Advertisement

एक ही साल में सूखा और बाढ़

देश में दो को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में या तो सामान्य बारिश हुई या फिर कम, इसके बावजूद 126 जिलों के साढ़े छह करोड़ लोग खराब जल प्रबंधन और भ्रष्टाचार के चलते बाढ़ की लपेट में.

इलाहाबाद में बाढ़ का नजारा इलाहाबाद में बाढ़ का नजारा
पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 07 सितंबर 2016,
  • अपडेटेड 11:42 AM IST

जहां दो महीने पहले सूखा था, आज वहीं बाढ़ है. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र, ये वही राज्य हैं, जहां दो महीने पहले तक जमीन की छाती फटी हुई थी. पानी की एक-एक बूंद को तरसते गांवों के दृश्य आम थे. इन सूखे राज्यों में इतनी ही बारिश हुई है, जितनी सावन-भादों को शोभा देती है. मौसम विभाग ने 1 जून से 31 अगस्त तक हुई बारिश के जो आंकड़े जारी किए हैं, उससे पुष्टि होती है कि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में सामान्य बारिश हुई है. बिहार में सामान्य से 21 फीसदी कम बारिश हुई है. हां, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जरूर सामान्य से अधिक बारिश हुई है. यानी सूखे से निकलने को तड़प रहे इन ज्यादातर राज्यों को अभी इतना पानी नहीं मिला है कि गाढ़े वक्त के लिए सहेज कर रखा जा सके. लेकिन सूखा खत्म होने से पहले ही ये राज्य खुद को बाढ़ की जद में पा रहे हैं.

राज्यों से मिले आधे-अधूरे फौरी आंकड़ों के आधार पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 25 अगस्त तक बाढ़ से उपजे हालात का जो खाका खींचा है, वही अपने आप में विभीषिका के आकार की तरफ इशारा करता है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 126 जिलों के 6.63 करोड़ लोग बाढ़ की चपेट में हैं. यही कोई 42 लाख हेक्टेयर खड़ी फसल को बाढ़ से नुक्सान पहुंचा है. केंद्र ने यह आंकड़ा सिर्फ चार राज्यों से मिले आंकड़ों को जोड़कर दिया है. इसमें मध्य प्रदेश जैसा कृषि प्रधान राज्य तक शामिल नहीं है. केंद्र सरकार ने बाढ़ से 600 लोगों की मौत की बात मानी है, हालांकि राज्यों के आंकड़ों को स्वतंत्र रूप से जोड़ा जाए तो यह संख्या 1,500 से ऊपर पहुंच जाती है. केंद्र की रिपोर्ट में 2,349 करोड़ रु. की संपत्ति के नुक्सान का आकलन है, लेकिन यहां यह ध्यान देना होगा कि बिहार के अलावा किसी दूसरे राज्य ने अब तक नुक्सान के आंकड़े केंद्र को नहीं भेजे हैं.

यानी बाढ़ आए करीब एक महीना होने को है, लेकिन केंद्र सरकार के पास अब तक उसकी सटीक तस्वीर तक नहीं है. पर दो राज्यों को छोड़कर शेष देश में हुई सामान्य या सामान्य से कम बारिश के हालात में आई इस बाढ़ ने कुछ चीजों को इस तरह उजागर किया है, जिसे छुपाया नहीं जा सकता. ये चीजें हैं सिंचाई परियोजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, कमजोर जल प्रबंधन और लचर आपदा प्रबंधन.

बह गए नए बने बांध और पुल

इसकी बानगी देखनी हो तो चलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में. गंगा किनारे बसे बलिया वालों को इस बात का खूब पता है कि बरसात में नदी चढ़ती है और अपनी जमीन अगोरती है. इसके लिए वे सदियों से मानसिक रूप से तैयार रहते आए हैं. लेकिन 27 अगस्त को यहां जो हुआ, उसके लिए वे तैयार नहीं थे. राष्ट्रीय राजमार्ग-31 के करीब गोपालपुर ग्राम पंचायत में बना दुबे का छपरा रिंग बांध दोपहर साढ़े बारह बजे टूट गया. देखते ही देखते उदई छपरा, प्रसाद छपरा, गोपाल पुर समेत आसपास के 35 गांव पानी में समा गए. पूरे घटनाक्रम ने सरकारी भ्रष्टाचार की पोल खोलकर रख दी. बांध का निर्माण बिरला समूह ने वर्ष 1948 में कराया था. तीन वर्र्ष पहले तक बांध का रखरखाव निजी हाथों में था. 2013 में बाढ़ आने पर जब यह बांध टूटा तो सरकार ने इसे सिंचाई विभाग के सुपुर्द कर दिया. सिंचाई विभाग ने तब नौ करोड़ रु. की लागत से बंधे का पुनर्निर्माण कराया. बलिया में बाढ़ पीडि़तों की मदद में जुटे सिंचाई विभाग के पूर्व इंजीनियर वीरेश्वर राय बताते हैं, ''सिंचाई विभाग ने रिंग बांध के पुनर्निर्माण में जमकर भ्रष्टाचार किया है. यही कारण है कि यह दोबारा बनने के बाद पहली बाढ़ नहीं झेल पाया. ''

