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प्रियंका का हाथ, राहुल गांधी के साथ

सोनिया गांधी के अघोषित नेपथ्य में जाने के बाद से राहुल गांधी ही कांग्रेस को चला रहे हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी हर बड़े राज्य में चुनाव हार गई है. ऐसे में बहन ने भाई की मदद को बढ़ाया हाथ. वह खुद को बिना लाइम लाइट में लाए काम कर रही हैं. पर प्रियंका को 2014 के चुनाव में खर्च करने का जोखिम परिवार नहीं लेगा. उन्हें आगे किसी बड़ी जंग के लिए सुरक्षित रखा जाएगा.

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी
जावेद एम. अंसारी
  • नई दिल्ली,
  • 14 जनवरी 2014,
  • अपडेटेड 12:34 PM IST

हर कांग्रेसी की नजर में वे उनके लिए ब्रह्मास्त्र हैं. स्कूल जाने वाले दो बच्चों-13 वर्षीय रेहान और 11 वर्षीया मिराया-की मां प्रियंका गांधी-वाड्रा गांधी परिवार की सबसे आकर्षक सदस्य हैं. वे युवा हैं, करिश्माई हैं और राजनीति में दक्ष हैं. इसी हफ्ते वे अपना 42वां जन्म दिन मना रही हैं. वैसे, ये सारी खूबियां राहुल गांधी में होनी चाहिए थीं.

प्रियंका खुद कहती हैं कि ब्रह्मास्त्र का ‘‘इस्तेमाल केवल एक बार किया जा सकता है.’’ लेकिन कार्यकर्ताओं की तरह ज्यादातर कांग्रेस नेताओं का मानना है कि ब्रह्मास्त्र इस्तेमाल करने की अभी सबसे ज्यादा जरूरत है. भ्रष्टाचार, अक्षमता और एक के बाद एक चुनावों में हार से त्रस्त कांग्रेस के सामने वजूद का संकट खड़ा हो गया है.

कांग्रेस के एक पुराने नेता का कहना है, ‘‘यह कोई सामान्य चुनाव नहीं है. यह हमारे वजूद की लड़ाई है, हम भविष्य में संघर्ष करने के लिए बचे रहने वाला रवैया नहीं अपना सकते. अगर हम हार गए, जैसा अनुमान लगाया जा रहा है, तो अगली जंग के लिए तैयार होने का समय शायद कभी नहीं आएगा.’’

पिछले हफ्ते अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और मधुसूदन मिस्त्री जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ पदाधिकारियों की दिल्ली में हुई एक बैठक में प्रियंका की मौजूदगी से सियासी अटकलबाजी शुरू हो गई कि क्या वे राजनीति में आएंगी.

उन्हें गांधी परिवार का सबसे आकर्षक व्यक्ति माना जाता है लेकिन वे अब तक बड़े सलीके से किसी भी तरह की औपचारिक राजनैतिक भूमिका से परहेज करती रही हैं. हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रियंका 2014 के चुनाव की तैयारी के साथ ही अपने भाई की मदद बढ़-चढ़कर करने वाली हैं.

वे राजनीति में न होते हुए भी सक्रिय हैं और अपने कामकाज का दायरा बढ़ा रही हैं. ऐसे में कांग्रेस के साथ ही विपक्ष की नजरें उन पर होंगी.

पार्टी के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं प्रियंका
उनके लिए यह भूमिका कोई नई नहीं है. वे हमेशा से कांग्रेस में पर्दे के पीछे रही हैं और सक्रिय राजनीति से दूर रहकर ही अपने भाई और मां के लिए चुनाव प्रचार किया है. वे हर महत्वपूर्ण मौके पर उनके साथ नजर आई हैं, चाहे वह 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री पद को ठुकराने का मामला हो या जनवरी 2013 में जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में राहुल गांधी का स्वीकारोक्ति भाषण हो.

