पूछा. वह कुछ देर सोच में डूब गई. फिर कुछ सोचने के बाद वह बोली कि यहां हर मौसम में स्कूल अलग-अलग जगह होता है. वह हमें एक बागीचे में ले आई और बोली, ''यही स्कूल है.”
कुछ ही देर में वहां बच्चों के पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया. वहां उस बच्ची समेत 20 बच्चे जमा हो गए. बच्चों ने पेड़ के नीचे ब्लैकबोर्ड और दो कुर्सियां लगाईं और उसके सामने बैठ गए. पढ़ाई एक घंटे बाद शुरू हुई, जब किसी ग्रामीण की सूचना पर महिला टीचर को उसके किसी परिवार वाले ने मोटरसाइकिल से यहां पहुंचाया. टीचर के पास न तो हाजिरी रजिस्टर था और न ही उन्हें स्कूल में दाखिल बच्चों की संख्या ही मालूम थी. उन्होंने बताया, ''बच्चों का रजिस्टर एक टीचर के घर पर है.”
यह स्कूल 2007 से ही ऐसे चल रहा है. जाड़े के दिनों में यह खुले आसमान और बरसात में एक गोशाला में चलता है. गांव में रहने वाले एतवारी चौहान कहते हैं, ''गांव के बच्चों का भविष्य भगवान भरोसे है.” वैसे तो यहां 90 बच्चों का दाखिला है, जिन्हें पढ़ाने के लिए तीन टीचर नियुक्त हैं. स्कूल का सुबह का टाइम साढ़े छह से साढ़े बारह बजे तक है, लेकिन पूछने पर बच्चे नौ से तीन बजे बता रहे थे.
बेलदारी टोला में यह अकेला ऐसा प्राइमरी स्कूल नहीं है, जहां पर ऐसी सरकारी औपचारिकताओं में स्कूल चल रहे हैं. एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में करीब 3,000 स्कूल पेड़ों की छांह में चल रहे हैं. सर्वे में 1,875 स्कूलों को अस्तित्वविहीन बताया गया है. यह सर्वे राज्य सरकार की पहल पर कराया गया था. मंदिर, दालान, गोशाला और सामुदायिक भवनों में चल रहे स्कूलों की संख्या को जोड़ दें तो भवनहीन स्कूलों की संख्या काफी है. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन 2011-12 की रिपोर्ट में 23.21 फीसदी प्राइमरी स्कूलों को भवनहीन बताया गया है. यह अन्य राज्यों की तुलना में काफी ज्यादा है.
दरअसल, राज्य के 15,000 नए प्राइमरी स्कूलों के लिए जमीन और भवन की समस्या वर्षों से रही है. सर्वशिक्षा अभियान के तहत खुलने वाले स्कूलों की जमीन के लिए राशि का प्रावधान नहीं है. हालांकि कुछ स्कूलों के लिए भूमि और भवन उपलब्ध हुए हैं, लेकिन ऐसे स्कूलों की संख्या ज्यादा नहीं है. अब शिक्षा विभाग ने भूमि और भवन उपलब्ध कराने के लिए जन सहयोग की अपील की है. सरकार ने दाताओं के नाम पर स्कूल और भवन का नाम किए जाने का संकल्प भी जारी किया है. लेकिन इसका फायदा नहीं हुआ.
पहले भी सरकार अपील करती रही है. हालांकि अररिया के 296 भवनहीन स्कूलों में से 129 स्कूलों के लिए जमीन मुहैया कराई गई है, फिर भी 167 प्राइमरी स्कूलों के लिए समस्या बरकरार है. यही नहीं, खगडिय़ा, पूर्णिया, कटिहार समेत सूबेभर में ऐसी समस्या मौजूद है. राज्य में 42,307 प्राइमरी और 27,958 अपर प्राइमरी स्कूल हैं. सिर्फ नवादा में 171 स्कूल ऐसे हैं, जिनकी अपनी बिल्डिंग नहीं है. अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश स्कूलों में पढ़ाई की व्यवस्था कमोबेश बेलदारी टोला जैसी ही है.