बांध के पुनर्निर्माण से पहले हुए विभागीय सर्वे ने इसके प्लेटफॉर्म को जी.ओ. तकनीकी या ट्यूब तकनीकी के आधार पर बनाने की बात कही थी, लेकिन सिंचाई विभाग ने बंबू क्रेट विधि को अपनाया जो तेज लहरों को रोक पाने में नाकाम साबित हुई है. ऐसी ही स्थिति बाराबंकी में घाघरा नदी पर बने एल्गिन-चरसड़ी बांध की भी है. 2013 में आई बाढ़ में यह बांध टूटा और सिंचाई विभाग ने मरम्मत के नाम पर 10 करोड़ रु. से अधिक खर्च किए लेकिन इस बार 8 अगस्त को यह बांध बाढ़ में बह गया. वैसे, सिंचाई मंत्री शिवपाल यादव बांधों की मरम्मत में किसी भ्रष्टाचार से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ''एल्गिन-चरसड़ी बांध को पक्का करने के लिए केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी जा चुकी थी, लेकिन दो साल में उन्होंने एक भी पैसा नहीं दिया है. ''

हादसे होने के बाद मंत्रियों के पास हमेशा से ऐसे ही जवाब रहे हैं. लेकिन जो बलिया के साथ हुआ है, उससे कहीं ज्यादा लूट उस बुंदेलखंड में हुई है जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बंटा हुआ है. यूपीए सरकार में सूखे से निजात के लिए बुंदेलखंड को 7,200 करोड़ रु. का पैकेज दिया गया था. इससे बहुत से सूखा राहत काम हुए. लेकिन पैकेज के बाद जब पहली बार सामान्य बारिश हुई तो मध्य प्रदेश के इलाकों से बांधों और नहरों के ढहने की खबरें झरने लगीं. पन्ना जिले में बुंदेलखंड पैकेज के तहत 32 करोड़ रु. की लागत से दो साल पहले बना सिरस्वाहा बांध पानी के साथ बह गया. इसी जिले में 15 करोड़ रु. से बने बिरखुड़ा बांध को भी बारिश बहा ले गई. टीकमगढ़ के समाजसेवी पवन घुहारा कहते हैं, ''बुंदेलखंड पैकेज के निर्माण कार्यों में भारी अनियमितताएं बरती गईं. पन्ना के बांधों का मामला विधानसभा में भी उठने के बाद इनकी खामियों पर सरकार परदा डाले रही. सरकार ने जो जांच करने का दावा किया था उसके लिए मैंने हाइकोर्ट में याचिका लगाई थी, जिसका जवाब मध्य प्रदेश सरकार डेढ़ साल में नहीं दे सकी है. '' वहीं सागर जिले के बंदिया बांध में करोड़ों रुपए खर्च करने के फौरन बाद ही दरार पडऩे और हाल ही में वंडा क्षेत्र में बनी नहर फट जाने से कई गांव डूब गए. बंदिया बांध की मरम्मत पर हाल ही में सरकार ने पांच करोड़ रु. खर्च किए थे.

वहीं, रीवा लालगांव क्योटी मार्ग पर बनाया गया करोड़ों का पुल भी ढह गया. इसके बाद पीडब्ल्यूडी मंत्री ने कहा कि अनुबंध की समयसीमा में धराशायी हुए पुलों-सड़कों को उसी कॉन्ट्रैक्टर से सुधरवाया जाएगा. बुरहानपुर में चार सड़कें खराब हुईं. जुन्नारदेव से 40 किमी दूरी पर गंगवानी गांव में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 1 करोड़ 80 लाख रुपए की लागत से बनी 5.77 किमी की सड़क और पुल बारिश में बह गए हैं. सड़क एक साल पहले ही बनकर तैयार हुई थी. ठेकेदार जेएस अठवाल पर 4 फीसदी की दर से जुर्माना लगाने की बात इंजीनियर ने कही है, जबकि वेबसाइट पर भुगतान पूरा दिखाया जा रहा है. इस बाढ़ ने मध्य प्रदेश की कई गजब चीजें सामने ला दी हैं.