परिवार के एक करीबी व्यक्ति याद करते हुए बताते हैं कि 8 मार्च, 1988 को सीरी फोर्ट में कांग्रेस अधिवेशन में वे अपनी मां को गाड़ी में ले जाते समय उनका हाथ थामे हुए थीं. गांधी परिवार की तीन पीढिय़ों से जुड़े एक वरिष्ठ कांग्रेसी का कहना है, ‘‘वे बहुत मजबूत शख्सियत वाली महिला हैं और जब भी परिवार पर कोई संकट होता है वे बहुत कारगर होती हैं.’’

पिछले दो साल में कांग्रेस 16 विधानसभा चुनावों में से 12 में हार गई. अगर चुनाव विशेषज्ञों की मानी जाए तो इस साल होने वाले आम चुनाव में पार्टी हार की ओर बढ़ती नजर आ रही है. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि मायूस कांग्रेस कार्यकर्ता अपनी नैया पार लगाने के लिए प्रियंका से उम्मीद लगाए हुए हैं.

उन्होंने अकेले दम पर 1999 में बेल्लारी चुनाव को अपनी मां के पक्ष में मोड़ दिया और सुषमा स्वराज को हार का मुंह देखना पड़ा. उनके पिता के रिश्तेदार अरुण नेहरू 1999 में रायबरेली से बीजेपी के उम्मीदवार बने तो प्रियंका ने ही उनके खिलाफ हमला बोला और उन्हें गैर-वफादार करार दिया.

लेकिन उन्होंने अपने पिता के उस रिश्तेदार को भुलाया नहीं. पिछले साल जुलाई में उनकी मृत्यु हुई तो प्रियंका के बेटे रेहान ने ही उनकी चिता को आग लगाई.

जहां तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का सवाल है तो उनका मानना है कि वे उन्हें बढ़त दिला सकती हैं और राष्ट्रीय मंच पर उनका जादू चल सकता है. लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करने के बावजूद वे अमेठी और रायबरेली की 12 विधानसभा सीटों में केवल तीन में ही वे पार्टी को जीत दिला सकीं.

राजनैतिक विश्लेषक स्वप्न दासगुप्ता का कहना है, ‘‘भले ही वे समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भर दें लेकिन देश में कांग्रेस विरोधी जबरदस्त भावना के मद्देनजर यह वक्त खराब है.’’

पार्टी बुरे हाल में है, कार्यकर्ता मायूस हो चुके हैं, ऐसे में आश्चर्य नहीं कि राहुल गांधी राजनैतिक सूझ-बूझ और विचारों के लिए अपनी बहन पर भरोसा कर रहे हैं. इंदिरा गांधी के जमाने से ही पार्टी से जुड़े एक नेता का कहना है, ‘‘कुछ लोगों में नेतृत्व की खूबियां जन्मजात होती हैं, वे उन्हीं लोगों में शुमार हैं.’’ नाम न छापने के आग्रह के साथ गांधी परिवार के एक करीबी का कहना है, ‘‘जब राजीव की हत्या हुई थी तब 10 जनपथ पर सबसे पहले पहुंचने वालों में मैं भी था.

सोनियाजी काफी परेशान थीं, हालांकि प्रियंका बहुत छोटी थीं लेकिन वे काफी धीरज रखे हुई थीं. वे 10 जनपथ की व्यवस्था संभालने के साथ ही राजीव के पार्थिव शरीर को श्रीपेरुंबुदूर से लाने की निगरानी कर रही थीं. उन्होंने पार्थिव शरीर को लाने की प्रक्रिया तेज करने के लिए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को फोन किया.’’


कांग्रेस की बंद मुट्ठी हैं प्रियंका
गांधी परिवार के लिए प्रियंका हमेशा से रक्षक की भूमिका में रही हैं. उनकी भूमिका ऐसी है जिसमें वे खुद लाइम लाइट में नहीं आतीं बल्कि वे खुद को जान-बूझकर पीछे कर लेती हैं. वे गांधी परिवार की रथी योद्धा नहीं, सारथी हैं जो युद्ध की रणनीति बनाने से लेकर सलाहकार और जरूरत पडऩे पर हथियार लेकर सीधे बचाव में उतरने तक हर भूमिका में सक्रिय होती हैं. जब भी परिवार संकट में होता है, प्रियंका को आप सामने रहकर जूझते देख सकते हैं.