नवादा के विश्वकर्मा टोला प्राइमरी स्कूल को ही लें. यह स्कूल छह साल से ग्रामीण अयोध्या मिस्त्री की करीब 15 फुट लंबी और छह फुट चौड़ी खपरैल की दुकान में चल रहा है. यहां करीब 100 बच्चों का दाखिला है, जिसके लिए चार महिला टीचर हैं, लेकिन यह परिसर अकसर खाली रहता है. ग्रामीण रीता देवी कहती हैं, ''स्कूल की अधिकतर टीचर गायब रहती हैं.”
परेशानियां यहीं नहीं थमतीं. शंकरबिगहा में छह साल पहले स्कूल का पता राजकुमार साव का मकान था, लेकिन दो साल पहले मुखिया बदलने के साथ ही स्कूल का नया पता रमेश साव का बगीचा हो गया है. इंचार्ज अनुराधा कुमारी कहती हैं, ''बच्चे पानी और शौच के लिए अपने घर चले जाते हैं, लेकिन टीचर को काफी परेशानी होती है.” मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गृह जिला नालंदा भी इससे अछूता नहीं है. बिंद ब्लॉक का पीतांबरबिगहा स्कूल ऐसा ही उदाहरण है. अररिया नगरपालिका के शिवपुरी का भगत टोला स्थित प्राइमरी स्कूल 1975 से पेड़ों के नीचे चल रहा है. शेखपुरा के विष्णुपुर, लक्ष्मीपुर और कटिहार के बाघमारा प्राइमरी स्कूल जैसे सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं.
बजट सत्र में विधान परिषद सदस्या किरण घई ने विधान परिषद में भवनहीन स्कूलों की समस्या उठाई थी. राज्य के शिक्षा मंत्री प्रशांत कुमार शाही ने भी बच्चों की परेशानी को स्वीकार किया. जवाब में उन्होंने कहा, ''स्कूल भवन के लिए जमीन और आधारभूत संरचना उपलब्ध कराना हमारी पहली प्राथमिकता है. जमीन अधिग्रहण के लिए 2013-14 में 15,000 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है.” बहरहाल, समस्या सिर्फ स्कूल भवन तक सीमित नहीं है. 13,000 स्कूलों में पेयजल की समस्या है. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक, देश के 3.69 लाख स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं, जिसमें बिहार के 33,853 स्कूल हैं. शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) के मुताबिक, राज्य में 94.7 फीसदी स्कूल छात्र-शिक्षक का अनुपात पूरा नहीं करते.
बिहार में साक्षरता दर 63.82 फीसदी है. राज्य सरकार ने 2020 तक शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य रखा है. मौजूदा शैक्षणिक हालात उस लक्ष्य में रोड़ा दिख रहे हैं. राज्य में प्राइमरी शिक्षा की इस बदहाली पर पटना के ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट के प्रो. अजय कुमार झा कहते हैं, ''प्राइमरी और एलिमेंटरी एजुकेशन के मामले में बिहार सबसे नीचे है, फिर भी राज्य सरकार के पास कोई स्थायी नीति नहीं है.” पिछले दिनों पटना में 'समझे-सीखो, गुणवत्ता मिशन’ कार्यक्रम में शाही ने कहा था कि अब हमारी कोशिश क्वालिटी एजुकेशन देना है. उन्होंने दावा किया कि प्रदेश में 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के 2.18 करोड़ बच्चों में से 2.15 करोड़ बच्चों का नामांकन हुआ है, जिसमें ज्यादातर बच्चे सरकारी स्कूलों के हैं. बेशक वे कुछ भी दावे करते रहें लेकिन बिना इमारत के स्कूल से किस तरह की क्वालिटी शिक्षा मिल सकती है, यह बात सब जानते हैं.