
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कर्ताधर्ता रहे डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या 20 अगस्त को कर दी गई थी. उनकी स्मृति को यह संगठन 'राष्ट्रीय वैज्ञानिक दृष्टिकोण' दिवस के रूप में मना रहा है. उनका पूरा नाम डॉ. नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर था. उनका जन्म एक नवंबर 1945 को महाराष्ट्र के सातारा ज़िले में हुआ था. एमबीबीएस की पढ़ाई करने के बाद डॉक्टर बनने की बजाए उन्होंने सामाजिक कार्यों में ख़ुद को झोंक दिया. साल 1982 में वह अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन से जुड़ गए और उसके पूर्णकालीक कार्यकर्ता बने. सन् 1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती की स्थापना की. वह इसके कार्याध्यक्ष थे. यह संस्था किसी भी तरह के सरकारी अथवा विदेशी सहायता के बिना काम करती है. इस संगठन की महाराष्ट्र में लगभग 200 शाखाएं हैं.
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने 18 साल पहले 'सामाजिक कृतज्ञता निधि' की स्थापना की जिसके तहत परिवर्तनवादी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को प्रतिमाह मानधन दिया जाता है. वह गणेश विसर्जन के बाद होनेवाले जल प्रदूषण और दीवाली में पटाख़ों से होनेवाले ध्वनि प्रदूषण के ख़िलाफ़ थे. उनके इन्हीं अंधविश्वास विरोधी अभियानों को हिंदू विरोधी के रूप में देखा गया, पर ऐसा नहीं था.
आज डॉ नरेंद्र दाभोलकर की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी यह क्रांतिकारी चिट्ठी. प्रख्यात सुधारवादी लेखक नरेंद्र दाभोलकर की यह चिट्ठी उनके लेख एवं
साक्षात्कार पर डॉ. सुनील लवटे द्वारा संपादित राजकमल प्रकाशन के उपक्रम
सार्थक से इसी महीने प्रकाशित नई पुस्तक 'विवेकवादी डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर'
से ली गई है.
प्यारे युवा दोस्तो और सहेलियो,
एक पत्र या पत्रक आपके पास निश्चित रूप से कभी-न-कभी आया होगा. आपके पास नहीं आया होगा तो आपके प्रिय दोस्त अथवा पड़ोसी को तो निश्चित तौर पर मिला होगा. इस प्रकार का पत्र अथवा पत्रक हाथ में आने पर आप कुछ पल सोच में पड़े होंगे. पत्र में दिए आदेश का पालन, बताई गई कृति क्यों न करूँ, यह दुविधा आपके भी मन में हो गई होगी. फिर आपका और आपके आस-पास के सभी का क्या निश्चय हुआ होगा? ‘बेवजह रिस्क नहीं लेना. वैसे इस पत्र में सच्चाई होगी ही नहीं...ऐसा कभी हुआ है? लेकिन किसी के साथ हुआ तो? अपने ही साथ हुआ तो...? भलाई इसमें ही है कि प्राप्त पत्र की ग्यारह अथवा इक्कीस संख्या में नकल हो और ऐसी ही पाँच सौ अथवा एक हज़ार कापियाँ छपवाकर बाँट दें. मतलब ग़लती से भी ‘न’ कहते ही ब्रह्म हत्या ना हो.’
इन पत्रों में लिखा हुआ आशय लगभग एक जैसा ही होता है. लालच अथवा दहशत भी लगभग एक जैसी ही होती है. देवी का नाम बहुत बार सन्तोषी माता अथवा कभी अन्य देवता का भी रहता है. आशय इस प्रकार होता है कि इसके अनुसार ग्यारह पत्र लिखिए अथवा पाँच सौ कॉपियाँ छपवाकर बाँटिए. इस सूचना (आदेश या धमकी) की अनदेखी मत करना. जिन्होंने इस आदेश का पालन किया वे देवी के कृपा प्रसाद से मालामाल हुए. उन्हें अचानक धनलाभ हुआ. लॉटरी का टिकट निकला. अचानक खेती, ज़मीन, मकान आदि मिला. कहने का मतलब सब कुछ अच्छा हुआ. कुछ लोगों ने पत्र पढ़कर अपनी होशियारी दिखाई. सीधे-सरल आदेश को नज़रअन्दाज़ किया तो उनकी दुर्दशा हुई. किसी की अचानक जायदाद लूट ली गई, किसी के यहाँ डकैती हुई, किसी के साथ बड़ा हादसा हुआ तो किसी को परिवारजनों की लगातार मृत्यु का दुख सहना पड़ा. अतः उचित निर्णय लीजिए और सुजान बनिए.
