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हरियाणा में तीन साल से कांग्रेस का कोई स्थायी प्रदेश अध्यक्ष नहीं था. जब पार्टी अध्यक्ष फूलचंद मुलाना ने इस्तीफा दिया तो पार्टी से पुराने स्टाइल में उनके इस्तीफे की मंजूरी या नामंजूरी पर किसी ने कुछ नहीं कहा. मुलाना ने व्यावहारिक तौर पर कोई अधिकार न होते हुए भी जब काम जारी रखा तो हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने सोचा कि चुनावी शो का संचालन वहीं करेंगे. लेकिन अचानक फरवरी में राहुल गांधी के गुट के अशोक तंवर को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया. लिहाजा चुनावी अभियान की बजाए कांग्रेस की लड़ाई हुड्डा बनाम तंवर में ही सिमट गई.
महाराष्ट्र की कहानी इससे अलग है. वहां माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की राजनैतिक क्षमता बहुत ज्यादा नहीं है. लेकिन असल में उनकी ख्वाहिश नए मराठा नेता के तौर पर उभरने की थी. इसका साफ मतलब था शरद पवार पवार और एनसीपी की ताकत कम करना. इसलिए गठबंधन सहयोगियों के बीच लड़ाई छिड़ गई और गठबंधन टूट गया. राहुल ने एनसीपी के साथ भागीदारी आगे ले जाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई और महाराष्ट्र में हालात बिगडऩे दिए. शरद पवार भी एनसीपी को छोटी पार्टी के बतौर प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कांग्रेस से अलग हो गए. वहीं राहुल के एक अन्य समर्थक मोहन प्रकाश ने महाराष्ट्र के पार्टी महासचिव-प्रभारी के तौर पर दिल्ली से महाराष्ट्र की कमान अपने हाथ में ले ली. हालात तब और उलझ गए जब सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल ताकतवर अशोक चव्हाण के समर्थन में आ गए.
दोनों राज्यों में आक्रामक कैंपेन की अनिच्छा के बावजूद राहुल और उनकी टीम ने इन चुनावों की रणनीति में अपनी स्थिति मजबूत कर ली और प्रभावकारी तथा अहम फैसले किए. उन फैसलों ने अपेक्षा के अनुरूप नतीजे नहीं दिए. महाराष्ट्र में इसने एनसीपी से जल्दी मुंह मोड़ लिया तो हरियाणा में तंवर की खुद को ताकतवर बनाने की महत्वकांक्षा दिखी. इससे भी बुरा यह कि उन्होंने स्थानीय कांग्रेस संगठनों को भंग कर दिया. यानी जिला और ब्लॉकों में पार्टी के संगठनकर्ता पूरे कैंपेन के दौरान व्यावहारिक तौर पर मौजूद नहीं रहे. नतीजे इसका खुलासा करते हैं क्योंकि उनके कई उम्मीदवार तो तीसरे नंबर पर भी नहीं रहे.
कई मायनों में लोकसभा चुनावों की तरह ही एक बार फिर हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह राहुल पदाधिकारियों और क्षत्रपों के खिलाफ साहस दिखाने में नाकाम रहे. उनके उम्मीदवार उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे जो कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की रणनीति पर सवाल उठाता है. पार्टी को सबसे अधिक नुक्सान उनके अस्पष्ट ऐक्शन प्लान ने पहुंचाया. न तो वे हरियाणा में हुड्डा को छोड़ पाए और न ही महाराष्ट्र में एनसीपी के अलग होने के बाद कोई वैकल्पिक योजना बना पाए.
अब भी उनके समर्थकों ने हार नहीं मानी है. तंवर पार्टी में पीढ़ीगत बदलाव चाहते हैं, ‘‘पार्टी में नए चेहरों को ज्यादा प्रतिनिधित्व और जिम्मेदारी देने की जरूरत है.’’ वहीं वरिष्ठ नेता सावधानी बरत रहे हैं. पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं, ‘‘कैंपेन ठीक है, पर राहुल को लोगों के बीच नजर आना चाहिए. उन्हें लगातार देशभर के हिस्सों का दौरा करना चाहिए और युवाओं से जुडऩे के लिए ट्विटर और सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफॉर्म को ज्वाइन करना चाहिए.’’
अब कांग्रेस की वापसी इस बात पर निर्भर है कि राहुल मध्यस्थों की नियुक्ति की बजाए बुनियाद को कैसे मजबूत बनाते हैं. जनार्दन द्विवेदी कहते हैं, ‘‘हमें खुद से पूछना होगा कि हमने कहां गलती की. हमें इस नजरिए से बाहर आना होगा कि कांग्रेस की नियति राज करने की है.’’ यह समय राहुल के लिए इन सवालों के सही जवाब खोजने का है.