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राहुल की पीठ पर सवार आरएसएस का बेताल, संघ से कैसे निपटेगी कांग्रेस?

महिला कांग्रेस के कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरएसएस में महिलाओं की एंट्री नहीं होने का सवाल उठाया. यही बात उन्होंने अपने हाल ही में जर्मनी दौरे पर बर्लिन में भी दोहराई.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (फाइल फोटो) कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (फाइल फोटो)
विवेक पाठक
  • नई दिल्ली,
  • 31 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 9:09 AM IST

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने आराध्य शिव के दर्शन करने कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जा रहे हैं. याद करिए लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल गांधी का भाषण जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें शिव और हिंदू होने का मतलब सिखाया. जो जहर संघ-भाजपा में उनको लेकर है, वो उनके (राहुल) अंदर संघ-भाजपा के लिए तनिक भी नहीं है. एक तरह से राहुल ने खुद को नफरत के जहर को आकंठ करने वाले नीलकंठ की संज्ञा भी दे दी. तो वहीं इशारों-इशारों में संसदीय मर्यादा का पालन करते हुए संघ और भाजपा पर हमला भी बोल दिया.

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एक वाकया है दिल्ली के जवाहर भवन में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की याद में देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों का जुटान हुआ. जिसमें कांग्रेस के क्रियाकलापों से इत्तेफाक न रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल थे. राहुल गांधी दर्शक दीर्घा में बैठे थे. एक-एक करके तमाम बुद्धीजीवि कांग्रेस की आलोचना भी कर रहे थे और आरएसएस को न रोक पाने में कांग्रेस की नाकामी भी याद दिला रहे थे.

राहुल गांधी ने कांग्रेस की आलोचनाओं पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन जब बात आरएसएस की आई तो दर्शक दीर्घा से हाथ खड़ा करके बोले कि आप लोग आरएसएस से अपने विचार और लेखनी के माध्यम से लड़ते हो. लेकिन हमारे लाखों कार्यकर्ता आरएसएस से हर पल, हर वक्त कहीं न कहीं संघर्ष कर रहे होते हैं.

आरएसएस को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के विचार किसी से छिपे नहीं हैं. देश का कोई भी मुद्दा हो राहुल आरएसएस को उस मुद्दे से जोड़कर तीखा हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. 

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राहुल ने कब-कब आरएसएस को क्या-कया कहा?

अक्टूबर 2010 में, जब राहुल कांग्रेस के महासचिव थे तब उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) में कोई अंतर नहीं है.

लेकिन आरएसएस पर राहुल का सबसे ज्यादा चर्चित भाषण था, 6 मार्च, 2014 की एक रैली का, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के लिए आरएसएस को जिम्मेदार बताया था. इस भाषण पर भिवंडी, महाराष्ट्र में राहुल पर मानहानि भी चल रहा है. और कोर्ट के निवेदन के बावजूद राहुल अपने बयान पर कायम रहते हुए मामले का सामना करने पर अड़े हैं.

वहीं कांग्रेस द्वारा आयोजित ओबीसी सम्मेलन में राहुल ने कहा था कि, बीजेपी के 4-5 ओबीसी सांसद एक बार उनके पास आए तो उन्होंने पूछा कि क्या हो रहा है? तब उन लोगों ने कहा- 'मेरे जैसा बेवकूफ कोई नहीं है, मैं इनको लाया, मैंने इनको प्रधानमंत्री बनाया लेकिन अब ये ही मेरी बात नहीं सुन रहे हैं.' उन्होंने कहा कि बात सिर्फ आरएसएस की सुनी जाती है.' राहुल ने कहा कि हिंदुस्तान बीजेपी-आरएसएस का गुलाम बन कर रह गया है.

जुलाई में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने बीजेपी शासित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य का उल्लेख करते हुए आरोप लगाया था कि यहां की राज्य सरकारें सरकारी खजाने का पैसा चोरी से शिशु मंदिर स्कूलों सहित आरएसएस की तमाम संस्थाओं को दान कर रही हैं.

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अभी कुछ ही दिन पहले इंग्लैंड दौरे पर गए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लंदन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बड़ा हमला बोला. उन्होंने आरएसएस की तुलना मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड से कर दी. उन्होंने कहा कि आरएसएस की सोच मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी है. आरएसएस भारत की प्रकृति को बदलने की कोशिश कर रहा है. अन्य पार्टियों ने भारत की संस्थाओं पर कब्जा करने के लिए कभी हमला नहीं किया, लेकिन आरएसएस कर रहा है.

आरएसएस पर हमला क्यों कर रहे हैं राहुल?

दरअसल आरएसएस हमेशा से दीर्घकालिक रणनीति पर काम करता है. आज की तारीख में संघ देश के बड़े निर्णायक फैसलों को प्रभावित करने की हैसियत रखता है. तो वहीं सरकार और सरकार के बाहर संघ से जुड़े लोग अहम ओहदों पर काबिज हैं. आरएसएस पर अक्सर एकांतिक होने का तमगा लगता है, जिसमें किसी अन्य विचारधारा की कोई जगह नहीं है. अपनी इसी छवि से बाहर निकलने के लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत बड़े-बड़े शहरों में विचारधारा के बारे में लोगों को अवगत करा रहे हैं. ऐसा ही एक कार्यक्रम कुछ दिनों पहले मुंबई में हुआ था जिसमें संघ से ताल्लुक नहीं रखने वाले नेता भी शामिल हुए थे.