1999 में जब सोनिया गांधी एक साथ अमेठी और कर्नाटक के बेल्लारी में लोकसभा चुनाव लड़ रही थीं और सुषमा ने कन्नड़ में भाषण देकर सारी चुनावी महफिलें लूट ली थीं, तब कांग्रेस ने प्रियंका को याद किया और फिर प्रियंका ने बेल्लारी को एक दिन के तूफानी रोड शो से जिस तरह फतह कर लिया, वह कांग्रेस के राजनैतिक इतिहास का अविस्मरणीय क्षण बन गया.

प्रियंका गांधी अपने स्थिर चित्त और अविवादित व्यक्तित्व के कारण भी कांग्रेस की पूंजी हैं. पति रॉबर्ट वाड्रा की तरह चर्चाओं में रहना उन्हें स्वीकार्य नहीं है. पति से जुड़े किसी भी आर्थिक लेन-देन में उनका नाम नहीं जुड़ता है. आज तक उनका कोई ऐसा बयान नहीं आया है जिनसे यह लगता हो कि देश के सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक परिवार का सदस्य होने के नाते वे किसी पद को चाहती हैं. बल्कि बार-बार उन्होंने यही कहा है कि वे राजनीति में नहीं आएंगी और उनका उद्देश्य सिर्फ लोगों और पार्टी की सेवा करना है. अमेठी और रायबरेली में अपने प्रचार के दौरान उन्हें गरीबों-दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ बेहद सहज होकर मिलते-जुलते देखा जा सकता है.

इंदिरा गांधी का अक्स
रायबरेली के शिवगढ़ ब्लॉक के धौकलगंज गांव में रहने वाली 45 वर्षीया कलावती से मिलिए तो वह सारे काम छोड़कर प्रियंका गांधी के किस्से सुनाने बैठ जाती हैं. कलावती का उस वक्त आश्चर्य का ठिकाना नहीं था जब 18 नवंबर की दोपहर खेत में धान काटते वक्त अचानक प्रियंका गांधी उनके खेत में पहुंच गईं थीं.

कलावती ने प्रियंका को अपनी हंसिया देकर उन्हें धान काटने का तरीका सिखाया था. प्रियंका कलावती और गांव की कुछ महिलाओं के साथ खेत में करीब आधा घंटा बिताकर वापस लौटने लगीं तो गाड़ी पर बैठने से पहले एक ग्रामीण रामटहल मौर्य ने उन्हें रोक लिया. कहा, ‘‘बिटिया एक गीत सुने जाव्य्य. इस पर प्रियंका गाड़ी से उतर आईं और उनका गीत सुना.

रामटहल ने गीत सुनाया, ‘‘आइ लहर सोनिया जी के सबकै दुअरिया, नजरिया सबके पंजा पर रहो, राजीव, इंदिरा स्वर्ग में बैठो खोई सारी दुनिया.’’ गीत सुनकर प्रियंका भावुक हुईं और ग्रामीण को धन्यवाद देते हुए आगे बढ़ गईं.

प्रियंका गांधी जिस तरह सुरक्षा के सारे तामझाम को किनारे रखकर अपनी मां के संसदीय क्षेत्र में लोगों से मिलीं, उसने उन सभी बातों का जवाब दे दिया कि आखिर क्यों लोग प्रियंका में उनकी दादी इंदिरा गांधी का अक्स देख रहे हैं.

अक्तूबर महीने में इलाहाबाद शहर कांग्रेस ने लोक सभा चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू की कर्मभूमि फूलपुर संसदीय क्षेत्र से प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाए जाने की मांग का प्रस्ताव पारित कर सियासत में गरमाहट पैदा कर दी.

