उनके नाम का अर्थ है ‘अनूठा या बेमिसाल’ और बहुत कम अभिनेता या अभिनेत्री ऐसे हैं, जिनका करियर और जीवन वहीदा रहमान के करियर और जिंदगी जैसा रहा हो. 17 साल की उम्र में संयोगवश गुरु दत्त की नजर में आने से लेकर मुंबई फिल्म उद्योग में कामयाब स्टार बनने और एक दिन यह सब कुछ छोड़कर गोद में एक बच्चे को लिए अभिनेता पति शशि रेखी के साथ बंगलुरू के बाहरी इलाके में एक अधूरे फार्म में जाकर बसने तक वहीदा रहमान ने जिंदगी में सब कुछ किया है. कन्वर्सेशंस विद वहीदा रहमान पुस्तक में उन्होंने अपनी जिंदगी की पूरी कहानी खुद अपने ही शब्दों में बयान की है. बीच-बीच में फिल्मकार और लेखक नसरीन मुन्नी कबीर की महत्वपूर्ण और जानकारी भरी टिप्पणियों ने इस किताब को उलझने से बचाया है.
वहीदा ने पूरी ईमानदारी और मस्ती के साथ बात की है. इसमें सत्यजीत रे (जिन्होंने सबसे पहले गाइड फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की थी), राज कपूर और देव आनंद (जो हमेशा से लेटलतीफ थे) जैसे कलाकारों के साथ काम करने के उनके अनुभव, नरगिस, सुनील दत्त और नंदा जैसे सितारों के साथ उनकी दोस्ती और उनके रहस्य-रोमांच भरे करतबों के ढेरों दिलचस्प किस्से भरे हुए हैं. फिल्मों के दीवाने और फिल्मी दुनिया के राज संजोने वाले लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण किताब है. यह किताब फिल्म निर्माण कला की बारीकियों के साथ-साथ भारतीय सिनेमा के पर्दे के पीछे की कहानियां भी सुनाती है. यहां पाठक कुछ प्रमुख फिल्मों के निर्माण के दौरान पर्दे के पीछे के मनोरंजक किस्सों का मजा ले सकते हैं.
वैसे तो उनकी अपनी दास्तान ही काफी दिलचस्प है, लेकिन इस किताब की असली जान उन पन्नों में छुपी है, जिनमें गुरु दत्त का जिक्र है. अपनी नैसर्गिक प्रतिभा और बला की खूबसूरती के दम पर वहीदा रहमान ने हिंदी सिनेमा के कुछ सबसे मशहूर किरदारों जैसे गुलाबो, शांति और रोजी को पर्दे पर जिंदा किया था. लेकिन उनकी कोई भी दास्तान उस हताश डायरेक्टर के जिक्र के बगैर पूरी नहीं हो सकती, जिसने 1964 में आत्महत्या कर ली थी. वैसे तो वहीदा इस बेचैनी को स्वीकार करती हैं, लेकिन आज 60 साल बाद भी उनके जवाब परतों में लिपटे हुए हैं.
उस दिन गुरु दत्त जी हैदराबाद में एक डिस्ट्रिब्यूटर के दफ्तर में बैठे थे, तभी उन्हें बाहर कुछ शोर सुनाई दिया. गुरु दत्त जी ने पूछा कि सड़क पर बवाल क्यों हो रहा है तो उन्हें बताया गया कि एक लोकप्रिय तेलुगु फिल्म के सितारे वहां से गुजर रहे हैं और उनके उत्साही प्रशंसक शोर मचा रहे हैं. इसके बाद उस डिस्ट्रिब्यूटर ने कहा, “फिल्म में एक नई लड़की पर एक गाना फिल्माया गया है. उस लड़की ने तहलका मचा दिया है. सितारे जब भी किसी मंच पर जाते हैं तो दर्शक उस लड़की को देखने के लिए उतावले हो जाते हैं. उसका नाम वहीदा रहमान है.” गुरु दत्त जी ने हैरानी से पूछा, “वहीदा रहमान? यह तो मुस्लिम नाम है.
