
कविताओं से भारतीय समाज का रिश्ता पुराना है. अगर बात ऐसे कवियों की हो जिन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर, उसके बाद तक अपनी लेखनी से जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक किया हो, तो उनमें रामधारी सिंह दिनकर का नाम जरूर आता है. आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 106 वीं जयंती है.
दिनकर का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. तीन साल की उम्र में सिर से पिता का साया उठ जाने के कारण उनका बचपन अभावों में बीता. लेकिन घर पर रोज होने वाले रामचरितमानस के पाठ ने दिनकर के भीतर कविता और उसकी समझ के बीज बो दिए थे.
उनकी पहली रचना 'प्राणभंग' मानी जाती है. इसे उन्होंने 1928 में लिखा था. इसके बाद दिनकर ने 'रेणुका', 'हुंकार', 'कुरुक्षेत्र', 'बापू', 'रश्मिरथी' लिखा. 'रेणुका' और 'हुंकार' में देशभक्ति की भावना इस कदर भरी हुई थी कि घबराकर अंग्रेजों ने इन किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया था. दिनकर ने निर्भीक होकर अंग्रेजों के खिलाफ तो लिखा ही, लेकिन आजादी के बाद के सत्ता चरित्र को भी उजागर करने से नहीं हिचके. दिनकर जवाहर लाल नेहरू के प्रशंसकों में से थे. लेकिन 1962 के युद्ध में सैनिकों की मौत के मुद्दे पर वह नेहरू की आलोचना से भी नहीं चूके. 'परशुराम की प्रतीक्षा' में वह लिखते हैं,
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है.
याद रहे कि दिनकर की मशहूर किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' की भूमिका जवाहर लाल नेहरू ने ही लिखी थी. दिनकर राज्यसभा के सदस्य भी थे. किताब 'उर्वशी' के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी दिया गया. इस किताब से दिनकर ने साबित कर दिया कि वह वीर रस के अलावा, श्रृंगार भी लिख सकते हैं. दिनकर भले ही कवि के रूप में ज्यादा मशहूर हों लेकिन उनका गद्य भी मजबूत था. उनकी गद्य रचनाओं में 'संस्कृति के चार अध्याय' के अलावा 'मिट्टी की ओर', 'अर्धनारीश्वर', 'रेती के फूल', 'हे राम' और 'लोकदेव नेहरू' शामिल हैं.
दिनकर ने हिंदी कविता को छायावाद के भारीपन से मुक्ति दिलाकर उसे आम जनता के बीच पहुंचाने का काम किया. यही वजह है कि आज भी दिनकर की कविता लोगों की जुबान पर रहती है.
दिनकर ने मुख्य रूप से वीर रस की कविता लिखी है जिसमें समाज के दलित, पीड़ित और शोषकों को प्रमुखता से जगह दिया गया है. दिनकर ताउम्र जात-पात के खिलाफ रहे और इसके लिए लिखने के साथ-साथ सामाजिक आंदोलन भी चलाते रहे. उनके गांव वाले बताते हैं कि दिनकर ने जाति व्यवस्था के खिलाफ एक आंदोलन अपने गांव में लड्डू बांटकर किया था. उनकी किताब 'रश्मिरथी' का नायक भले ही महाभारत का कर्ण हो मगर इसकी पृष्ठभूमि में जातिप्रथा का वही भेदभाव दिखलाया गया है जिसको उन्होंने अपने आस-पास महसूस किया था. दिनकर के लिए गांव से राष्ट्रकवि बनने की राह आसान नहीं थी. उन्होंने एक शिक्षक से लेकर एक प्रोफेसर तक की नौकरी की. उन्होंने बीए तो इतिहास में किया था मगर ताउम्र हिन्दी के शिक्षक रहे. वह भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे. भले ही दिनकर जीवन-भर गांव से बाहर रहे मगर वह अपने गांव को कभी नहीं भूले. उन्होंने अपने गांव को याद करते हुए लिखा था,
हे जननी जन्मभूमि सतबार नमन
तुझ सा ना सिमरिया घाट अन्य
दिनकर ने अपने गांव में स्त्रियों की हालत का गहरा अवलोकन किया था और पाया था कि शिक्षा के अभाव में ही स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा पीछे हैं. उन्होंने अपने गांव में कन्या अवासीय विद्यालय के नाम से एक स्कूल खोला. दिनकर इस काम को करने के लिए इतने समर्पित थे कि उन्होंने इस स्कूल को बनाने के लिए अपनी जमीन दान दी थी. फिलहाल यह स्कूल खंडहर बन चुका है. विडंबना ही है कि भारत में अन्य कवियों के गांव की तरह ही दिनकर का गांव भी बदहाली में जी रहा है. सिमरिया गांव में दिनकर को समर्पित सभागार के नाम पर सिर्फ एक छत खड़ी कर दी गई है, जो किसी काम की नहीं है. हर साल बिहार सरकार दिनकर के नाम पर कई घोषणाएं करती हैं, मगर उनके स्मारक का काम आज तक अधूरा है.