इसके बाद शहर कांग्रेस के सचिव हसीब अहमद और यूथ कांग्रेस के सदस्य श्रीशचंद्र दुबे ने सिविल लाइंस में एक होर्डिंग लगाकर सोनिया गांधी को बीमार बताते हुए प्रियंका गांधी को प्रत्याशी बनाने की मांग कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया. कांग्रेस ने तुरंत ही इन दोनों नेताओं को निलंबित कर मामले को संभालने की कोशिश की.

भाई-बहन की शख्सियत में फर्क
प्रियंका और राहुल की शख्सियत में काफी अंतर है. राहुल मेहनती, भावुक, नीरस, और जिद्दी हैं. साथ ही भाषण देने में सहजता महसूस नहीं करते. दूसरी ओर, प्रियंका में जबरदस्त आकर्षण है, वे धाराप्रवाह हिंदी बोलती हैं और लोगों के साथ बड़े आराम से घुल-मिल जाती हैं. वे हाजिरजवाब भी हैं और अपनी प्रतिक्रिया से अकसर विरोधियों को पानी-पानी कर देती हैं.

सोनिया के विदेशी होने के बीजेपी के अभियान से प्रियंका काफी आहत थीं. विदेशी महिला की बेटी करार दिए जाने पर उन्होंने यह कहकर अपने विरोधियों को चकित कर दिया था, ‘‘आपको लगता है मेरी रगों में कोई विदेशी खून दौड़ रहा है.’’

इसी तरह जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को ‘‘बुढिय़ा’’ कहा तो उन्होंने पलटवार किया कि ‘‘मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं.’’ कांग्रेसी उनमें जवाहरलाल नेहरू की हाजिरजवाबी और इंदिरा गांधी की दृढ़ता एक साथ देखते हैं.

विडंबना ही है कि ऐसे समय में जब कांग्रेस राहुल को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की तैयारी कर रही है, पार्टी के कई लोग प्रियंका गांधी को मुक्तिदाता मान रहे हैं. कई पुराने कांग्रेसी, यहां तक कि पार्टी और परिवार से दरकिनार कर दिए गए नटवर सिंह जैसे लोग उनकी तारीफ कर रहे हैं.

नटवर सिंह ने गांधी परिवार की चार पीढिय़ों के  साथ काम किया है और राहुल तथा प्रियंका, दोनों को बड़ा होते देखा है. उनका कहना है, ‘‘उनमें (प्रियंका में) राजनैतिक प्रवृत्ति है. उनमें अपनी दादी की सियासी सूझ-बूझ और पिता की करुणा और अच्छाई है.’’

मां, बेटी, बहन और पत्नी के रूप में प्रियंका अपने परिवार और सार्वजनिक जीवन के बीच संतुलन बनाना जानती हैं. उन्हें भी अंदाजा है कि वे परिवार की सबसे लोकप्रिय सदस्य हैं लेकिन मां तथा भाई को सुर्खियों में बनाए रखने के लिए खुद उनके साये में रहती हैं. सूती साड़ी या चूड़ीदार कुर्ते में वे अमेठी-रायबरेली के ग्रामीणों को पूर्व प्रधानमंत्री और अपनी दादी इंदिरा गांधी की याद दिलाती हैं.

अपने भाई के उलट, अपनी सहज बुद्धि पर भरोसा करती हैं और झ्टपट फैसला करती हैं. अपनी दोस्तों के बीच किसी तरह का दिखावा न करने वाली प्रियंका को बच्चे पसंद हैं. पिता की तरह ही वे भी फोटोग्राफी की शौकीन हैं और इसी की वजह से उन्होंने बाघ पर तस्वीरों वाली किताब लिख डाली.

गांधी परिवार के एक करीबी व्यक्ति का कहना है कि उन्हीं की पहल पर नई दिल्ली स्थित राजीव गांधी फाउंडेशन की बेसमेंट को बच्चों की खूबसूरत लाइब्रेरी में तब्दील कर दिया गया. स्कूलों के बच्चे वहां विभिन्न विषयों पर पुस्तक पढ़ते हुए पूरा दिन गुजार सकते हैं.