बाढ़ और सूखा : एक सिक्के के दो पहलू
मान लीजिए कि देश की सारी सरकारें ईमानदार हो जाएं और अफसर काली कमाई की तरफ देखें भी नहीं तो भी क्या हम बाढ़ और सूखे से बच जाएंगे, शायद नहीं, क्योंकि बुनियादी चीज है जल प्रबंधन. जैसे सामान्य बारिश से यूपी में आई बाढ़ के समीकरण को ही समझें. अगस्त के पहले हक्रते में मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड में हुई सामान्य से 20 फीसदी बारिश ने यहां की केन, बेतवा, धसान जैसी नदियों में बाढ़ के हालात पैदा कर दिए. इन नदियों का पानी यमुना में मिला. बारिश से पहले से उफनाई गंगा में जब यमुना आकर मिली तो इलाहाबाद में सैलाब आ गया. जैसे-जैसे गंगा में पानी आगे बढ़ा, रास्ते में पडऩे वाले जिलों वाराणसी, गाजीपुर, बलिया में तबाही आ गई. वाराणसी के कमिशनर नितिन गोकर्ण रमेश कहते हैं, ''बेतवा नदी पर बने माताटीला बांध से 5 अगस्त को अचानक पांच लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया जिससे स्थिति और खराब हो गई. '' अचानक आई बाढ़ ने वाराणसी और इलाहाबाद जैसे महानगरों के निरोधक इंतजाम की पोल खोल कर रख दी. वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे डूब क्षेत्र में नियम को ताक पर रखकर बने पक्के मकानों के चलते बाढ़ के पानी को रास्ता न मिला और इसने शहर में घुस कर जमकर तांडव किया. इसके अलावा वाराणसी में करीब 300 करोड़ रु. खर्च करके बिछाई गई सीवर लाइनों को आपस में न जोड़े जाने के कारण इनसे बाढ़ का पानी नहीं निकल पाया और स्थिति गंभीर हो गई. कमिशनर की बातों का निहितार्थ निकालें तो वाराणसी की बाढ़ की दो वजहें हैं: पहली, कोई 400 किमी दूर माताटीला बांध से पानी छूटना, दूसरी यह कि शहर का जल निकासी तंत्र कमजोर होना. यानी शहर के पानी से वाराणसी में बाढ़ नहीं आई, बाहर के पानी से आई. इसमें नेपाल का पानी भी शामिल है.

लेकिन क्या यह बाहर का पानी भी हमारी नीतिगत कमजोरियां से आया? उत्तर प्रदेश और खासकर बुंदेलखंड के इलाके में लंबे समय तक काम करने वाले वरिष्ठ इंजीनियर के.के. जैन बताते हैं, ''केन-बेतवा नदियों को जोडऩे की योजना 15 साल से लटकी है. अगर यह योजना अमल में आ जाती तो बुंदेलखंड में 6 नए बांध बने होते. ऐसे में माताटीला बांध से उतना पानी नहीं छोडऩा पड़ता जितना 5 अगस्त को छोड़ा गया. '' तस्वीर के दूसरे पहलू की तरफ इशारा करते हुए जैन कहते हैं कि अगर ये बांध बन गए होते तो बुंदेलखंड को उस तरह का सूखा भी नहीं झेलना पड़ता जो उसने पिछले चार साल से झेला है. यानी बाढ़ और सूखा, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों से बचने का एक ही उपाय है कि बारिश के समय खूब पानी रोका जाए और सूखे के समय उसे काम में लाया जाए.

कमजोर आपदा प्रबंधन
यही पानी जब वाराणसी और बलिया से आगे बढ़ता है, तो पहुंच जाता है बिहार. यह पूर्वी राज्य इस समय अजीब हालात से गुजर रहा है. राज्य में 31 अगस्त तक सामान्य से 21 फीसदी कम बारिश हुई है. इसके बावजूद कई जिले ऐसे हैं, जहां नदी के आसपास के इलाकों में बाढ़ है और बाकी जगह खड़ी फसल सूख रही है. थोड़ा पीछे जाएं तो पता चलेगा कि जुलाई में नेपाल के तराई क्षेत्रों में हुई भारी बारिश से उत्तर बिहार की महानंदा, बकरा, कनकई, परमान, कोसी, बूढ़ी गंडक और गंडक जैसी नदियों में जल का बहाव तेज हो गया. इससे 14 जिले प्रभावित हो गए थे, जबकि फल्गू नदी में पानी का बहाव बढऩे से जहानाबाद, गया और नालंदा में बाढ़ का सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ, झारखंड और मध्य प्रदेश में अधिक बारिश का असर भी बिहार को भुगतना पड़ता है. मोहम्मदगंज बैराज और वाणसागर डैम से छोड़े गए पानी ने दक्षिण बिहार से गुजरने वाली सोन नदी का जलस्तर बढ़ा दिया. सोन का पानी गंगा में जाता है. इससे गंगा की जलस्तर में बढ़ोतरी हो गई. इससे 12 जिले प्रभावित हुए हैं.

