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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल चीन के अपने दौरे से कई साल के तनाव भरे द्विपक्षीय रिश्तों को नई ऊंचाई पर पहुंचाया और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रोटोकॉल तोड़ते हुए मोदी की अगवानी तक की थी. लेकिन दौरे के एक माह से भी कम वक्त के भीतर भारतीय कूटनीतिकों ने चीन और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 14 अन्य सदस्यों के सामने एक आवेदन पेश किया. दरअसल, सुरक्षा परिषद की पाबंदियों को दरकिनार करते हुए पाकिस्तानी आतंकवादी ज़की-उर-रहमान लखवी को रावलपिंडी की जेल से रिहा कर दिया गया था. इसके लिए उसने भारी मुचलका राशि जमा की थी.
भारत का अनुरोध सुरक्षा परिषद की 1267 प्रतिबंध समिति से था जो अल कायदा, तालिबान और अब आइएस से संबंध रखने वाले आतंकवादियों तथा समूहों की सूची बनाती है. अनुरोध इस बात की जांच करने के लिए था कि लखवी पर लगे प्रतिबंधों का उल्लंघन कैसे हुआ और पाकिस्तान से यह सवाल करने के लिए भी कि उसकी रिहाई के लिए इतनी राशि किसने अदा की.
भारत पाकिस्तान में बसे आतंकवादियों को इस सूची में लाने की कोशिशें करता रहा है ताकि उनके हथियार हासिल करने पर रोक लगे, उनके आने-जाने पर पाबंदी रहे और सबसे अहम कि उनकी वित्तीय परिसंपत्तियों को फ्रीज कर दिया जाए. ये कोशिशें पहले भी चीनी दीवार से टकराती रही हैं. सुरक्षा परिषद के पुराने नियमों के मुताबिक, उसके 15 सदस्यों में से कोई भी किसी आवेदन में दिक्कत पाए जाने पर उसे “तकनीकी होल्ड” पर रख सकता है. ऐसा न सिर्फ सुरक्षा परिषद से बाहर के देशों को यह सूचना दिए बिना किया जा सकता था कि असल में किस देश ने आवेदन में अड़ंगा लगाया बल्कि अड़ंगा लगाने वाले देश को उसकी वजह स्पष्ट करना भी जरूरी नहीं था. लेकिन यह अतीत की बात थी. यकीनन, भारतीय कूटनीतिकों ने सोचा होगा कि शी ने मोदी की अभूतपूर्व अगवानी की थी, उसकी चमक में स्थितियां कुछ बदली होंगी. पर ऐसा नहीं था. अंतर बस इतना था कि चीन ने आवेदन में अड़ंगे की वजह दे रखी थी-उन्हें और जानकारी चाहिए.
लिहाजा, जब 31 मार्च, 2016 को बीजिंग ने जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर को सूचीबद्ध करने के एक अन्य आवेदन को तकनीकी होल्ड पर डाल दिया तो भारतीय कूटनीतिकों को कोई हैरानी नहीं हुई. अंतर इस बार भारतीय खेमे की प्रतिक्रिया में था. तीन दिन के भीतर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल&सभी ने मॉस्को और बीजिंग में बैठकों में चीनी समकक्षों के सामने अजहर के मसले को उठाया.
खास तौर पर डोभाल ने 20 अप्रैल को बीजिंग में सीमा वार्ता के 19वें चरण के दौरान चीन के शीर्ष कूटनीतिक यांग झेची के सामने खरे अंदाज में बात रखीः बीजिंग को अच्छे आतंकवादियों और खराब आतंकवादियों के बीच अंतर करना रोकना होगा. शायद अपनी बात को साबित करने के लिए भारत ने पहली बार उइगुर नेता डोलकुन ईसा को इलेक्ट्रॉनिक वीजा जारी कर दिया ताकि वे 28 अप्रैल को धर्मशाला में चीनी असंतुष्टों तथा कार्यकर्ताओं की अपनी तरह की पहली बैठक में हिस्सा ले सकें. डोलकुन 2006 में चीन के झिनजियांग क्षेत्र से भागकर जर्मन नागरिक बन गए थे. बीजिंग का कहना है कि वह “आतंकवादी” है जो 1990 में बमबारी की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है. पर डोलकुन इन आरोपों को खारिज करते हैं. लेकिन वीजा 25 अप्रैल को खारिज कर दिया गया और गृह मंत्रालय ने इसकी वजह के तौर पर इंटरपोल के उस रेड कॉर्नर नोटिस को बताया जो चीन के कहने पर इसा के खिलाफ जारी किया गया था.
