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राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार का खतरा टलने के बावजूद कांग्रेस के जारी संग्राम में 'साम-दाम-दंड-भेद' के सहारे एक दूसरे को शिकस्त देने की कवायद जारी है. कांग्रेस की शिकायत पर विधानसभा अध्यक्ष ने सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों को नोटिस भेजकर दो दिन में जवाब मांगा. वहीं, पायलट खेमा ने कानूनी पहलुओं पर विचार विमर्श कर हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. ऐसे में पायलट और उनके समर्थक विधायकों की सदस्यता बचेगी या जाएगी यह अहम सवाल बना गया है?
दरअसल, सचिन पायलट और उनके 18 समर्थक विधायक कांग्रेस के विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं हुए थे, जिसके लिए पार्टी ने व्हिप जारी कर रखा था. ऐसे में कांग्रेस के मुख्य सचेतक महेश जोशी ने विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी के पास शिकायत दर्ज कराई थी कि सचिन पायलट समेत उनके साथ गए विधायकों ने नियमों का उल्लंघन किया है. दल-बदल कानून के तहत पायलट और उनके समर्थक विधायकों के खिलाफ एक्शन की मांग की गई, जिसके बाद स्पीकर सीपी जोशी ने बुधवार को नोटिस देकर 17 जुलाई की दोपहर एक बजे तक जवाब मांगा है.
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संविधान विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वकील ध्रुव गुप्ता ने aajtak.in से कहा कि विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी को संविधान अधिकार देता है कि सचिन पायलट और उनके समर्थक विधानसभा सदस्यों का जवाब सुनने या जवाब नहीं मिलने की स्थिति में उनकी सदस्यता समाप्त कर सकते हैं. इसे सुप्रीम कोर्ट भी नहीं पलट सकता है. कर्नाटक के मामले में आपने देखा होगा कि उनकी सदस्यता को खत्म करने को कोर्ट ने नहीं बदला था बल्कि उनके चुनाव लड़ने पर जो रोक लगाई गई थी उसे बदला गया है.
ध्रुव गुप्ता ने कहा कि राजनीतिक दल-बदल का इतिहास पुराना है. 1967 में तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चह्वाण की अध्यक्षता में 'कमेटी ऑन डिफेक्शन' (दल-बदल विरोधी कमेटी) का गठन किया था. विधायकों के दल-बदल के पीछे पद का प्रलोभन प्रमुख कारण था. दल-बदल को रोकने वाले कानून को 1973 और 1978 में लागू करने के दो असफल प्रयासों के बाद आखिरकार यह संविधान संशोधन (52वां संशोधन) कानून के तहत 1985 में लागू हुआ. इसे भारत के संविधान की दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया. जिसमें उन सदस्यों को अयोग्य ठहराने का प्रावधान था, जो अपने राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग देते हैं या पार्टी के निर्देश के विपरीत वोट देते हैं या वोट देने के समय अनुपस्थित रहते हैं.
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हालांकि, स्वेच्छा से सदन की सदस्यता त्यागने के मामले को अयोग्यता का आधार नहीं माना गया. अब जबकि कानून पार्टी के एक तिहाई सदस्यों के पार्टी से अलग होने की इजाजत देता है, तो दलबदल के बाद मंत्री पद हासिल करने के मामले में कोई रोक नहीं है. जबकि पार्टी में विभाजन पर रोक है और किसी मंत्री पद पर नियुक्त होने पर तब तक रोक है, जब तक सदस्य का शेषकाल समाप्त नहीं हो जाता या वह सदन में दुबारा नहीं चुनकर आता. संशोधन के बाद वाला हिस्सा समस्या पैदा करता है.
दलबदल के कारण अयोग्य होने वाले सदस्य के लिए किसी उपचुनाव में जीतकर आने व मंत्री बनने का दरवाजा खुला रहता है. कांग्रेस के सदस्य विश्वजीत राणे का उदाहरण सामने है, जिन्होंने चुनाव के बाद पार्टी से इस्तीफा दे दिया और बीजेपी में शामिल होकर मंत्री बन गए. यह उदाहरण प्रावधानों में संशोधन की आवश्यकता को सामने लाता है. दल-बदल कानून में एक अन्य छिद्र यह है कि कानून सदस्य को इस्तीफा देने से नहीं रोकता बल्कि वास्तव में यह स्पीकर पर छोड़ देता है.
राजस्थान के मामले में अगर विधानसभा स्पीकर के सामने सचिन पायलट और समर्थक विधायक पेश होकर अपनी बात नहीं रखते हैं तो ऐसी स्थिति में उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है. 13 और 14 जुलाई को जयपुर में सीएम आवास पर दो विधायक दल की बैठक हुईं, लेकिन इस बैठक में सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायक नहीं पहुंचे. ये तब है जबकि कांग्रेस की तरफ से व्हिप जारी किया गया था.
स्पीकर सीपी जोशी दल-बदल कानून को आधार बनाकर सचिन पायलट, विश्वेंद्र सिंह, रमेश मीणा, मुरारीलाल मीणा, हरीश मीणा, जीआर खटाणा, सुरेश मोदी, इंद्राज गुर्जर, राकेश पारीक, मुकेश भाकर, रामनिवास गावड़िया, वेद प्रकाश सोलंकी, बृजेंद्र ओला, दीपेंद्र सिंह शेखावत, अमर सिंह जाटव, गजेंद्र सिंह शक्तावत, भंवरलाल शर्मा और हेमाराम चौधरी की सदस्यता को खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें संविधान भी यह अधिकार देता है.