गौतमी तीस साल की युवती. अध्यापिका. दो छोटे बच्चों की माँ है. अपने स्कूल में गई तो बच्चों के चेहरों पर गम्भीरता और कुछ डर-सा दिखा. उसने बात की तह तक जाने के लिए संवाद आरम्भ किया. बच्चे सामान्य हो गए. पन्द्रह-बीस बच्चों ने बस्ते से सन्तोषी माता का कार्ड बाहर निकाला. गौतमी को याद आया, उसे भी एक-दो दिन पहले ऐसा ही एक पत्र मिला था और उसके पर्स में वह वैसा ही पड़ा है. उसने भी अपना पत्र बाहर निकाला. पत्र की धमकी जाली थी. पत्र के आदेश का पालन न करनेवाले व्यक्ति की उसके बच्चों के साथ पन्द्रह दिन के अन्दर मृत्यु होगी इस प्रकार धमकाया गया था. कुछ अभिभावकों को लगता था स्कूल के प्रशासन को इस बारे में कुछ निर्णय लेना चाहिए. कुछ अभिभावकों ने पत्र भी लिख दिए थे. अब टीचर क्या बताती हैं इस बारे में सबको कुतूहल बना था.
गौतमी को आया हुआ पत्र टेबल पर ही पड़ा हुआ था. अब टीचर क्या बोलती हैं इस तरफ़ सबका ध्यान था. गौतमी ने पत्र हाथ में लिया और बिना बोले उसके दो टुकडे़ कर दिए. फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए और कचरे के डिब्बे में डाल दिए. कुछ अघटित ही हुआ. छात्र दंग रह गए. टीचर ने इतना ही कहा, "प्रस्तुत पत्र के आशय के अनुसार आनेवाले पन्द्रह दिनों में मेरा और मेरे बच्चों का आयुष ख़त्म होना चाहिए. मैं हर दिन स्कूल आऊँगी, आप ध्यान रखिए." फिर भी बच्चों के मन में ख़ौफ पैदा हुआ ही. दुर्योग से अगले पन्द्रह दिनों में गौतमी को बुख़ार आया. डॉक्टर ने सलाह दी कि स्कूल मत जाइए. बुख़ार बहुत है. लेकिन गौतमी का आग्रह इसलिए था कि उसे बच्चों के मन की आशंका ख़त्म करनी थी. बुख़ार में भी गौतमी स्कूल गई. उसने पढ़ाया.
पन्द्रह दिन पूरे हो जाने पर तो वह बच्चों को भी साथ लेकर गई और सब कुछ कुशल होने का ‘आँखों देखा हाल’ सामने रखा. उसके बाद करिश्मा ही हुआ. कई बच्चों ने अपने बस्ते से ख़ुद को आए हुए कार्ड बाहर निकाले. उनके टुकड़े-टुकडे़ कर दिए और कक्षा से बाहर फेंक दिए. समाज सुधारक गोपाल गणेश आगरकर ने सौ साल पहले कहा था, "केवल ज्ञान की वृद्धि नहीं चलेगी, उसके अनुसार व्यवहार करने का साहस भी बढ़ना चाहिए.'' आगरकर की विरासत गौतमी और बच्चों ने निश्चित ही प्रयोग की.
युवा दोस्तो, छोटे हो या बड़े, विचारों की कसौटी को तथ्यों के स्तर पर कसने हेतु चुनौतियों का सामना करने के प्रसंग आपके जीवन में आएँगे ही. निडरता से मुक़ाबला करोगे ना?
आपका विवेकसाथी
नरेंद्र दाभोलकर