
अभी पिछले कुछ सालों तक खेतों में खाली पड़ी जमीन को भरने और महज पशुओं के खाने तक के लिए सीमित मानी जाने वाली एक फसल तमाम परिदृश्य को इस कदर बदल देगी, शायद ही किसी ने सोचा था. इन दिनों मंडियों को इंतजार है ग्वार की आवक का और किसान हैं कि भाव गिरने का जोखिम लेकर भी बेचने को तैयार नहीं. खेतों में बने घरों के कमरों से कीमती सामान की पेटियां निकालकर खुले में रख दी गई हैं और खाली हुए कमरों में ग्वार भरकर ताले लगाए गए हैं.
श्रीकरणपुर तहसील में गांव 2 एफएफए के गुरप्रीत सिंह ढिल्लो कहते हैं, ''भले ही पिछले साल की तरह भाव 32,000 रु. क्विंटल न पहुंचे, पर 20,000 रु. से नीचे के रेट पर किसी भी हालत में अपना ग्वार नहीं बेचूंगा. '' यही फर्कआया है, जो खासकर ग्वार व्यापारियों को चिंता में डाले हुए है. पिछले साल ज्यादातर किसानों ने अपना ग्वार 4,500 रु. से लेकर 7,000 रु. प्रति क्विंटल तक के भाव पर बेच दिया था. व्यापारियों के पास पहुंचते ही भावों ने रिकॉर्ड तोड़े तो किसान हक्का-बक्का रह गए. यह सब देखने के बाद किसान अब किसी तरह की जल्दबाजी में नहीं दिखते.
एक साल पहले के भावों को देखकर इस बार किसानों ने ग्वार की जमकर बुआई की. यहां तक कि कपास पट्टी की पहचान रखने वाले इस इलाके के किसानों ने कपास को प्राथमिकता के क्रम में ग्वार से नीचे धकेलने में कोई हिचक नहीं दिखाई. कृषि विपणन महकमे के आंकड़ों के मुताबिक, गंगानगर जिले में साल 2011 में महज एक लाख हेक्टेयर में ग्वार की बुआई हुई थी, जो 2012 में बढ़कर लगभग दुगनी यानी 1.96 लाख हेक्टेयर हो गई. जाहिर है, बुआई ज्यादा Þई है तो पैदावार भी ज्यादा होगी ही. आंकड़े भी इस ओर इशारा करते हैं. 2010 में सात लाख क्विंटल से ज्यादा पैदावार हुई थी, जो 2011 में बढ़कर आठ लाख क्विंटल तक पहुंच गई.
2012 में तो करीब 24 लाख क्विंटल तक ग्वार पैदा होने का अनुमान लगाया जा रहा है. कोई और फसल होती तो इन दिनों मंडियों में पैर रखने की जगह नहीं होती, लेकिन यह ग्वार है, जो ज्यादातर किसानों के कोठों में ही पड़ा हुआ है, और वे इसे फिलहाल बाहर निकालने के मूड में दिखाई नहीं देते.
ऊहापोह की ऐसी स्थिति बन गई है, जिसके बारे में कुछ साल पहले तक सोचना भी मुमकिन न था. पिछले साल के भाव किसानों को वह राह दिखा रहे हैं, जिसे पहले व्यापारियों तक ही सीमित माना जाता था, यानी बाजार में मांग और भाव बढ़वाने के लिए स्टॉक करना. फर्क इतना है कि इस बार किसानों ने व्यापारियों की तकनीक अपना ली है और यही अनोखी बात है. जैसा कि पदमपुर तहसील में फकीरवाली के कालूराम सिराव बताते हैं, ''मेरे पास 80 क्विंटल ग्वार पड़ा है. हमने अपने घरों के जेवर तक गिरवी रखे हुए हैं, पर ग्वार को रखने के लिए मैने बोरियां खरीदीं और उनमें भरकर रख दिया. '' वे बताते हैं कि पिछले साल धनतेरस को एक ही दिन में उनके अकेले गांव में मजदूर वर्ग के लोग 28 बाइक नकद रुपयों में खरीद लाए, यह था ग्वार का कमाल.
गंगानगर तहसील में 7 वाइ गांव के गुरपाल सिंह तो पिछले साल का ग्वार भी अपने पास रखे हुए हैं. तब उन्होंने 15 क्विंटल ग्वार 15,000 रु. के भाव पर बेचा था. बाद में भाव दुगने हो गए, तब भी और बढऩे की उम्मीद में उन्होंने उसे नहीं बेचा. अब उनके पास करीब सवा सौ क्विंटल का भंडार है. वे निश्चिंत होकर कहते हैं, ''सरसों की नई फसल आ गई है. रुपए-पैसे की जरूरत उससे पूरी हो जाएगी, तो फिर जल्दी भी क्या है, पड़ा रहेगा. '' आम किसानों को लगता है कि व्यापारियों और ग्वारगम उद्यमियों का एक तबका इस बार भी उन्हें छलने की कोशिश में है ताकि खेतों से मंडियों में आने के बाद ग्वार के भाव बढ़ें और व्यापारी उसका फायदा उठाएं.
