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उठकर खड़े होने की कांग्रेस की कशमकश

कांग्रेस उपाध्यक्ष अब साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेताओं को शामिल करके पार्टी को नए सिरे से खड़ा करना चाहते हैं. पार्टी के ही नेताओं का दावा कि थरूर इस योजना के अनुरूप नहीं लग रहे थे.

कौशिक डेका
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  • 20 अक्टूबर 2014,
  • अपडेटेड 12:57 PM IST

यह विडंबना ही है कि कांग्रेस के नेता शशि थरूर को पार्टी का प्रवक्ïता पद गंवाना पड़ा. उन पर कथित रूप से उस शख्स की तारीफ करने का आरोप था, जिसने ठीक दो साल पहले उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर को 50 करोड़ रु. की गर्लफ्रेंड कहा था. लेकिन पार्टी के भीतर दबे सुर में बताया जा रहा है कि थरूर को हटाने के पीछे असली वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उपजा प्रेम नहीं, बल्कि एम्स के डॉक्टरों की वह रिपोर्ट है, जिसमें दिल्ली के एक होटल में 17 जनवरी को पुष्कर की मौत का कारण जहर बताया गया है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उनके शरीर पर चोट के निशान पाए गए थे. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के एक करीबी के मुताबिक, तिरुवनंतपुरम से सांसद थरूर की प्रवक्ता पद से बर्खास्तगी इस बात की भी पुष्टि करती है कि राहुल ''धीरे-धीरे खामोशी" के साथ पार्टी की स्वच्छ छवि बनाने का प्रयास कर रहे हैं.

यह पहली बार नहीं था, जब थरूर ने मोदी की तारीफ की थी. 3 जून को, हफिंगटन पोस्ट के संपादकीय में उन्होंने कहा था कि मोदी ने जिस तरह से खुद को ''नफरत का पात्र समझे जाने वाले व्यक्ति से बदलकर आधुनिकता और विकास के अवतार" के तौर पर स्थापित किया है, उसे अगर कांग्रेस स्वीकार नहीं करती है तो यह पूरी तरह नाइंसाफी होगी. उसके बाद 27 सितंबर को संयुक्ïत राष्ट्र (यूएन) में मोदी के भाषण पर थरूर ने ट्वीट किया जिसका सार था: ''भारतीय प्रधानमंत्री का जोरदार भाषण. लोकतंत्र और पर्यावरण का समर्थन, आतंकवाद का विरोध. पाकिस्तान को बेहतरीन जवाब." मोदी-थरूर के इस प्रकरण में आखिरी पड़ाव थी प्रधानमंत्री की ओर से गांधी जयंती के मौके पर 2 अक्तूबर को शुरू उनके स्वच्छ भारत अभियान में थरूर को आमंत्रित करना, जिसे कांग्रेस के इस सांसद ने खुशी-खुशी कबूल भी कर लिया.

लेकिन पार्टी खामोश रही और फिर पुष्कर की मौत की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के अगले ही दिन 10 अक्ïतूबर को केरल कांग्रेस की ओर से थरूर के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग हो गई. कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, राहुल नहीं चाहते थे कि थरूर के कारण पार्टी को एक बार फिर शॄमदगी का सामना करना पड़े. उन्होंने अपनी राय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक पहुंचाई, जिन्होंने अनुशासन समिति के अध्यक्ष ए.के. एंटनी से कोई समाधान निकालने को कहा. अपना पद बचाने की थरूर की आखिरी कोशिश विफल रही, क्योंकि वे सोनिया या राहुल से नहीं मिल सके. कांग्रेस के एक महासचिव अगस्त में 2014 के लोकसभा चुनावों के नतीजों पर एंटनी की ओर से रिपोर्ट सौंपे जाने के तत्काल बाद सोनिया के साथ अपनी एक मुलाकात को याद करते हुए बताते हैं कि किस प्रकार राहुल अब धीरे-धीरे पार्टी पर पूरा नियंत्रण करते जा रहे हैं.

वे बताते हैं, कांग्रेस अध्यक्ष एक परेशान मां लग रही थीं. चुनावों में हार और उसकी रिपोर्ट से ज्यादा वे पार्टी कार्यकर्ताओं में राहुल के प्रति बढ़ते असंतोष को लेकर ङ्क्षचतित थीं. सोनिया ने मुलाकात के अंत में अपने भरोसेमंद सहयोगी से कहा कि राहुल पार्टी का भविष्य हैं और वे हमेशा के लिए यह जिम्मेदारी नहीं संभाल सकती हैं. इसलिए पार्टी की ओर से राहुल को पुनर्निर्माण के काम में खुली छूट दी जानी चाहिए. लेकिन कांग्रेस के इस नेता, जो पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य भी हैं, को उस वक्त बहुत ताज्जुब हुआ, जब सोनिया ने कहा कि उनकी तरह पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं को भी अब पीछे हट जाना चाहिए. यह बात और साफ हो गई जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल ने अपना ज्यादातर समय पूर्वोत्तर के इतिहास पर शोध के काम में लगाना शुरू कर दिया.

पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम, पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी और पूर्व गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे सहित कांग्रेस के कई नेताओं ने जहां सोनिया का संकेत पाकर खुद को अपरिहार्य राजनैतिक रिटायरमेंट के लिए तैयार कर लिया, वहीं दिग्विजय सिंह और जनार्दन द्विवेदी ने विरोध जताने के लिए मीडिया का सहारा लेना शुरू कर दिया. माना जा रहा है कि दिग्विजय और जनार्दन, दोनों को महासचिव पद से हटाया जा सकता है.