भारत सरकार पर यह आरोप लगा कि वह चीन के दबाव में आकर झुक गई, पर अधिकारियों का कहना है कि उनके सामने और कोई विकल्प नहीं था क्योंकि वे रेड कॉर्नर नोटिस की अनदेखी नहीं कर सकते थे-ताकि कहीं बाकी देश भी भारत के सर्वाधिक वांछित अपराधियों के मामले में इसी तरह का जवाबी कदम उठाने के लिए प्रेरित न हों. अधिकारी सार्वजनिक तौर पर इस बात की पुष्टि करने के लिए तो तैयार नहीं हैं कि क्या इसा को वीजा बीजिंग को चेतावनी देने के इरादे से जारी किया गया था, पर कई पूर्व कूटनीतिक इस बात को एक पुख्ता संकेत के तौर पर ही देखते हैं कि भारत ने पहली बार चीन के असंतुष्टों और निर्वासितों को इकट्ठा होने की इजाजत दी है.
मजबूत साथी
भारत इस उम्मीद में है कि वह बीजिंग को अपनी नीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर सकता है, पर मौजूदा और पूर्व चीनी अधिकारियों तथा बीजिंग के सामरिक विशेषज्ञों के मुताबिक इसकी गुंजाइश बहुत कम है. पहली बात, संयुक्त राष्ट्र में चीन के कदमों के लिए सबसे बड़े उत्प्रेरक पाकिस्तान के साथ उसके नजदीकी रिश्ते हैं. उत्तरी कोरिया से रिश्तों में हालिया समस्याओं के बाद चीनी सामरिक विशेषज्ञ पाकिस्तान को अब अपने देश का अकेला असल सहयोगी बताते हैं. चीन-पाकिस्तान रिश्ते शी के शासन में और गहरे हुए हैं. उन्होंने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के रास्ते झिनजियांग से लेकर पाकिस्तान तक 46 अरब डॉलर के आर्थिक कॉरिडोर की शुरुआत की है.
बीजिंग में धारणा है कि पश्चिमी झिनजियांग क्षेत्र में चीन को जिस बढ़ते इस्लामी खतरे का सामना करना पड़ रहा है, उससे निबटने की योजना के केंद्र में पाकिस्तान को रखा जाना चाहिए. पीकिंग विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया क्षेत्र के विशेषज्ञ हान हुआ के मुताबिक, दोनों देशों के बीच सहयोग अच्छी तरह काम कर रहा है. अब तक चीन का नजरिया दो-आयामी रहा हैः अल्पावधि में वह पाक-अफगान सीमा पर उइगुर आतंकवादी कैंपों पर प्रहार करने के लिए पाक सेना और आइएसआइ की मदद लेता रहा है और दीर्घकाल में उसकी योजना दसियों अरब डॉलर लगा आर्थिक कॉरिडोर बनाने की है. उसे उम्मीद है कि उससे झिनजियांग क्षेत्र खुलेगा और उइगुर युवाओं को रोजगार मिलेगा.
पाकिस्तान ने जहां भारत को निशाने पर लेने वाले आतंकवादी गुटों से निबटने में पांव पीछे खींचे हैं, चीन को यकीन है कि उसकी सेना ने तेज और प्रभावी कदम उठाकर चीन-विरोधी गुटों को कुचला है और प्रतिबंधित पूर्व तुर्क मेनिस्तान इस्लामी मूवमेंट के शिविरों को नेस्त-नाबूद किया है. 11 सितंबर, 2001 के हमलों के तुरंत बाद पाकिस्तान में नियुक्त रहे चीनी राजदूत झांग चुनशियांग बीजिंग की धारणा को प्रतिबिंबित करते हैं. वे दोनों देशों को “लौह भाई” बताते हैं और उनमें किसी तरह की मतभेद की शंका जाहिर करने पर उत्तेजित हो जाते हैं. झांग कहते हैं, “पाकिस्तान ही अकेला देश है जिससे हमारे मजबूत रिश्ते रहे हैं.”
पिछले साल के अंत में बीजिंग में मीडिया से एक बातचीत में जब उनसे उइगुर गुटों और पाकिस्तानी संगठनों में आतंकी रिश्तों के बारे में पूछा गया और सवाल किया गया कि क्या पाकिस्तानी एजेंसियां आतंकवादी गुटों पर काबू पाने के लिए पर्याप्त कदम उठा रही हैं? तो वे नाराज हो उठे, “क्या अमेरिका ने आतंकवाद खत्म कर दिया है? और भारत ने? यह नामुमकिन है. फिर क्यों आप लोग सिर्फ पाकिस्तान के बारे में सवाल करते हो?” भारतीय खुफिया एजेंसियों पर पाकिस्तान में चीनी निवेश में अड़ंगा लगाने की कोशिश करने के पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख राहील शरीफ के हाल के बयानों को प्रतिध्वनित करते हुए झांग ने आरोप लगाया कि उनके कार्यकाल में भी चीन की मदद से बन रहे ग्वादर बंदरगाह पर हमला पाकिस्तानी आतंकवादियों ने नहीं बल्कि एक “विदेशी ताकत” ने किया था, जिसका वे नाम नहीं लेंगे पर उसके बारे में “हर कोई जानता है.”
