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अभी वे आई नहीं हैं और न ही उन्होंने इसकी घोषणा की है. लेकिन सिर्फ यह खबर आते ही कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रचार की कमान संभालेंगी, जहां-तहां पड़े कांग्रेसी अपने कुर्तों को कलफ देने लगे हैं. 5 जुलाई को जब नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार हो रहा था, उसी समय इस खबर ने समाचार चैनलों की आधी स्क्रीन पर कब्जा जमा लिया.
कांग्रेस ने आखिरकार किया ठोस फैसला
मोदी सरकार के इतने बड़े जलसे के दौरान बुद्धू बक्से का कांग्रेस और बीजेपी में आधा-आधा बंट जाना सूचना प्रसारण की दुनिया में नया तजुर्बा था. इसकी वजह साफ थी कि डेढ़ दशक की हिचक के बाद कांग्रेस ने आखिर तय कर ही लिया है कि उत्तर प्रदेश में फिर से उभरे बिना देश की राजनीति में डंका बजाना नामुमकिन है. और पार्टी अब उस मुकाम पर पहुंच गई है, जब वह किसी और बुरे वक्त के लिए संजीवनी बूटी बचाकर नहीं रख सकती.
क्या है PK की रणनीति?
ताजा घटनाक्रम की पटकथा तभी से लिखी जा रही है, जब से प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का मैनेजर बनाया गया. करीब तीन महीने पहले से इस तरह की खबरें आने लगी थीं कि प्रशांत किशोर ने फॉर्मूला दिया है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस का प्रचार करें और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पेश किया जाए. उस समय ये बातें हवाई लगती थीं, लेकिन 4 जुलाई को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नए प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने 10 जनपथ पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ लंबी मुलाकात की. मुलाकात का सिलसिला अगले दिन भी चला. इसके बाद आजाद ने कहा, 'हम सब चाहते हैं कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रचार करें. हालांकि इस बारे में अंतिम फैसला खुद उन्हीं को करना है. यह खबर गलत है कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश चुनाव अभियान कमेटी की प्रमुख बना दी गई हैं.'
आजाद को प्रभारी के तौर पर आगे किया
दरअसल, यह कांग्रेस की व्यापक रणनीति का हिस्सा है. कांग्रेस सूत्रों की मानें तो उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रशांत किशोर की भूमिका उससे कहीं बड़ी होने जा रही है, जितनी वह अभी नजर आती है. प्रशांत के फॉर्मूले के तहत ही आजाद को भरोसेमंद मुस्लिम चेहरे के तौर पर यूपी भेजा गया है. पार्टी के दूसरे मुस्लिम चेहरे सलमान खुर्शीद कुछ दिन पहले अचानक ट्विटर प्लेटफॉर्म पर उतरे और बीजेपी के खिलाफ धुआंधार मोर्चा खोल दिया.
प्रदेश संगठन का चेहरा बदलने की तैयारी
इसके अलावा जल्द ही उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्मल खत्री को कोई और जिम्मेदारी दी जाएगी. फैजाबाद से सांसद रहे खत्री आचार्य नरेंद्र देव के नाती हैं और गांधी परिवार के बेहद करीबी हैं, लेकिन प्रशांत के जातिगत फॉर्मूले में वे फिट नहीं बैठ रहे हैं. कांग्रेस की रणनीति ब्राह्मण और मुस्लिम, दोनों को अपनी ओर खींचने की है. वैसे, प्रियंका के प्रचार मैदान में उतरने की संभावना से खत्री उत्साहित हैं, 'प्रियंका प्रदेश में चुनाव प्रचार करेंगी तो जनता और कार्यकर्ता, दोनों में नया जोश आएगा. '
शीला दीक्षित पर बड़ा दांव?
शीला दीक्षित को यूपी भेजने की बात पक्की कर ली गई है. खुद दीक्षित ने कहा, ''पहले मैं इस बात को लेकर पसोपेश में थी कि समय बहुत कम बचा है. लेकिन पार्टी जो भी आदेश देगी, उसका पालन करूंगी. '' लेकिन कांग्रेस जल्दबाजी में नहीं है. प्रियंका को मंच पर लाने से पहले कांग्रेस जमीन की मजबूती ठोक-बजाकर देख लेना चाहती है.
