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मोदी ने कोविंद के बहाने विपक्ष को घेरा, पर असल निशाना कहीं और है

कोविंद को खारिज करने के बहाने खोजना विपक्ष के लिए आसान काम नहीं होगा. और कांग्रेस अगर इसपर एक पृथक राय बना भी ले तो अपनी राय के पक्ष में अन्य विपक्षी दलों को कोविंद के खिलाफ राजी करना उससे भी अधिक कठिन काम होगा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
पाणिनि आनंद
  • नई दिल्ली,
  • 19 जून 2017,
  • अपडेटेड 7:56 AM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति का सबसे खास पहलू यह है कि मोदी वहां से लिस्ट बनाना शुरू करते हैं जहां पर कयासों की सूची समाप्त होती है. राष्ट्रपति पद के लिए जितने नामों पर पिछले कुछ महीनों से माथापच्ची चल रही थी, उनसे इतर एक नाम देकर मोदी ने एकबार फिर लोगों को चौंका दिया है और यह नाम है बिहार के राज्यपाल और भारतीय जनता पार्टी के नेता रामनाथ कोविंद का.

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कोविंद कम बोलने वाले शालीन चेहरे हैं. विवादों से नाता न के बराबर रहा है. दलित हैं और उत्तर प्रदेश के कानपुर से आते हैं. कोरी बिरादरी का चेहरा हैं जो कि उत्तर प्रदेश में दलितों की तीसरी बड़ी आबादी है और बुंदेलखंड क्षेत्र में अपना खासा प्रभाव रखती है. कोविंद का नाम इसीलिए विपक्ष को एक झटका है.

एनडीए के कुछ घटक, जो किसी अन्य नाम पर नखरे दिखा सकते हैं, शांति से कोविंद के नाम को स्वीकार कर लेंगे. लेकिन सबसे बड़ा असमंजस विपक्ष में है. नीतीश सहित कई नेताओं के लिए कोविंद का विरोध आसान नहीं होगा. कोविंद के विरोध का मतलब एक दलित नाम का विरोध करना होगा.

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मायावती के लिए भी भले ही जाटव न होना एक बहाना हो लेकिन दलित होना जाटव होने से ज़्यादा बड़ी राजनीतिक स्थिति है और मायावती अब इस स्थिति में कैसे विरोध करेंगी? यह उनके लिए सहज नहीं होगा. यही स्थिति नीतीश की है. नीतीश कोविंद के साथ नहीं खड़े होते हैं तो उनकी राजनीतिक विचारधारा से लेकर वोटबैंक तक ग़लत संदेश जाएगा.

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दलित राजनीति वाली दक्षिण की पार्टियां, वाम के गढ़ों में भी एक दलित नाम के विरुद्ध निर्णय कोई सुग्राह्य बात नहीं होगी. सबसे ज़्यादा घिरी नज़र आ रही है कांग्रेस. जगजीवन राम की विरासत वाली पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश के एक दलित के विरुद्ध खड़े हो पाना कोई कम चुनौतीभरा काम नहीं होगा.

विपक्ष ने राष्ट्रपति पद के लिए जिस तीन 'स' वाले सूत्र की शर्त रखी थी वे थी सेक्युलर होना, संविधान में आस्था होना और संसदीय प्रणाली में विश्वास करने वाला होना. कोविंद एक संवैधानिक पद पर हैं. किसी सांप्रदायिक विवाद से उनका सीधा नाता नहीं है और संसदीय प्रणाली के संदर्भ में भी उनका प्रदर्शन बेहतर ही रहा है.

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ऐसे में कोविंद को खारिज करने के बहाने खोजना विपक्ष के लिए आसान काम नहीं होगा. और कांग्रेस अगर इसपर एक पृथक राय बना भी ले तो अपनी राय के पक्ष में अन्य विपक्षी दलों को कोविंद के खिलाफ राजी करना उससे भी अधिक कठिन काम होगा. ऐसे में अगर कोई विकल्प बनता भी है तो वो धाराशायी हो सकता है.

कोविंद के साथ खड़े होना दलित को राष्ट्रपति बनाने के महान उद्देश्य के साथ खड़ा होना बन जाएगा और इसी धारणा के साथ कई दल दूसरे जिताऊ विकल्प के अभाव में कोविंद को समर्थन दे सकते हैं.

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मोदी का असल मकसद
लेकिन ऐसा नहीं है कि मोदी कोविंद के बहाने किसी स्वयंसेवक को राष्ट्रपति भवन में ले आने की तैयारी कर चुके हैं. मोदी दरअसल, इससे भी आगे देख और सोच रहे हैं. उनकी निगाह राजनीति की संख्याओं पर है और संख्याओं के खेल में जो बहुमत आबादी भाजपा के साथ खड़ी होने से बचती रही है, उसे लुभाने की दिशा में यह एक बहुत बड़ा तुरुप का कार्ड साबित होगा.