मेरे आतंकवादी बनाम तुम्हारे
चीन के लिए सहयोग का मतलब अपने साथी को अंतरराष्ट्रीय आलोचना से बचाना भी है. 2008 तक बीजिंग ने जमात-उद-दावा को आतंकवादी सूची में शामिल करने की भारत की कम से कम तीन कोशिशों को रोक दिया था. मुंबई हमलों के परिणामस्वरूप दुनियाभर में जो गुस्सा फैला, उसी के बाद जाकर उसने अपना फैसला बदला था. उसी साल बीजिंग ने आइएसआइ के चार अफसरों को सूचीबद्ध करने के वॉशिंगटन के प्रयास को भी रोक दिया था.
चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग का जोर इस बात पर है कि अजहर पर लिया गया तकनीकी होल्ड “तथ्यों” और सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध समिति के “नियमों तथा प्रक्रियाओं” के अनुरूप है. उनका संकेत था कि ये नियम और प्रक्रियाएं, “उन दोनों देशों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करते हैं जो एक तो सूची में शामिल किए जाने का अनुरोध करता है और दूसरा, जहां वे लोग या समूह रहते हैं जो सूची के दायरे में रखे गए हैं.”
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो चीन का संदेश यह है कि वह भारत से यह अपेक्षा करता है कि वह पाकिस्तान के साथ अपने मसलों को सुरक्षा परिषद में लाने की बजाए द्विपक्षीय तरीके से सुलझाए. एक पूर्व वरिष्ठ चीनी कूटनीतिक के मुताबिक सुरक्षा परिषद की पाबंदियां जमीनी स्तर पर किसी भी समूह पर कड़े कदम उठाने में निष्प्रभावी हैं और बीजिंग के नजरिए में ये केवल सियासी पैंतरेबाजी हैं.
चीन की दीवार
भारतीय अधिकारियों के अनुसार इस दलील में कोई दम नहीं है. वे अतीत की उन मिसालों की ओर इशारा करते हैं जहां अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों ने कई अडिय़ल देशों पर कार्रवाई के लिए दबाव डाला है. उनका कहना था कि संपत्तियों को फ्रीज कर देने से आतंकवादी गुटों की हरकतों और उनकी क्षमताओं पर भी रोक लगती है. फिर भी, जहां तक पाकिस्तानी संगठनों की बात है, हकीकत यही है कि उन्हें सूची में शामिल किए जाने का उनके जेहादी मंसूबों पर फर्क नहीं पड़ा है. सूची में शामिल होने के बाद भी लश्कर और जैश की गतिविधियां बगैर दिक्कत के चलती रही हैं.
भारत आतंकवाद पर प्रहार करने के लिए पाकिस्तान को द्विपक्षीय संवाद में शामिल कर रहा है, पर अंतरराष्ट्रीय दबाव जुटाने में सुरक्षा परिषद एक उपयोगी रास्ता तो दिखाती ही है. इस्लामाबाद और बीजिंग में काम कर चुके और फ्रांस तथा जर्मनी में पूर्व भारतीय राजदूत टी.सी.ए. रंगाचारी कहते हैं, “इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा अनिवार्य रूप से होगा पर भारत के लिए उम्मीद यही है कि अंतरराष्ट्रीय जनमत का दबाव पाकिस्तान को हरकत में आने के लिए मजबूर करेगा और इसलिए यह कोशिश तो हमें करनी ही होगी.”
वे कहते हैं कि भारत को दोहरी रणनीति अपनानी होगी. उसे लगातार चीन के साथ संवाद करके इसके लिए राजी करना होगा. साथ ही अपनी बात को ऊपर रख उन्हें इस बात का एहसास कराना होगा कि अगर बाकी देशों ने भी यही खेल खेलना शुरू कर दिया कि कौन आतंकवादी है और कौन नहीं, और हर कोई सिर्फ अपने हितों के अनुरूप काम करने लगा तो आतंकवाद से मिलकर लडऩे की पूरी दुनिया की कोशिश नाकाम हो जाएगी.
कुछ राजनयिकों के मुताबिक, भारत के लिए सबसे अहम बात यही है कि वह सुरक्षा परिषद के उन पुराने नियमों को बदलने के लिए अटके पड़े सुधारों को आगे बढ़ाने की कोशिश करें जो देशों को गुमनाम वीटो और मनमाने तकनीकी होल्ड के पीछे छिपने की गुंजाइश देते हैं. संयुक्त राष्ट्र में स्थायी भारतीय प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने 15 अप्रैल को यही दलील दी. उन्होंने सुरक्षा परिषद की खुली बहस में कहा, “अल कायदा, तालिबान और आइएसआइएस पर प्रतिबंध समिति की सर्वसम्मतता तथा गोपनीयता की प्रक्रिया पर पुनर्विचार होना चाहिए.” पर अधिकारियों का मानना है कि जब तक यह नहीं होता, अजहर सरीखे कई आतंकवादी चीनी दीवार के पार हम सबकी पहुंच से परे बने रहेंगे.