प्रत्याशी चयन का मैकेनिज्म
इसकी एक नजीर तो यह है कि आम तौर पर चुनाव से महीने भर पहले प्रत्याशी घोषित करने वाली पार्टी ने प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया जून के पहले हफ्ते से ही शुरू कर दी. इसके तहत हर दावेदार को बूथ प्रतिनिधियों की लिस्ट के साथ अपना बायोडाटा प्रशांत की टीम को ईमेल करना है. इसके बाद प्रशांत की टीम संबंधित दावेदार से फोन पर बात करेगी. कई मामलों में दावेदारों से अपने सभी बूथ प्रतिनिधियों के साथ लखनऊ आने के लिए भी कहा जा रहा है, ताकि उन्हें ट्रेनिंग दी जा सके. इस पूरी कवायद से प्रशांत हर बूथ पर कांग्रेस के लिए कम से कम आठ-दस समर्थकों का डाटा बैंक तैयार कर लेना चाहते हैं जो चुनाव अभियान को जमीनी बनाने में मदद करेगा.
सीधे दावेदारों से जुड़ने की कवायद
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने बताया, 'सच्चाई यह है कि डेढ़ सौ सीटों के अलावा बाकी सीटों पर कांग्रेस के पास ढंग के प्रत्याशी नहीं हैं. ऐसे में कोई कहे या न कहे, वहां प्रशांत किशोर की भूमिका ही सबसे अहम है. उनकी टीम पैनल के तीन नामों के बारे में विधानसभा क्षेत्र के 1,000 लोगों से फोन पर बात करेगी. जिस प्रत्याशी को सबसे ज्यादा लोग ठीक बताएंगे, उसे ही टिकट दिया जाएगा.' कांग्रेस की कोशिश है कि अगस्त तक प्रत्याशियों के नाम फाइनल हो जाएं. यानी प्रियंका के मैदान में आने से पहले कांग्रेस के पास अपने बूथ एजेंटों की 'जिंदा' सूची होगी और हर विधानसभा में कार्यकर्ताओं का बड़ा डाटा बेस होगा. पार्टी में यह चीज अरसे बाद हो रही है.
प्रियंका के आने से कार्यकर्ता उत्साहित
वाराणसी से पूर्व सांसद राजेश मिश्र से इंडिया टुडे ने जब पूछा कि प्रियंका आ भी जाएंगी तो इस कमजोर कांग्रेस को जिलाएंगी कैसे, तो मिश्र ने कहा, 'कांग्रेस कभी काडर बेस पार्टी नहीं रही है, कांग्रेस मास बेस पार्टी है. पार्टी लंबे समय से सत्ता में नहीं है, इसलिए हमारे बहुत से नेता इधर-उधर चले गए. सपा, बीएसपी और बीजेपी में आखिर हमारे पुराने नेताओं के परिवार ही तो हैं. प्रियंका सामने आएंगी तो जनता कांग्रेस के पीछे आएगी और आप देखेंगे कि बहुत से लोग पार्टी में लौटेंगे. असल बात यह है कि कांग्रेस का माहौल बनेगा.' मिश्र उस तरह के नेता हैं जो प्रदेश अध्यक्ष के लिए प्रशांत किशोर की ओर से गढ़े गए फॉर्मूले में जाति और ऊर्जा, दोनों की दृष्टि से समा सकते हैं.
शहरी मतदाताओं पर ज्यादा असर
पार्टी मानकर चल रही है कि प्रियंका के आने का सबसे ज्यादा असर शहरी मतदाता पर दिखेगा. संयोग से इन सीटों पर पारंपरिक रूप से बीजेपी का दबदबा रहा है. यानी इन सीटों पर पारंपरिक वोट के साथ ही प्रियंका के आने से आया उत्साह और ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण मिलकर कांग्रेस की किस्मत बदल सकते हैं.
100 सीटें जीतने का लक्ष्य
वैसे भी पिछले विधानसभा चुनाव में 405 में से सिर्फ 28 सीटें पाने वाली कांग्रेस इस बार 100 सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है. अगर चुनाव चौतरफा हुआ तो कांग्रेस कम वोट हासिल करके भी पर्याप्त सीटें हासिल कर सकती है. लेकिन सूबे के कड़ियल चुनावी मिजाज, जातियों के खांचों में बंटी राजनीति और रह-रहकर होने वाले सांप्रदायिक प्रयोगों में क्या कांग्रेस का अस्त्र वाकई अमोघ बना रहेगा?