क्या वह उर्दू बोलती है?” जवाब मिला, “सुना है कि वह तेलुगु और तमिल भी बोलती है.” तब गुरु दत्त जी ने डिस्ट्रिब्यूटर से कहा कि वे मुझ से मिलना चाहेंगे क्योंकि उन्हें अपनी फिल्म के लिए नए कलाकारों की तलाश है. डिस्ट्रिब्यूटर ने प्रसाद जी से मुलाकात तय करने के लिए संपर्क किया. प्रसाद जी ने तब तक गुरु दत्त जी का नाम नहीं सुना था. 50 के दशक के मध्य में दक्षिण भारत में बहुत कम लोग उनके बारे में जानते थे. शायद उस जमाने में ज्यादा फिल्मी पत्रिकाएं नहीं थीं और वैसे भी मैं और मेरा परिवार वह सब पढ़ते भी नहीं थे. इसलिए हमने उनका नाम नहीं सुना था. डिस्ट्रिब्यूटर ने प्रसाद जी को बताया कि उनके दोस्त बंबई के एक मशहूर डायरेक्टर हैं और कई कामयाब फिल्में बना चुके हैं. प्रसाद जी ने मेरी मां से संपर्क किया और हमें बताया कि गुरु दत्त जी मुझसे मिलना चाहते हैं. मेरी मां और मैं अगले दिन डिस्ट्रिब्यूटर के दफ्तर पहुंच गए. मेरे ख्याल से यह मुलाकात करीब आधा घंटा चली होगी. गुरु दत्त जी शायद ही कुछ बोले होंगे. उन्होंने हमसे हिंदी में कुछ सवाल किए, जैसे हम कहां के रहने वाले हैं. बस, इतनी-सी बात हुई थी.
हम अपने होटल लौट आए, जहां हम ठहरे हुए थे. जब प्रसाद जी ने पूछा कि मुलाकात कैसी रही तो मेरी मां ने जवाब दिया कि गुरु दत्त जी ने बहुत कम बात की. प्रसाद जी बोले कि कुछ लोग ऐसी ही मिट्टी के बने होते हैं. कुछ दिन बाद हम अपने घर मद्रास लौट आए. उन्होंने मेरी फिल्म नहीं देखी थी. उन्हें मालूम नहीं था कि मैं कैमरे में कैसी दिखती हूं.
उन्होंने बस मेरा नाम सुना और मुझे देखे बिना ही मिलने के लिए बुलवा लिया. अब भला कोई डिस्ट्रिब्यूटर मेरे नाम का जिक्र भी क्यों करता? इसकी कोई वजह नहीं थी. फिर मुझे कैसे यह यकीन न हो कि मेरी किस्मत में यह लिखा था?
हैदराबाद में हमारी पहली मुलाकात के बाद तीन महीने गुजर गए. फिर एक दिन कोई मद्रास में हमारे घर मिलने आया. उसने कहा कि वह बंबई से आया है. मुझे लगा कि कोई फिल्म डिस्ट्रिब्यूटर है. उसने बताया कि वह उसी डायरेक्टर की तरफ से आया है, जिससे हम हैदराबाद में मिले थे. असल में उस वक्त तक हम गुरु दत्त जी का नाम भी भूल चुके थे. इस पर हमारे मेहमान ने कहा, “देखिए, गुरु दत्त ने मुझसे कहा है कि मैं आपको अपने साथ बंबई ले जाऊं. वे आपको साइन करना चाहते हैं.” मेरी मां बहुत हैरान थीं. उन्होंने इस बारे में दोस्तों की राय लेना मुनासिब समझ.