सर छोटूराम स्मारक समिति से जुड़े गुरबलपाल सिंह संधू को इस तरह की कई मिसालें याद हैं. वे बताते हैं कि पिछले साल अमेरिकन कपास का बाजार भाव 3,800 रु. था. किसानों ने अपने पास रोका, तो इसके भाव हो गए 3,500 रु. वे बताते हैं कि इसी तरह किसानों ने अपना गेहूं 1,200 रु. के भाव पर बेचा और व्यापारियों के पास जाने के दस दिन बाद ही भाव 1,800 रु. क्विंटल हो गया.
ग्वार में भी ऐसा ही हुआ. ज्यादातर किसानों का ग्वार सस्ते में बिका, लेकिन उसी को व्यापारियों ने 32,000 रु. तक बेच जमकर मुनाफा कूटा. वैसे ग्वार को नेशनल कमॉडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज लि. (एनसीडीएक्स) यानी वायदा कारोबार में शामिल किए जाने से उसके भाव इतने चढ़े थे, पर अब जब फसल आने को हुई, तो ग्वार को इससे बाहर कर दिया गया और इसके भाव धड़ाम से नीचे आ गिरे.
संधू पूछते हैं, ''जौ, चना, सरसों, आलू सब एनसीडीएक्स में हैं तो ग्वार क्यों नहीं? वायदा कारोबार आयोग केंद्र्रीय वाणिज्य मंत्रालय को इसकी सिफारिश भी कर चुका है और ग्वार को शामिल करने से आम उपभोग की वस्तुओं पर कोई असर नहीं पड़ता, किसानों को अच्छी कीमत के साथ सरकार की विदेशी मुद्रा की आय भी बढ़ेगी क्योंकि ग्वार से बनने वाले ग्वारगम की खपत सबसे ज्यादा विदेशों में ही है. ऐसे में यह आनाकानी क्यों?
संधू और कालूराम सिराव जैसे अनेक लोग पिछले दिसंबर में एक घटनाक्रम पर खासे हैरान रह गए थे. छोटूराम स्मारक समिति ने ग्वार को एनसीडीएक्स में शामिल करने की मांग को लेकर जोधपुर में प्रदर्शन का ऐलान किया, तो प्रदर्शन से ठीक एक दिन पहले कुछ कंपनियों ने यहां के अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर उसे नाकाम बनाने की कोशिश की.
उस विज्ञापन की भाषा कुल मिलाकर ऐसी थी कि अमेरिका और दूसरे देशों में ग्वार के विकल्प काम में लिए जा रहे हैं और उससे ग्वार की मांग कम हो गई है. ऐसे में ग्वार का उपयोग सिर्फ तेल और गैस उद्योगों के लिए रह जाएगा और वह मांग इस साल बढ़ी हुई उपज को खपा नहीं सकेगी. संधू कहते हैं, ''कंपनियों का यह प्रचार सिर्फ किसानों में घबराहट पैदा करने के लिए था, लेकिन किसान उस प्रचार से प्रभावित नहीं हुए, तो अब दूसरे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. ''
कृषि विपणन महकमे के क्षेत्रीय उप निदेशक टी.आर. मीणा मानते हैं कि अभी भी किसान सारा ग्वार मंडियों में लाने को तैयार नहीं हैं. उनके मुताबिक, इन दिनों गंगानगर की मंडी में चार से पांच हजार बोरी की आवक हो रही है और पैदावार को देखते हुए यह कोई खास आवक नहीं है. महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक, 2010-11 में जिले की तमाम मंडियों में आए करीब 7 लाख क्विंटल ग्वार में से ज्यादातर की आवक फरवरी तक हो चुकी थी. यही हाल 2011-12 में भी रहा. इस बार पैदावार ज्यादा है, तो भी फरवरी तक सिर्फ करीब साढ़े पांच लाख क्विंटल ग्वार ही मंडियों में बिकने के लिए आया था.
हालांकि व्यापारी हनुमान गोयल कहते हैं, ''मार्च महीने में ग्राम सेवा सहकारी समितियों और बैंकों वगैरह का कर्ज एक बार क्लीयर करने के लिए किसानों को ज्यादा ग्वार निकालना पड़ेगा, चाहे भाव 10,000 रु. प्रति क्विंटल ही रहें. गोयल की मानें तो किसानों ने स्वीकार कर लिया है कि भाव पिछले साल के बराबर नहीं पहुंचेंगे और न ही इसे वायदा कारोबार में शामिल किया जाएगा, लेकिन लगता है कि किसानों ने आखिरी मौके तक हाथ-पैर मारने में कोई कसर नहीं छोडऩे का मानस बना लिया है. अब सभी की निगाहें सर छोटूराम स्मारक समिति की ओर से 25 मार्च को गंगानगर में प्रस्तावित कलेक्ट्रेट घेराव की ओर लगी हैं. इसमें मुख्य मांग ग्वार को वायदा कारोबार में शामिल करने की है. इस कार्यक्रम की कामयाबी या नाकामी ग्वार की पैदावार वाले इलाकों में बदले हुए परिदृश्य पर काफी असर डाल सकती है.