वे अनाथ बच्चों के लिए भी समय निकाल लेती हैं. नई दिल्ली के जंगपुरा स्थित मिशनरीज ऑफ चैरिटी को गिफ्ट देती हैं. यह संस्था मदर टेरेसा द्वारा स्थापित की गई थी और कुष्ठ रोगियों की सेवा इसका प्रमुख काम है.

प्रियंका में आधुनिक शहरी महिला के सारे गुण हैं. वे इसके अलावा बच्चों के लिए खाना बनाने से लेकर उन्हें छुट्टियों में घुमाने के लिए ले जाने तक सभी कामों में दिलचस्पी लेती हैं. तो 35 लोधी एस्टेट स्थित अपने आवास पर आने वालों को अपने बेक किए हुए व्यंजन भी खिलाती हैं.

आध्यात्मिक तौर पर वे खुद को बौद्ध धर्म के करीब मानती हैं. सेहत दुरुस्त रखने के लिए वे अपने पति रॉबर्ट वाड्रा की तरह नियमित रूप से जिम नहीं जातीं लेकिन योगा करती हैं.

कांग्रेस पर नजर रखने वाले लोगों का मानना है कि सियासी मामलों में वे अपनी मां और भाई के मुकाबले ज्यादा फौरी फैसले करती हैं. वे अपनी मां और भाई के निर्वाचन ह्नेत्र के कार्यकर्ताओं के साथ आसानी से घुल-मिल जाती हैं.

अगर कोई उन्हें अच्छा विचार सुझाए तो वे फौरन उसे लपक लेती हैं और उसे अमली जामा पहनाती हैं. यही नहीं, वे अपने भाई के उलट, मीडिया से कतराती नहीं हैं. उन्हें भलीभांति मालूम है कि मीडिया किस पहलू पर फोकस करेगा. वे जान-बूझकर फोटोग्राफरों को ऐसे पल और पोज देती हैं, जो अगले दिन के अखबारों में छाया रहता है. वे जब भी बोलती हैं, मीडिया को सुर्खियां मिल जाती हैं.

राहुल के दम, नैया पार लगने की उम्मीद कम
प्रियंका के सक्रिय राजनीति में प्रवेश के कयास यूं ही नहीं लगाए जा रहे हैं. पार्टी के करीबी लोगों का मानना है कि पिछले दो माह में महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी दखलंदाजी बढ़ गई है. दरअसल, कांग्रेस उपाध्यक्ष अब तक चुनावी राजनीति में विफल रहे हैं. पिछले दो साल में देश के 16 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं.

कर्नाटक के सुखद संयोग को छोड़ दें तो हर बड़े राज्य का चुनाव राहुल को मुंह चिढ़ाता चला गया. कर्नाटक की जीत कांग्रेस की जीत है या बीजेपी और बी.एस. येद्दियुरप्पा की आपसी लड़ाई की हार, यह विवाद का विषय है. इन 16 राज्यों की कुल 1,974 सीटों में कांग्रेस के पास महज 583 विधानसभा सीटें रह गईं, वहीं बीजेपी की विधानसभा सीटें बढ़कर 701 तक पहुंच गईं.

अन्य दलों की संयुक्त ताकत भी 690 के आंकड़े के साथ कांग्रेस से कहीं भारी है. तो क्या 400 से ज्यादा लोकसभा सीटें देकर 1984 में राजीव गांधी का इस्तकबाल करने वाला देश उनके साहबजादे को तीसरे नंबर की पार्टी का मुखिया बनाना चाहता है?

एक और बड़ा खतरा पार्टी के सिर पर आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में मंडरा रहा है. लुटियंस की दिल्ली के अलग-अलग बंगलों से राहुल गांधी भारी-भरकम रणनीतियां बनाते रहे और वहीं उसकी सबसे सफल मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 25,000 से ज्यादा वोटों से हराकर अरविंद  केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए. दिल्ली में अगर आप ने किसी का सूपड़ा साफ किया तो वह कांग्रेस थी.