भारत में अभी तक केवल एक दलित राष्ट्रपति हुए हैं, केआर नारायणन. लेकिन वो दक्षिण से आते थे और उत्तर की राजनीति में उनका दखल और प्रभाव न के बराबर रहा है. ऐसे में यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि अगर कोविंद राष्ट्रपति बन जाते हैं तो उत्तर भारत से पहली बार कोई दलित देश का राष्ट्रपति बनेगा.

कोविंद उत्तर प्रदेश से आते हैं. बहुत कम लोग जानते हैं कि कोविंद आरक्षण बचाओ आंदोलन जैसे सामाजिक प्रयास भी कर चुके हैं. उनकी यह बात अगड़ों की आरक्षण विरोधी अवधारणा के खिलाफ दलितों के हित का एक उदाहरण पेश करती है. यह उदाहरण तब काम आएगा जब दलित राजनीति रटी-रटाई लाइन दोहराएगी कि भाजपा आरक्षण विरोधी है और आरक्षण खत्म कर देगी.

दूसरी अहम बात यह है कि कोविंद उसी उत्तर प्रदेश से आते हैं जहां दलित राजनीति का सबसे बड़ा दल और उसकी नेता रहती हैं. मायावती ने पांच सालों में जिस तरह अपनी ज़मीन खोई है, वहां भाजपा की ओर से रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश एक मज़बूत दखल है और इस संदेश को दलितों के घर-घर तक ले जाने में भाजपा कोई कसर भी नहीं छोड़ेगी.

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मायावती की राजनीति की सांसें जिस तरह उखड़ रही हैं, उससे टूटता हुआ दलित अन्य राजनीतिक दलों की ओर उम्मीद से देखेगा. ऐसे समय में भाजपा उन्हें बताएगी कि कांग्रेस वो पार्टी है जिसमें जगजीवन राम को प्रधानमंत्री नहीं बनाया और हम कोविंद को राष्ट्रपति बना रहे हैं. यह एक मज़बूत संदेश है और राजनीतिक आश्रय खोजती आबादी के लिए एक अनुकूल विकल्प भी.

उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक मोदी इस तरह दलितों के बीच एक मज़बूत संदेश भेज रहे हैं. बिहार, जो मोदी के लिए अभी भी अभेद्य दुर्ग है, वहां मोदी राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति बनाने का फैसला लेकर राज्य को भी खुश कर रहे हैं और राज्य के दलितों को भी. बिहार विधानसभा चुनावों में करारी हार के बावजूद इस तरह की घोषणा बिहार में मोदी के पक्ष में एक संदेश तो भेजती ही है.

गुजरात में दलितों के बीच भी एक अच्छा संदेश मोदी यहां से भेज रहे हैं. दलितों और आदिवासियों ने मोदी को पिछले दो दशकों से गुजरात में जिताया है. पर पिछले कुछ समय से उनके बीच असंतोष बढ़ा है. मोदी गुजरात में भी गैर-पाटीदार वोटों को साधने के लिए एक संदेश इसबार के राष्ट्रपति चुनाव के माध्यम से दे ही रहे हैं.

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2019 के लिए अहम
भाजपा जानती है कि अगले लोकसभा चुनाव तक अगड़ों के बीच उनका जनाधार मज़बूत बना रहेगा. चुनौती है उस संख्या को और बड़ा करना ताकि जिन राज्यों में भाजपा को नुकसान हो सकता है, वहां की भरपाई की जा सके.

राज्यों की राजनीति में जो क्षेत्रीय दल भाजपा के लिए मुसीबत हैं वो अधिकतर दलित नहीं, पिछड़ों की राजनीति वाले दल हैं. ऐसे में पिछड़ों को तोड़ने से आसान काम है दलितों को अपनी ओर खींचना. लेकिन भाजपा को उसके लिए अनुकूल माहौल बनाने की ज़रूरत है. और कोविंद का नाम इसमें एक सार्थक कदम है.

दूसरी बात यह है कि भाजपा की दलित विरोधी छवि को पिछले तीन बरसों के दौरान उत्पीड़न और दलितों की हत्याओं के मामलों ने और हवा दी है. जनरल वीके सिंह की टिप्पणी हो, मामला रोहित वेमूला की आत्महत्या का रहा हो, ऊना के दलितों की पिटाई का या फिर सहारनपुर में घिरने का, मोदी के लिए बहुत आवश्यक है कि भाजपा लगातार बनती दलित विरोधी धारणा को तोड़ें.

कोविंद का नाम इस धारणा को तोड़ने का एक मज़बूत प्रयास है. इस नाम के ज़रिए विपक्ष को बेचैन करना मोदी का प्राथमिक मकसद लग सकता है लेकिन मोदी का लक्ष्य उससे आगे का है और वो आने वाले दिनों में और साफ होता जाएगा.

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