दोस्तों ने सलाह दी कि बिस्मिल्लाह करो और जाओ. वे बहुत हिचक रही थीं. बंबई हमारे लिए विदेश से कम नहीं था. हमेशा की तरह उन्होंने प्रसाद जी से सलाह मांगी और उन्होंने जवाब दिया, “जाइए मिसेज रहमान, उसके बंबई में काम करने में कोई हर्ज नहीं है. पर याद रखिए कि यह किसी की गुलाम नहीं है. सारी बातें मत मान लीजिएगा. अगर कोई बात मनमाफिक न लगे तो कह दीजिएगा. अगर आपको वहां रहना अच्छा न लगे तो वापस आ जाइएगा. डरने की जरूरत नहीं है.” तो इस तरह हम तीन लोग, मेरी मां, परिवार के एक दोस्त मिस्टर लिंगम और मैं, 1955 के आखिर में बंबई पहुंच गए. हम चर्चगेट पर रिट्ज होटल में ठहरे थे.
कोई ऑडिशन या कैमरा टेस्ट नहीं हुआ. बस उन्होंने कुछ फोटो खींचे और फिर कॉन्ट्रैक्ट साइन करने का वक्त आ गया. यह मुलाकात महालक्ष्मी में फेमस स्टुडियो की पहली मंजिल पर गुरु दत्त जी के दफ्तर में हुई थी, जिसमें कई लोग मौजूद थे.
सबसे पहली बात राज खोसला ने कही कि मेरा नाम बहुत लंबा है. इसे बदलना पड़ेगा. मैंने कहा, “मेरे माता-पिता ने यह नाम दिया है और मुझे अपना नाम पसंद है. मैं इसे नहीं बदलूंगी.” एकदम सन्नाटा छा गया. राज खोसला एकदम बिफर पड़े. मुझे नहीं मालूम कि कहां से मुझमें इतनी हिम्मत आई. पर मैं इतना कहकर रुकी नहीं. मैंने यह भी कह दिया, “मैंने तेलुगु और दो तमिल फिल्में की हैं और मुझे अपना नाम नहीं बदलना पड़ा. मैं घर से भागकर नहीं आई हूं और न ही अपने परिवार से छिप रही हूं. मेरी मां यहां सामने बैठी हैं. मुझे कोई वजह नहीं नजर आती कि मैं अपना नाम बदलूं.” गुरु दत्त जी की एक आदत थी कि वे कुहनियां मेज पर टिकाकर और अपनी ठोडी को दोनों हाथों से पकड़कर बैठते थे. वे चुपचाप सुनते रहे. मुझसे कहा गया कि उन्हें सोचने के लिए वक्त चाहिए. हम एक हफ्ते से ज्यादा बंबई में रुके क्योंकि मेरे नाम को लेकर बात फंस गई थी. मुझे उस दिन की एक-एक बात याद है. गुरु दत्त जी चुपचाप बैठे रहे, एक शब्द नहीं बोले, लेकिन राज खोसला अपनी कुर्सी पर कूद-फांद करते रहे.
आखिरकार अगली मुलाकात में तय हो गया कि मैं अपने नाम से ही काम कर सकती हूं. मेरी उम्र 18 साल से कम थी, इसलिए उन्होंने मेरी मां से कहा कि वे कॉन्ट्रैक्ट पर साइन कर दें. लेकिन इससे पहले कि मां कागज पर कलम टिकातीं, मैं बोल पड़ी, “मैं कॉन्ट्रैक्ट में कुछ जोडऩा चाहती हूं.” राज खोसला ने हैरानी से कहा, “नए लोग आम तौर पर मांगें नहीं रखते, आप साइन कर दीजिए.” गुरु दत्त जी चुप रहे. तब मैंने उनसे कहा कि अगर कोई कॉस्ट्यूम मुझे पसंद नहीं आया तो मैं नहीं पहनूंगी. गुरु दत्त जी कुर्सी से उठ गए. फिर शांत स्वर में बोले, “मैं ऐसी फिल्में नहीं बनाता. तुमने मेरी कोई फिल्म देखी है?” “नहीं.” “तो ठीक है. शहर में मिस्टर ऐंड मिसेज 55 चल रही है. जाओ देखकर आओ. कॉस्ट्यूम के बारे में हम बाद में बात करेंगे.”
