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जो पुल कभी पूरे एशिया की शान हुआ करता था, वही पुल आज बिहार का दु:स्वप्न बन चुका है. वो पुल कभी बिहार की जीवन रेखा थी, पर अब जीवन की ये डोर टूटने की कगार पर है. महज 30 साल में ही पटना का महात्मा गांधी सेतु इतना जर्जर हो चुका है कि गंगा के बीचोंबीच इसके 44 नंबर पाये पर बना सुपर स्ट्रक्चर देखकर ही लोगों की रूह कांप जाती है.
पुल का एक स्ट्रक्चर इतना झुक चुका है कि पुल पर देखने से इसके किसी भी वक्त गिरने का एहसास होने लगता है. आलम यह है कि इस पुल के बड़े भाग को पूरे साल वन-वे कर दिया गया है, ताकि महात्मा गांधी सेतु बचा रहे. लेकिन जर्जर हालत, उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ने वाला एकमात्र पुल होने और बड़ी गाड़ियों के दबाव की वजह से इस पर लगने वाले ट्रैफिक जाम ने महात्मा गांधी सेतु की शान पर बट्टा लगा दिया है.
अगर आप पुराने जनरल नॉलेज की किताब के पन्नों को पलटेंगे, तो महात्मा गांधी सेतु का नाम एशिया के सबसे बड़े पुल के तौर पर मिलेगा. कभी लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की शान बढा़ चुका यह पुल अब इससे गुजरने वालों की रूह कंपाने के लिए कुख्यात हो चुका है. घंटों नहीं, कई दिनों तक रहने वाले ट्रैफिक जाम, जाम में फंसकर मौत के मुंह में समाते मरीजों की कहानी और शादियों के मुहूर्त इसी पुल पर फंसकर गुजार देने की कहानियों की कोई गिनती नहीं है. हर साल दर्जनों शादियां सिर्फ इसलिए वक्त पर नहीं हो पातीं, क्योंकि पुल जर्जर होने की वजह से थम जाता है. शादियां टल जाती हैं, लोग नावों का सहारा लेते हैं. कई बार तो दूल्हे बाइक से पुल पार करते हैं.
कलकल करती गंगा के ऊपर जब आप पुल की तरफ निगाहें डालेंगे, तो अंदाजा लग जाएगा कि दुनिया के जिस बड़े पुल से आप गुजरते हैं, वो किस कदर खोखला हो चुका है. पुल का एक हिस्सा ऐसा लटक चुका है, मानो वो कभी भी गंगा में गिर सकता है. प्री-स्ट्रेस टेक्नोलॉजी पर बना यह पुल तकनीक के लिहाज से भी बेकार हो चुका है. कभी केन्द्र सरकार के रहमोकरम पर रहा यह पुल अब कुछ वर्षों से बिहार सरकार के पास है. लेकिन सालों से चल रहे मरम्मत के काम ने लोगों को थका दिया है.
1998 में इस पुल पर पहली बार दरार दिखी थी. 15 साल हो गए, लेकिन पुल ठीक होने के बजाए जर्जर होता गया. 1998 से लेकर अब देश और दुनिया के पुल विशेषज्ञ 5 सर्वे करा चुके हैं, पर नतीजा सिफर ही रहा. वजह है इस पुल पर सालों से 16 टन और 24 चक्के वाली भारी गाडियों की बेधड़क आवाजाही. इस पुल को बचाने के इंतजाम हमेशा नाकाफी रहे हैं. आज भी पुल पर बडे़ और भारी वाहनों की आवाजाही पर रोक है, पर हर रात इस पुल के लिए भारी गुजरती है.
पथ निर्माण विभाग के सचिव प्रत्यय अमृत कहते हैं, 'ये प्री-स्ट्रेसिस टेक्नोलॉजी पर बना है. अब जो बातें समीक्षा में आ रही हैं, उसमें यह निकलकर आ रहा है कि ये उपयुक्त टेक्नोलॉजी नहीं थी. दूसरी बात यह है कि पुल बनने के बाद इसका समुचित रख-रखाव किन्हीं कारणों से नहीं हो पाया. पहली स्टडी 1998-99 में की गई थी, जब कुछ दरार नजर आने लगी थी. स्टडी स्तूप कंसल्टेंट्स ने किए. उसकी सिफारिशों के बाद 6-7 और स्टडी हो चुकी है. बनने के 13-14 साल बाद से ही समस्याएं शुरू हो गई थीं.'
जिस हालत में महात्मा गांधी सेतु पहुंच चुका है, उसमें इसके सुधरने की गुंजाइश काफी कम है. पुल एकदम लटकता हुआ-सा दिखाई देता है, जो कि किसी डरावने सपने जैसा है. पुल के कई हिस्सों के ऊपरी स्ट्रक्चर को फिर से तोड़कर बनाने की कोशिश की गई है. लेकिन पुल तोड़ने के दौरान मलबा गंगा में ना गिरे, इसकी चेतावनी पर्यावरणविदों ने भी दे दी है.
बिहार सरकार का दावा है कि अगले डेढ़ वर्षों में इसे फिर से तैयार कर लिया जाएगा, लेकिन तब भी यह छोटी गाड़ियों के लायक ही बन पाएगा. अभी 44 नंबर पिलर के पास का जो स्ट्रक्चर गंगा की ओर झुक गया है, उसे तोड़कर बनाने के लिए 39 करोड़ रुपये मिले हैं, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इसे बनाने की है.
पुल की इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है, इसकी फेहरिस्त बड़ी लंबी है. लेकिन महात्मा गांधी सेतु पर हो रहे अत्याचार का अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं. पूरे राज्य की बड़ी गाडि़यों का दबाव इसी पुल पर है. यही वजह है कि लंबा जाम लगना आम बात है. सालों भर वन-वे होने से पुल पर लंबा जाम तो रोजमर्रा की बात है. लेकिन 2015 तक लोगों को कोई सुकून नहीं मिलने वाला, क्योंकि जब तक पटना के पास दीघा में बन रहा पुल बनकर तैयार नहीं होता, तब तक महात्मा गांधी सेतु का हश्र यही रहेगा. ये पुल पटना के पास दीघा में बन रहा है. यह दीघा से पहलेजा को जोड़ेगा. पथ निर्माण विभाग के सचिव प्रत्यय अमृत के मुताबिक जब गंगा पर दूसरे पुल बनकर तैयार नहीं होते, तब तक परेशानी का सामना करने पड़ेगा. उम्मीद के मुताबिक पटना के दीघा में बन रहे रेल सह सड़क पुल मार्च 2015 तक बनकर तैयार हो जाएगा, जिसके बाद ही इस पुल को राहत मिलेगी.
साढे़ 6 किमी लंबा महात्मा गांधी सेतु 1982 में बना था. तब इस पर महज 81 करोड़ की लागत आई थी. तब यह एशिया का सबसे बड़ा पुल था. लेकिन पिछले 15 वर्षों में इसकी मरम्मत पर 125 करोड़ से अधिक रकम खर्च हो चुकी है. लेकिन हालत वही 'ढाक के तीन पात'. सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या बिहार की शान पुरानी रौनक में लौटेगा या यह एक अभिशप्त पुल के तौर पर याद किया जाएगा.