आजादी के बाद से देश की वैचारिक धुरी गांधीवादी समावेशी राष्ट्रीयता के इर्द गिर्द घूमती रही. गांधी की हत्या के बाद पंडित नेहरू ने इसे आगे बढ़ाया. तमाम मतभेदों और मनभेदों के बावजूद बीजेपी को छोड़कर चाहे वाम हो या समाजवादी विचारधारा कम से कम गांधी और नेहरू के विचारों के नाम पर सब एक थे. कांग्रेस की सत्ता से पकड़ कमजोर होने के बाद आरएसएस को विस्तार का मौका मिला और आज देश में 84000 शाखाएं संचालित की जा रही है.

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विस्तार के लिहाज से आरएसएस ने मोदी सरकार में काफी कुछ हासिल किया. लेकिन उसकी विचारधारा को संपूर्ण स्वीकार्यता वैसी नहीं मिली जिसकी उसे उम्मीद थी. लाख कमियों के बावजूद अभी भी अगर गांधी-नेहरू खानदान की आवाज तमाम राजनीतिक दलों और कांग्रेस को आरएसएस के खिलाफ एकजुट कर देती है, तो यह उस वैचारिक विरासत की मजबूत पकड़ ही तो है. लिहाजा आरएसएस लगातार इस कोशिश में है कि किसी तरह अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई जाए और गांधी-नेहरूवादी आम समहति को प्रतिस्थापित करते हुए देश की विचारधारा का केंद्र बना जाए, जिसके इर्द गिर्द देश की राजनीति घूमे.

पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के बड़े नेता प्रणब मुखर्जी को आरएसएस के तृतीय वर्ष कार्यक्रम में बुलाना संघ की इसी दीर्घकालिक रणनीति का टेस्ट था. जिसमें संघ कामयाब भी रहा. इसी रणनीति की अगली पटकथा दिल्ली में 17-19 सितंबर तक होने वाले कार्यक्रम 'भारत का भविष्य: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' में लिखी जानी है. जिसके लिए आरएसएस तमाम राजनीतिक दलों को न्योता दे रही है.

संघ की कोशिश नेहरू-गांधी परिवार को किनारे धकेलते हुए कांग्रेस के सभी पुरोधाओं को हथिया लेने व उनमें खुद के प्रति स्वीकार्यता बनाने की है. वहीं राहुल गांधी अपने बयानों से आरएसएस को किनारे धकेलने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन यहां राहुल के पास वैचारिक विरासत तो है पर जमीन पर उतारने के लिए प्रचारित और प्रसारित करने वाला कैडर नहीं है.

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राहुल कैसे बचाएंगे गांधी-नेहरू की वैचारिक विरासत?

विचारों के विस्तार के लिए जो चीज सबसे जरूरी होती है, वो है निष्काम भाव से कार्य करने वाला कैडर. जो आज की तारीख में आरएसएस के पास है. आरएसएस का कैडर बिना किसी पद या चुनावी महत्वाकांक्षा के संगठन के विचारों को फैलाने में लगा रहता है. लकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है. आज कांग्रेस से जुड़ने वाला हर व्यक्ति किसी न किसी पद व चुनावी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता है. कभी कांग्रेस के पास ऐसा कैडर भी था जिसे आज हम 'सेवादल' के नाम से जानते हैं.

कांग्रेस सेवा दल का गठन वर्ष 1923 में हिंदुस्तान सेवा दल के नाम से हुआ था. बाद में इसे कांग्रेस सेवा दल का नाम दे दिया गया. जबकि इसके करीब दो साल बाद 27 सितंबर 1925 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में संघ की स्थापना की. संघ से दो साल पहले बना सेवादल न सिर्फ उसके मुकाबले काफी पिछड़ गया और अब खत्म होने की कगार पर है. जिसे अब कांग्रेस की तरफ से पुनर्जीवित करने की जरूरत महसूस हो रही है.

आजादी के बाद जब कांग्रेस के नेता सरकार चलाने में व्यस्त हो गए तब सेवा दल ने कांग्रेस को आगे बढ़ाने की कोशिश की. आजादी के बाद सत्ता में काबिज कांग्रेस को आपातकाल के बाद पहली और सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा. देश के बदले माहौल में जनता पार्टी की सरकार के गठन के बाद कांग्रेस को सेवा दल की याद आई. इंदिरा गांधी ने सेवा दल को खड़ा किया. राजीव गांधी ने सेवा दल के शिविर में जाकर 1983 में में सात दिनों का प्रशिक्षण लिया.

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लेकिन फिर सत्ता के मद में पार्टी सेवादल को भूल गई और इसकी भूमिका पार्टी के कार्यक्रमों में अनुशासनात्मक औपचारिकता तक सीमित रह गई. एक बार फिर वो समय आ गया है जब कांग्रेस सेवादल को लेकर संजीदगी से विचार कर रही है. माना जा रहा है कि सेवादल के विस्तार का कार्य रायबरेली और अमेठी से शुरू होगा.

एक पुराने सेवादल के कार्यकर्ता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का कहना है कि जब तक कांग्रेस सेवादल सक्रिय रहा, तब तक कांग्रेस आरएसएस की हर चाल की काट आसानी से निकालने में कामयाब होती रही. लेकिन धीरे-धीरे सेवादल कमजोर होता गया और आरएसएस मजबूत होता गया. 

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