हमें सिनेमा का टिकट दिया गया और हम मिस्टर ऐंड मिसेज 55 देखने चले गए. अगले दिन हम फिर ऑफिस पहुंचे और हमने कहा कि फिल्म के कॉस्ट्यूम में तो कोई दिक्कत नहीं थी. लेकिन इसके बावजूद मैं चाहती थी कि कॉस्ट्यूम वाली शर्त जोड़ दी जाए. राज खोसला ने गुरु दत्त जी की तरफ देखा और फिर बोले, “अजीब बात है गुरु, तुम इस लड़की की बातें सुने जा रहे हो और कुछ बोलते नहीं. कॉस्ट्यूम तो सीन के हिसाब से चुने जाते हैं, ऐक्ट्रेस के हिसाब से नहीं.”
मुझे यकीन नहीं होता कि मैं इतनी बड़बोली थी, पर उस दिन मैं अड़ गई, “जब बड़ी हो जाऊंगी तो हो सकता है कि स्विमसूट पहन लूं पर अभी नहीं, क्योंकि मुझे बहुत शर्म आती है.” इस पर राज खोसला ने जवाब दिया, “अगर तुम्हें इतनी शर्म आती है तो फिल्मों में काम क्यों करना चाहती हो?” मैंने शांति से जवाब दिया, “मैं यहां अपने आप नहीं आई हूं. आपने हमें बुलाया है.” कोई फैसला नहीं हुआ. हमें कार से रिट्ज होटल छुड़वा दिया गया. अगले दिन हम फिर ऑफिस पहुंचे. मेरी कॉस्ट्यूम वाली शर्त जोड़ी गई और मेरी मां ने गुरु दत्त फिल्म्स के साथ मेरे तीन साल के कॉन्ट्रैक्ट पर साइन कर दिए.
जब हम प्यासा बना रहे थे तो मैं सिर्फ 18 साल की थी. मैं एक इनसान के तौर पर गुरु दत्त जी को पढ़ नहीं सकी. यह मेरी दूसरी हिंदी फिल्म थी और मैं हर वक्त अपने काम में डूबी रहती थी. लेकिन वे बहुत चुपचाप रहते थे और हमेशा फिल्मों के बारे में सोचते थे. कभी अचानक वे मुझसे पूछ लेते कि क्या मैंने फलां-फलां किताब पढ़ी है, जिस पर वे फिल्म बनाना चाहते थे. जब मैं उनके साथ बैठी होती और कोई तीसरा आदमी आसपास हो और हम बात करने लगते तो हमें पता लग जाता था कि गुरु दत्त जी हमारी बातें नहीं सुन रहे हैं. वे हमेशा अपने ख्यालों में गुम रहते थे. जब हम उनकी तरफ पलटते तो वे यह भी भूल जाते थे कि बातचीत कहां से शुरू हुई थी. अगर कोई उनकी आंखों में देख सकता तो पाता कि अकसर वे वहां मौजूद ही नहीं होते थे. अगर कोई मुझसे पूछे कि उन्हें दुनिया में सबसे ज्यादा क्या पसंद था तो वह था उनका काम.
हर कोई ऐसी फिल्म बनाता है, जो ज्यादा सफल नहीं हो पाती. उनकी बहन लाली (ललिता लाजमी) ने एक बार मुझे बताया कि गुरु दत्त जी डिप्रेशन में थे. जिंदगी के आखिरी सालों में वे बहुत उलझन में रहते थे. हम सब उनकी उलझन देख पा रहे थे. वे नाखुश थे, लेकिन हममें से कोई यह नहीं समझ पाया कि वे कितने गहरे अवसाद में थे. उन्होंने राज फिल्म शुरू की, जिसमें मेरे साथ सुनील दत्त थे. मैंने कई अच्छे सीन किए थे, लेकिन गुरु दत्त जी ने वह फिल्म बंद कर दी. जब हमने कारण पूछा तो बोले, “जम नहीं रहा है.” फिर उन्होंने गीता के साथ फिल्म गौरी शुरू की. गीता ऐक्टिंग करना चाहती थीं, लेकिन गुरु दत्त जी ने उसे भी बीच में ही छोड़ दिया.