कांग्रेस और आप दोनों ही इन्क्लूसिव ग्रोथ की बात करती हैं और दोनों ही आम आदमी की पैरोकार हैं. दोनों का विचार सेकुलर है. दोनों का जन्म मध्यवर्गीय आंदोलन से हुआ है. कांग्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब उसे एक तरह से अपने क्लोन से लडऩा पड़ रहा है. एक ऐसा क्लोन जो उससे कहीं ज्यादा जुनूनी है और उन विचारों के ज्यादा करीब है जिन पर अब तक कांग्रेस का कॉपीराइट था.

हर हाल में भाई की मदद
कांग्रेसियों को लगता है कि प्रियंका के पास उस कॉपीराइट को दोबारा हासिल करने का दम है. उन्होंने अमेठी-रायबरेली में ऐसा कर दिखाया है. 2012 का विधानसभा चुनाव का परिणाम यूपी में कांग्रेस के लिए चारों खाने चित होने जैसा था. कांग्रेस को महज 28 सीटों से ही संतोष करना पड़ा लेकिन सबसे बुरी खबर रायबरेली और अमेठी से आई.

रायबरेली संसदीय क्षेत्र की पांच विधानसभा सीटों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल पाया और जिस अमेठी ने राहुल गांधी को 2009 के लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड चार लाख से अधिक वोटों से जिताया था, उसी इलाके की पांच विधानसभा सीटों में से दो जीतने में पार्टी की सांस फूल गई.

चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजहें तलाशने के लिए जब जुलाई 2011 में राहुल गांधी ने दिल्ली में अमेठी और रायबरेली के कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई तो उसमें मौजूद प्रियंका गांधी को पार्टी की असल ‘‘बीमारी’’ समझने में देर न लगी. अब उनकी पहल पर रायबेरली और अमेठी में ग्राम पंचायत स्तर पर नया संगठन बनकर तैयार है.

दोनों संसदीय क्षेत्रों में शहर, जिला से लेकर वार्ड और गांव स्तर तक कांग्रेस कमेटी का गठन करने से पहले आम जनता के बीच से इसमें शामिल होने की इच्छा रखने वालों से बायोडाटा मंगाया गया. इसके बाद राहुल और प्रियंका गांधी ने खुद इंटरव्यू लेकर सभी कमेटियों के अध्यक्षों का चुनाव किया है. कमेटियों में 90 प्रतिशत नए चेहरों को जगह दी गई है.

प्रियंका ने इन्हीं कार्यकर्ताओं के बूते रायबरेली और अमेठी में-कांग्रेस आपके द्वार-योजना शुरू की है. अमेठी जिला कांग्रेस अध्यक्ष योगेंद्र मिश्र बताते हैं कि ‘‘15 जनवरी तक अमेठी की सभी 768 ग्राम पंचायतों में नया संगठन खड़ा हो जाएगा. लोकसभा चुनाव में राहुल और ज्यादा वोटों से जीतेंगे.’’

कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि रायबरेली की तरह ही प्रियंका पूरे देश में कांग्रेस को नया रास्ता सुझा सकती हैं. जानकार बताते हैं कि रा“ल को सियासत में लाने के लिए उन्होंने सबसे ज्यादा पहल की थी और वे उन्हें सफल बनाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेंगी.

सीडब्ल्यूसी के एक सदस्य का कहना है, ‘‘वे अपने भाई की मदद और उनके प्रयासों को बढ़ावा देंगी. सियासत और सत्ता के आकर्षण से लोग फिसल जाते हैं, लेकिन वे कभी ऐसा कोई काम नहीं करेंगी जिससे उनका भाई तनिक भी नजरअंदाज हो.’’

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राहुल को रथ पर सवार करेगी और सारथी होंगी प्रियंका.
(-साथ में पीयूष बबेले, जतिन गांधी और आशीष मिश्र)

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