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ओबीसी कोटे पर कुछ जातियों का कब्जा खतरनाक ट्रेंड

आरक्षण का सीधा संबंध रोजगार से है और इस लिहाज से दो साल पहले आए आर्थिक जनगणना के आंकड़ों पर भी ध्यान देना जरूरी है. छठी आर्थिक जनगणना की 2016 में जारी आर्थिक जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, शहरों और गांवों के 1.28 करोड़ एग्रीकल्चर प्रोप्राइटरी इस्टेबलिशमेंट्स (दुकान या प्रतिष्ठान) में से 52.95 लाख ओबीसी जातियों से ताल्लुक रखने वालों के थे.

आरक्षण के लिए आंदोलन आरक्षण के लिए आंदोलन
संध्या द्विवेदी/मंजीत ठाकुर
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  • 13 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 8:52 PM IST

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण देने का विषय हमेशा से विवाद का विषय बना रहा है. बीच-बीच में ओबीसी जातियों में कुछ खास जातियों के आरक्षण का लाभ ज्यादा लेने पर भी विवाद उठे लेकिन बिना किसी तार्किक सर्वे या आंकड़े के इस पर केंद्र व राज्य सरकारें कोई ठोस फैसला नहीं कर सकीं. यानी आरक्षण पाकर पिछड़ापन दूर कर चुकी जातियों को बाहर निकालने का निर्णय नहीं कर सकीं. ओबीसी कोटे पर कुछ जातियों का कब्जा एक खतरनाक ट्रेंड है.

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दरअसल, जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सरकार के पास हैं तो पर वह जगजाहिर नहीं करती. और पिछड़ेपन की पैमाइश करने के लिए जातियों का सर्वे कराना होता है जो देश में होता नहीं है.

नतीजा ये होता है कि आरक्षण की पचास फीसदी वाली सीमा पार होने के बाद दिया गया तार्किक आधार, आकड़ों व सर्वे के अभाव में कोर्ट से खारिज हो जाता है. चंडीगढ़ जैसे छोटे केंद्रशासित प्रदेश में भी ओबीसी की 60 जातियां है जबकि दिल्ली में 58.

वहीं, महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 256, कर्नाटक में 199, उड़ीसा में 197, तमिलनाडु में 182, झारखंड में 134, बिहार में 132, गुजरात में 105, उत्तर प्रदेश में 176 जातियां ओबीसी सूची में हैं जबकि उत्तरप्रदेश में इनकी संख्या 76, पश्चिम बंगाल में 98 है.

आरक्षण का सीधा संबंध रोजगार से है और इस लिहाज से दो साल पहले आए आर्थिक जनगणना के आंकड़ों पर भी ध्यान देना जरूरी है. छठी आर्थिक जनगणना की 2016 में जारी आर्थिक जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, शहरों और गांवों के 1.28 करोड़ एग्रीकल्चर प्रोप्राइटरी इस्टेबलिशमेंट्स (दुकान या प्रतिष्ठान) में से 52.95 लाख ओबीसी जातियों से ताल्लुक रखने वालों के थे.

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इसी तरह गैर कृषि प्रोप्राइटरी इस्टेबलिशमेंट्स में भी ओबीसी की हिस्सेदारी 4३ फीसदी है. ऑल इंडिया लेवल पर देखा जाए तो ओबीसी 39.2 इस्टेबलिशमेंट्स के मालिक हैं. जाहिर है ये अपनी रोजी-रोटी चलाने के साथ कुछ लोगों को रोजगार भी देते हैं. जाहिर है ओबीसी में वैसा पिछड़ापन नहीं है जैसा दलितों या आदिवासियों में है.

सरकारी नौकरी में पिछड़ी जातियों के असमान प्रतिनिधित्व का मसला बहुत संवेदनशील है. क्रीमी लेयर का फंडा लागू करने के बाद भी आरक्षण के भीतर असमानता जरा भी कम नहीं हुई. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में एक खास जाति के लोगों को पिछली अखिलेश यादव सरकार में बड़े पैमाने पर ऊपर से नीचे तक के पदों पर भर्ती किया गया.

इनकी जांच चल रही है. इसलिए ओबीसी आरक्षण की जातियों की ताकिर्क समीक्षा की जरूरत है. पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा सरकार ने दे दिया है पर वह धरातल पर काम किस तरह करेगा, इसकी परख होना बाकी है. सदस्यों की नियुक्ति से पता चलेगा कि सरकार का मकसद राजनीतिक लाभ लेना है या पिछड़ों का उत्थान करना.

हालांकि सरकार कह रही है कि इसका असर राज्यों के ओबीसी कोटे पर नहीं पड़ेगा. लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग को उन जातियों को तवज्जो देनी ही होगी जो ओबीसी कोटे का लाभ अभी तक नहीं ले पाई हैं.

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दूसरे शब्दों में शायद आरक्षण की समीक्षा की दिशा में पहला कदम भी यही होगा कि आरक्षण का फायदा ले चुकी ओबीसी जातियों को कोटे से बाहर किया जाए. बाहर न करने की दिशा में कोटे के भीतर कोटा देने का विकल्प भी है.  

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