मेरे पति भी डिप्रेशन में थे और हम इस बात को समझ नहीं पाए. वे अपने आसपास की हर चीज में दिलचस्पी खोने लगे थे. वे लोगों से मिलना नहीं चाहते थे. दरअसल उनमें कुछ भी करने की इच्छा बाकी नहीं रही थी. ठीक इसी तरह कोर्ई यह नहीं समझ पाया कि गुरु दत्त जी क्या महसूस कर रहे थे. उनकी मौत एक रहस्य थी. कोई यकीन से नहीं कह पा रहा था कि वह आत्महत्या थी या ऐक्सीडेंट. सब जानना चाहते थे. उनकी मौत हम सबके लिए बड़ा सदमा थी. वे सिर्फ 39 साल के थे. अभी तो जवान थे. सबकी जबान पर एक ही सवाल था, “उनकी मौत ऐसे क्यों हुई?” मेरे फिल्मी साथियों में से किसी ने कभी हमारे रिश्ते के बारे में कोई निजी सवाल नहीं पूछा. हमेशा दूसरे लोग और मीडिया वाले ही यह जानने के लिए बेताब रहते थे और आज 60 साल बाद भी हमारे रिश्ते के बारे में जानना चाहते हैं. मैं मानती हूं कि हम पब्लिक फिगर हैं, पर मेरा यकीनन यह भी मानना है कि मेरी निजी जिंदगी निजी ही रहनी चाहिए. दुनिया को सिर्फ इस बात से मतलब होना चाहिए कि हम अपने पीछे क्या काम छोड़कर जाते हैं.
मेरे पति शशि रेखी से मेरी मुलाकात फिल्म शगुन के सेट पर हुई थी. शुरू-शुरू में मैं उन्हें उनके फिल्मी नाम कमलजीत से पुकारा करती थी और कभी-कभी बस कमल कहती थी. लेकिन जब ज्यादा जान-पहचान हो गई तो उनका असली नाम शशि लेने लगी. वे ज्यादा मशहूर नहीं थे और फिल्मी दुनिया में भी नए ही थे. 1960 के दशक तक मेरी हैसियत ऐसी हो गई थी कि मैं नए कलाकारों की मदद करने लगी और नए ऐक्टर्स और डायरेक्टर्स के साथ काम करने के लिए तैयार रहती थी. कमल बहुत शर्मीले और शांत थे. शगुन के दौरान ही मुझे लगने लगा था कि वे मुझे पसंद करते थे पर उन्होंने कहा कुछ नहीं. ईद पर उन्होंने मेरे लिए चॉकलेट का एक बड़ा-सा डिब्बा भेजा. मेरी बहनें और उनके बच्चे उस वक्त मेरे साथ ही रहते थे. चॉकलेट का बॉक्स देखकर मैंने कहा, “कितने अच्छे आदमी हैं कि हमारे लिए चॉकलेट भेजी.” मेरी बहन सईदा ने मेरी तरफ घूरकर देखा और बोली, “अरे बेवकूफ! ये हमारे लिए नहीं, तेरे लिए है.”
शगुन बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली. कमलजीत ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया. वे टोरंटो में जाकर बस गए और वहीं कुछ दुकानें खोल लीं. वे जब भी बंबई आते थे तो अपने काफी करीबी दोस्त यश और हीरू जौहर के पास ठहरते थे. वे मेरे भी करीबी दोस्त थे, इसलिए अकसर तीनों मेरे यहां आ जाया करते थे. 1972 की बात है. मैंने कहा कि मैं भी पेरिस में इंडियन रेस्तरां खोलना चाहती हूं. इस पर शशि ने कहा, “अरे मेरा पार्टनर और मैं सैन डिएगो में रेस्तरां खोलने वाले हैं तो क्यों न हम मिलकर यह काम करें?” कुछ दिन बाद शशि का फोन आया और वे बोले, “मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं. क्या मैं आ सकता हूं?” मुझे लगता तो था कि वे मुझे बहुत पसंद करते हैं, लेकिन मैंने सोचा कि वे रेस्तरां में पैसा लगाने के बारे में बात करना चाहते होंगे. हम कॉफी पी रहे थे, तभी अचानक शशि ने कहा, “मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं. मुझसे शादी करोगी?”