स्थिति को कुछ ज्यादा ही आसान बनाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि फरक्का बैराज से लाभ कम और नुक्सान अधिक हो रहा है. केंद्र सरकार को इसे हटाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. बैराज के कारण गंगा में गाद जमा हो गई है. मुख्यमंत्री ने कहा है कि जब तक राष्ट्रीय गाद प्रबंधन नीति गठित कर उसका कार्यान्वयन नही होगा, तब तक बारिश के कारण गंगा में बाढ़ का खतरा झेलने को हम विवश होंगे. मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर उन्हें बाढ़ की स्थिति से अवगत भी कराया है.

लेकिन बिहार की सत्ता में सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह गंगा में गिरने वाली एक-एक नदी का नाम गिनाने के बाद कहते हैं, ''नीतीश बाबू दूर की कौड़ी लाए हैं. कहां फरक्का बैराज और कहां पटना. बैराज से पटना कम से कम 30 मीटर की ऊंचाई पर होगा. बैराज का पानी इतना ऊपर चढ़ गया कि यहां तक बाढ़ आ गई! '' रघुवंश का आरोप है कि नदियों में होने वाला अवैध खनन और घटिया तटबंध इस बाढ़ की प्रमुख वजह हैं.

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी के पूर्व सचिव नूर मुहम्मद समस्या के दूसरे पहलू की तरफ ध्यान दिलाते हैं. उन्होंने कहा, ''नेपाल से उतरने वाली नदियों पर सही बांध नहीं बने हैं. ऐसे में नेपाल अपनी जरूरत भर का पानी रोककर बाकी पानी छोड़ देता है. दोनों देशों के बीच इस तरह की प्रभावी व्यवस्था भी नहीं है कि वहां से पानी छूटने की सटीक जानकारी भारत को मिल जाए. ऐसे में बड़ी मात्रा में अचानक आने वाला पानी बिहार पर कहर बनकर टूटता है. '' नूर का मानना है कि भारत को न सिर्फ नेपाल से पानी छोडऩे के बारे में बेहतर सूचना तंत्र विकसित करना चाहिए, बल्कि नेपाल को बेहतर बांध बनाने की परियोजनाओं के लिए भी रजामंद करना चाहिए. वहीं, पटना में जल विशेषज्ञ इंजीनियरों डॉ. टी. प्रसाद, दिनेश प्रसाद सिंह और डॉ. संतोष कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि बाढ़ को लेकर हो रही राजनीति में जनता और विज्ञान दोनों की उपेक्षा हो रही है.

इतनी सारी अनदेखियों के बाद एक और अनदेखी होती है और वह है बचाव कार्यों की तैयारी की. नूर कहते हैं, ''एनडीआरएफ में आखिर हमारे पास कितने लोग हैं. जरूरत इस बात की है कि हर गांव में दो-तीन लोगों को बाढ़ राहत की ट्रेनिंग दी जाए. समाज को जोड़े बिना सरकार अकेले यह काम कतई नहीं कर सकती. '' उधर, वाराणसी में स्थिति यह है कि यहां तैनात एनडीआरएफ के 900 जवानों में से 80 फीसदी पहली बार बाढ़ नियंत्रण में काम कर रहे हैं. एक इंस्पेक्टर बताते हैं, ''इस बल में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों से पांच वर्ष के लिए जवान प्रतिनियुक्ति पर तैनात होते हैं. आपदा नियंत्रण के लिए कुल 22 पाठ्यक्रमों को पढऩे में ही ढाई वर्ष से ज्यादा का समय निकल जाता है. जब जवान इस काम में पारंगत होते हैं तो उनका डेपुटेशन खत्म होने का समय आ जाता है. '' और यही हाल सरकारों के कार्यकाल का है. अब सरकारों को सोचना है कि उन्हें बाढ़ और सूखे से वाकई निबटना है या फिर सिर्फ कार्यकाल पूरा करना है.

(—साथ में संतोष पाठक, अशोक प्रियदर्शी और कुणाल प्रताप सिंह)

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement