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झारखंड विधानसभा चुनाव में 25 पर सिमटी BJP, ये रहे हार के 4 बड़े कारण

झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन को झारखंड विधानसभा चुनाव में स्पष्ट जनादेश मिल गया है और यह गठबंधन नई सरकार बनाने के लिए तैयार है. भाजपा चुनाव हार हार गई है.

हेमंत सोरेन और पीएम मोदी हेमंत सोरेन और पीएम मोदी
aajtak.in
  • रांची,
  • 23 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 8:27 AM IST

  • झारखंड विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर सिमटी बीजेपी
  • झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन को मिला बहुमत

झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो)-कांग्रेस-राष्ट्रीय जनता दल (राजद) गठबंधन को झारखंड विधानसभा चुनाव में स्पष्ट जनादेश मिल गया है और यह गठबंधन नई सरकार बनाने के लिए तैयार है. भाजपा चुनाव हार हार गई है मीडिया से बातचीत करते हुए हेमंत सोरेन ने अपनी जीत राज्य के लोगों को समर्पित किया और सहयोगी साझेदारों का विश्वास जताने के लिए आभार जताया.

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पूरे चुनाव प्रचार के दौरान रघुवर दास पूर्ण विश्वास दिखाते रहे और कहते रहे कि अबकी बार 65 पार, लेकिन अपने मुख्यमंत्री के दावों पर खुद अमित शाह तक यकीन नहीं कर पा रहे थे. चुनावी नतीजों के बाद मुख्यमंत्री के दावे सिफर साबित हुए और झारखंड में बीजेपी 65 से आधी सीटें भी नहीं ला पाई, बल्कि एक तिहाई सीटों पर सिमट गई. इन चुनावों में बीजेपी को सिर्फ 25 सीटें मिलीं.

मुख्यमंत्री रघुबर दास ने सौंपा इस्तीफा (तस्वीर- PTI)

इधर, चुनाव में हार के बाद '65 पार' का नारा देने वाले रघुबर दास के विचार भी बदल गए हैं. उन्होंने कहा, ये मेरी हार है, बीजेपी की नहीं. रघुबर दास 5 साल मुख्यमंत्री रहने के बावजूद खुद अपनी सीट भी नहीं बचा पाए.

इस हार की कई वजहें हैं...

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वजह नंबर 1- गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की एंटी-आदिवासी छवि

2014 में बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का ऐलान किए बिना चुनाव लड़ा और 37 सीटें जीतीं. इसके बाद रघुवर दास झारखंड के गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने. उस झारखंड में जहां 26.3 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और 81 में से 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.

सूत्रों की मानें तो आदिवासी समुदाय से आने वाले अर्जुन मुंडा को इस बार मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की मांग उठी थी, जिसे बीजेपी हाईकमान ने नजरअंदाज कर दिया था. अर्जुन मुंडा ने कहा कि पूरी पार्टी एकजुट थी, झारखंड में सभी ने मिलकर काम किया है. सभी ने मिलकर प्रचार किया, इसलिए यह कहना कि किसी खास व्यक्ति का उपयोग नहीं किया गया यह गलत है. पार्टी एकजुट थी, है और रहेगी.

हेमंत सोरेन (तस्वीर- PTI)

वजह नंबर 2 - सहयोगियों को नजरअंदाज करना पड़ा महंगा!

वर्ष 2000 में झारखंड बनने के बाद से बीजेपी और आजसू ने मिलकर चुनाव लड़ा है. वर्ष 2014 के चुनाव में भी दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा. बीजेपी को 37 और आजसू को 5 सीटें मिली थीं. लेकिन इस बार बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया.

इन चुनावों में आजसू ने 53 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. वहीं, केंद्र में एनडीए की सहयोगी पार्टी एलजेपी ने भी करीब 50 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा. इससे वोटों का बंटवारा हुआ और कई सीटों पर आजसू ने बीजेपी के वोट काटे. जब नतीजे आने शुरू हुए तो बीजेपी ने सरकार बचाने के लिए आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो से भी संपर्क किया था, जिसकी फाइनल नतीजों के बाद जरूरत ही नहीं पड़ी.

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हेमंत सोरेन अपने परिवार के साथ (तस्वीर- PTI)

वजह नंबर 3- ईमानदार छवि वाले सरयू राय की बगावत से गलत संदेश!

सरयू राय की गिनती ईमानदार नेताओं में होती है, लेकिन 5 साल सरकार के दौरान रघुबर दास और उनके रिश्ते हमेशा कड़वाहट भरे रहे. रघुबर दास ने अपना पूरा जोर लगाकर सरयू राय का टिकट काटा. इसके बाद सरयू राय ने इस बार बीजेपी के खिलाफ बगावत करते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ा.

जमशेदपुर वेस्ट सीट से चुनाव लड़ते रहे सरयू राय ने जमशेदपुर ईस्ट सीट पर रघुवर दास को चुनौती दी. सरयू राय की बगावत से जनता में ये संदेश गया कि बीजेपी ने एक ईमानदार नेता को टिकट नहीं दिया. अब इसका नतीजा सबके सामने है. मुख्यमंत्री रघुबर दास को सरयू राय ने हरा दिया.

अपने पिता के साथ हेमंत सोरेन (तस्वीर - PTI)

वजह नंबर 4- गैरों पर करम, अपनों पर सितम!

इस चुनाव में बीजेपी को बड़े पैमाने पर अपने ही नेताओं के असहयोग और भीतरघात का सामना करना पड़ा. इसकी वजहें भी अलग-अलग रहीं. चुनाव से पहले दूसरे दलों से आए 5 विधायकों को बीजेपी ने टिकट दिया, जिससे बीजेपी में बगावत हुई. बीजेपी ने 15 दिसंबर को ऐसे 11 बागी नेताओं को 6 साल के लिए पार्टी से निकाल दिया. इन सभी 11 बागी नेताओं ने बीजेपी के प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ा.

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बीजेपी की हार से एक नतीजा ये भी निकलता है कि झारखंड में राष्ट्रीय के बजाय स्थानीय मुद्दों का जोर रहा. जल और जमीन के मुद्दे पर रघुबर सरकार को लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी. झारखंड में पिछले 5 साल में राज्य लोकसेवा आयोग की एक भी परीक्षा नहीं हो पाई. जिससे राज्य के पढ़े लिखे युवाओं की नाराजगी का असर भी नतीजों पर पड़ा.

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