इस बीच मीडिया की नजर से दूर टीम राहुल यह चिंतन करने में लगी रही कि पार्टी को फिर से कैसे खड़ा किया जाए. हालांकि राहुल गांधी फिलहाल प्रत्यक्ष रूप से किसी जल्दबाजी में नहीं दिखाई देते. उनके करीबी एक नेता कहते हैं, ''पार्टी के फिर से खड़ा करने के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं है. हालांकि एंटनी समिति की रिपोर्ट पेश कर दी गई है, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों के बाद भी किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए."  एक स्पष्ट संकेत यह है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष आम चुनावों में करारी हार के बावजूद अपनी कार्यशैली बदलने वाले नहीं हैं. यह बात इसी से पता चलती है कि साल के अंत तक कांग्रेस की प्रदेश समितियों को ब्लॉक स्तर पर चुनाव कराने के लिए वे पत्र भेज चुके हैं. राहुल के एक अन्य सहयोगी बताते हैं, ''राजनैतिक मजबूरियों के कारण पहले उनके कई फैसलों में फेरबदल कर दिया जाता था. लेकिन अब किसी तरह का समझैता नहीं किया जाएगा." और पार्टी हलकों में व्यापक आलोचना के बावजूद कनिष्क सिंह, मोहन गोपाल, सचिन राव और कौशल विद्यार्थी का थिंक टैंक बरकरार रहने वाला है.

अगला बड़ा बदलाव यह होने जा रहा है कि प्रदेशों में नेतृत्व का एक नया ढांचा बनाया जाएगा, जो जूनियर कार्यकर्ताओं से मिलने वाली जानकारियों पर आधारित होगा. राजस्थान में सचिन पायलट की सफलता से उत्साहित होकर अब कई राज्यों में युवा नेताओं को प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाया जाएगा. राहुल के एक सहयोगी के मुताबिक, राज्यों में साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेता तैयार करने की योजना बनाई जा रही है. यह बात सभी जानते हैं कि राहुल गठबंधन की राजनीति पसंद नहीं करते हैं. उनका मानना है कि पार्टी को यूपीए की सहयोगी पार्टियों के गलत  और अवांछित कामों के कारण भी लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा. इसलिए महाराष्ट्र चुनावों के पहले शरद पवार की एनसीपी ने जब गठबंधन तोडऩे की धमकी दी तो उन्होंने सोनिया के विरोध के बावजूद बातचीत करने से इनकार कर दिया. माना जा रहा है कि अगले साल पार्टी बिहार समेत सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों में अकेले ही चुनाव लड़ सकती  है.

लेकिन लोकसभा चुनावों की हार से कांग्रेस ने जो सबसे बड़ा सबक लिया है, वह है सोशल मीडिया की ताकत, जिसका इस्तेमाल बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े असरदार ढंग से किया था. कांग्रेस महासचिव अजय माकन के नेतृत्व में कांग्रेस की संचार टीम ने अब ऐसे शोधकर्ताओं की टीम नियुक्ïत की है, जो हर रोज दोपहर बाद 3 बजे और शाम 8 बजे बैठकें आयोजित करती है. वे पार्टी प्रवक्ïताओं और संसद  के दोनों सदनों में पार्टी के नेता, लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडग़े और राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं के लिए ''मुकाबले का मसाला" तैयार करती है ताकि वे एनडीए सरकार से लोहा ले सकें.

अब बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल की रणनीति पार्टी के लिए कारगर हो पाएगी? हालांकि उनकी रणनीति पृष्ठभूमि में आकार लेने लगी है. लेकिन पार्टी के बड़े नेता, जो रणनीति बनाने वालों में शामिल नहीं हैं, संतुष्ट नहीं हैं. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ''हम बहुत समय से उन बदलावों की बात सुनते आ रहे हैं. जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को तो छोडि़ए, राज्य स्तर के नेता भी किसी दिशा-निर्देश के अभाव में दिशाहीन महसूस कर रहे हैं." लेकिन कांग्रेस के एक युवा नेता, जो हाल ही में राहुल से मिले थे, राहुल की तारीफ करने से खुद को नहीं रोक पाए. वे कहते हैं, ''राहुल गर्मजोशी से भरे थे और काफी धैर्यवान दिखाई दिए. उन्होंने खुले दिमाग से तमाम मुद्दों पर चर्चा की. उनका स्वभाव काफी बदला हुआ था. पहले जब वे मिलते थे तो दंभ भरी टिप्पणी के साथ हमारी बात बीच में ही काट दिया करते थे."

पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट भी राहुल की 'धीमी पर मजबूत' योजना का समर्थन करते हैं. पायलट कहते हैं, ''पिछले चार महीने में वे राज्य और जिला स्तर के हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं से मिल चुके हैं. यही वे लोग हैं, जो चुनावों में जीत दिलाते हैं." हालांकि मई के लोकसभा चुनावों में वे हार गए थे, लेकिन सितंबर में राजस्थान के उपचुनावों में मिली सफलता के बाद 36 वर्षीय पायलट काफी उत्साहित हैं. पार्टी ने चार में से तीन सीटें जीत ली थीं. वे कहते हैं, ''हमने जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने पर जोर दिया. राहुल गांधी भी इन जमीनी कार्यकर्ताओं को सशक्ïत बनाने पर जोर देते हैं."

राहुल की अगली बड़ी चुनौती नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ लाने और उन्हें एक ताकत बनाने की है. रास्ता भले लंबा और मुश्किल नजर आता है, लेकिन इसके लिए कांग्रेस के पास पर्याप्त समय है.

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