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हम अपनी दुनियावी दिक्कतों और नाकामियों के लिए अक्सर अपने भाग्य को जिम्मेदार ठहराते हैं. किसी मौलवी या फिर ज्योतिषी के पास भागे-भागे जाते हैं. कई बार तो इस कदर निराश हो जाते हैं कि आत्महत्या तक के खयाल हमारे दिल-ओ-दिमाग पर तारी होने लगते हैं. हम सड़क किनारे बैठे हस्तरेखा विशेषज्ञों का सहारा तक लेने लगते हैं, मगर क्या आपने यह कभी सोचा है कि बिन हाथों वाले इंसान की भी किस्मत हो सकती है? वह हम-आप जैसे तमाम हताश-निराश नौजवान युवाओं के लिए प्रेरणापुंज हो सकता है.
यहां हम जिस शख्स का जिक्र करने जा रहे हैं, वह शख्स आज से कई साल पहले एक दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गंवा बैठा था लेकिन आज अपनी जिजीविषा और अदम्य साहस के दम पर वह संपूर्ण मानवता के लिए एक नजीर है. यहां मैं अपनी ओर से फैज़ साहब का एक शेर उनकी खिदमत में पेश करना चाहूंगा कि, "दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है. लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है."
एक दुर्घटना में गंवा बैठे दोनों हाथ...
इस शख्सियत का नाम रविचंद है. वे उत्तरप्रदेश के बलिया जिले से ताल्लुक रखते हैं. अब जो लोग बलिया को नहीं जानते उन्हें हम बताते चलें कि बलिया हमारे देश के आजाद होने से पहले ही आजाद हो गया था. बाकी की कहानी के लिए गूगल बाबा का सहारा लें. अभी बात रविचंद भाई की. वे उन दिनों सूरत की किसी कंपनी में बिजली का काम किया करते थे. एक दिन सीढ़ियों से फिसल कर बिजली के नंगे तार पर गिर पड़े. डॉक्टरों के कहे अनुसार दोनों बाहें काटनी पडीं. आठ हजार रुपये में आराम से चल रही जिंदगी ने बिस्तर पकड़ लिया. पत्नी और छोटे बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी मुहाल हो गई, मगर वे भी कहां हार मानने वाले थे. वे फिर से उठ खड़े हुए.
साइकिल को बनाया रोजगार का औजार...
रविचंद भाई वैसे तो पहले भी साइकिल चलाया करते थे लेकिन अब परिस्थितियां एकदम विपरीत थीं. वे भी कहां हार मानने वाले थे. चार महीने से कोने में फेंकी गई साइकिल को सिर पर उठाया और बाजार के लिए चल दिए. साइकिल के हैंडल में लोहे का कब्जा कुछ तरह लगवाया कि वे उसमें वे अपने दोनों हाथों को फंसा सकें. ब्रेक को पैरों की जगह लगवाया ताकि जरूरत पड़ने पर ब्रेक लगा सकें. अब वे हर रोज सुबह नौ बजे से शाम तक बड़ी दुकानों से माल लेकर छोटी-छोटी दुकानों तक पहुंचाने का काम करते हैं. वे हमेशा अपनी साइकिल पर एक बड़ा थैला आगे और चार बड़े थैले पीछे लेकर चलते दिख जाते हैं. उनके भीतर की आग आज भी बहुतों के लिए जोश और जुनून की आग है.
एक बार नेताजी से भिड़ पड़े...
जब आदमी इस कदर जुझारू हो तो जाहिर है कि वह किसी की भी बात सुनने से रहा. किसी का भी अहसान लेने से रहा. बात आज से कोई पांचेक साल पहले की है. वोट के लिए साइकिल, मोबाइल और लैपटॉप बांटने के वादे फिजा में तैर रहे थे. एक नेताजी की नजर रविचंद भाई पर भी पड़ी. उन्होंने रविचंद भाई को 'विकलांग' घोषित करते हुए बैट्री वाला रिक्शा देने की घोषणा कर दी. सोचा होगा कि माहौल बना कर वोट बटोर लिए जाएं, लेकिन इस बार पाला तो रविचंद भाई से पड़ गया था. रविचंद भाई ने भी बलियाटिक अंदाज में पगड़ी बांधी और लपककर नेताजी के पास पहुंच गए. नेताजी की आंखों में आंख डालकर बोले - ए नेताजी! फेर फेर विकलांग कहे न तो यहीं लथार कर बैलेट बॉक्स बना देंगे. आइए न साइकिल रेस कर लीजिए, देखिए तो कौन जीतता है. चाहे कुछ हो या न हो लेकिन जिंदगी के रेस के तो वही विनर हैं.
बलियाटिक पगड़ी है पहचान का हिस्सा...
वैसे तो पगड़ियां न जाने कितने ही अंदाज में बांधी जाती हैं लेकिन रविचंद भाई के पगड़ी बांधने का अंदाज ही निराला है. वे जब अंगौछे को सिर पर घुमा कर बांधते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने चुपके से उनके सिर पर मुकुट रख दिया हो. वे नंगे पांव साइकिल चलाते ऐसे लगते हैं जैसे सूर्य अपना रथ खुद ही हांक रहा हो. जमाने से बेफिकर और अपनी ही धुन में. आस-पास के अंधेरे को काटता हुआ और हताश-निराश लोगों के लिए फिर से उठ खड़े होने की एक नजीर पेश करता हुआ. अब हम तो बस यही दुआ करेंगे कि वे यूं ही स्वस्थ बने रहें और पूरी दुनिया में सकारात्मकता का प्रवाह बरकरार रखें.
नोट:- इस स्टोरी की प्राथमिक जानकारी व तस्वीर असित कुमार मिश्र के फेसबुक पोस्ट से ली गई है...