मैं तो एकदम सकते में आ गई. क्या मैंने सही सुना था? मैंने नजरें झुका लीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. वे एक मिनट तक चुप रहे और फिर बोले, “मैंने तुमसे कुछ पूछा है, तुमने जवाब नहीं दिया.” मैंने बस इतना ही कहा कि मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. सबकी जिंदगी में एक वक्त आता है, जब हम घर बसाने और बच्चों के बारे में सोचते हैं. मैं 34 साल की थी और सच कहूं तो मेरा करियर भी अब उतनी ऊंचाई पर नहीं था, क्योंकि हिंदी सिनेमा में वैसे भी 30 से ऊपर की महिलाओं के लिए अच्छे रोल नहीं होते. मैं शादी करना चाहती थी. इसलिए उनके प्रस्ताव पर सोचने लगी. यश जौहर मुझे मालिक कहा करते थे. कुछ दिन बाद उनका फोन आया और वे बोले, “मालिक, तुम हम सबकी जान ले लोगी. यह बंदा तो कमरे में पागलों की तरह धुआं उड़ाते हुए इधर से उधर घूम रहा है. हम एक छोटे-से फ्लैट में रहते हैं और उसके धुएं से बीमार पड़ जाएंगे. तुम्हारा जवाब हां है या ना? बेहतर होगा कि तुम हां कह दो. शशि बहुत भला आदमी है.”
आप शायद नहीं जानतीं, लेकिन एक साल पहले ही मेरा रिश्ता तय हो गया था. बहनों ने मुझ पर शादी के लिए दबाव डाला और मैं बेवकूफ की तरह मान भी गई. मेरा रिश्ता उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में किसी के साथ तय हुआ था. मैं उसका नाम नहीं लेना चाहती क्योंकि यह ठीक नहीं होगा. लेकिन वहां पर बात कुछ बन नहीं रही थी और आखिरकार मैंने वहां शादी न करने का फैसला किया. जब शशि ने शादी का प्रस्ताव रखा तो कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि जल्दबाजी में हां मत करना. पर मैंने तो जिंदगी में हमेशा ही जोखिम उठाए हैं और मैं यह भी जानती थी कि शशि भला आदमी है. 26 जुलाई, 1974 को हमारे घर साहिल में मुस्लिम रीति-रिवाज से हमारी शादी हो गई. मेरा बेटा सोहेल 1975 में और बेटी काशवी 1976 में पैदा हुए.
शशि को बंबई का मौसम रास नहीं आ रहा था. नमी से उन्हें बेचैनी होती थी. एक साल हम अपनी शादी की सालगिरह मनाने बंगलुरू गए और शशि को वहां का मौसम बहुत अच्छा लगा. बस, हमने फैसला कर लिया कि वहीं एक फार्म लेकर बस जाएंगे. हमने एक डेयरी खोली, सब्जियां और सूरजमुखी के फूल उगाए और सूरजमुखी का तेल बनाने लगे. फार्महाउस पूरी तरह बना नहीं था. रहने के लिए बस दो कमरे थे. किचन तैयार था, लेकिन बिजली नहीं थी. मुझे याद है कि बच्चे तब गैस लाइट में होमवर्क किया करते थे. लेकिन मैंने वहां बसने की ठान ली थी और जब मैं कुछ ठान लेती हूं तो करके रहती हूं. मैं चाहती थी कि मेरे बच्चे कुदरती माहौल में बड़े हों. वे फूलों की खूबसूरती, फलों, पेड़ों और पशु-पक्षियों के साथ जीना सीखें. फार्म पर जिंदगी बड़ी खूबसूरती और शांति से गुजर रही थी. मैंने सीखा कि घर में पनीर कैसे बनाते हैं, अपनी जमीन से सब्जियां तोडऩा और खाना कितना अच्छा लगता है. हम 16 साल तक उस फार्म पर रहे. 2009 में लौटकर बंबई आए.